अरब का रहा है वैदिक स्वरूप
मोहम्मद साहब का जन्म से पूर्व सारे अरब जगत को वैदिक मान्यताएं प्रभावित करती थीं। उन्हीं के अनुसार सामाजिक और धार्मिक व्यवहार चलता था । यद्यपि यह सही है कि इस वैदिक हिन्दू धर्म में भी उस समय घुन लग चुका था।
अरब के समाज की स्थिति उस समय ऐसी थी जिसके पास विद्यालय का भवन भी था,उसमें पढ़ने वाले बच्चे भी थे, परन्तु उसमें कोई अध्यापक या प्रधानाध्यापक नहीं था । जो उस विद्यालय की शोभा बनता और उन ‘बच्चों’ को पढ़ा – लिखाकर श्रेष्ठ अर्थात आर्य बनाता। ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ का उद्घोष करने वाला भारत ही जब ज्ञान हीन हो गया तो सम्पूर्ण संसार में अनार्यत्व का बढ़ना स्वाभाविक था। वृक्ष को हरा भरा रखने के लिए उसकी जड़ों को सींचना इसीलिए आवश्यक होता है कि यदि जड़ सूख गई तो वृक्ष अपने आप सूख जाएगा ।
अनेकों विद्वानों का यह स्पष्ट मत है कि इस्लाम धर्म के संस्थापक मोहम्मद साहब का जन्म भी एक हिन्दू पुजारी के घर में हुआ था, जो कि मक्का स्थित काबा मन्दिर के पुजारी थे। वैदिक धर्म की पतितावस्था के चलते अरब में एक धार्मिक क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी । जिससे सम्पूर्ण अरब जगत में व्याप्त अज्ञानान्धकार मिटे और ज्ञान के प्रकाश की वापसी हो। जिस समय इस्लाम की स्थापना हुई उस समय अरब में अनेकों यहूदी, ईसाई, हिन्दू और बौद्ध धर्मावलम्बी लोग रहते थे। इनमें से कोई भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं था , जो वेद धर्म की सच्चाई को लोगों को बता सके । इन सबको इस्लाम के लोगों ने ‘काफिर’ कहकर सम्बोधित किया।
हिन्दू लोग धर्म के मर्म से दूर हो गए थे। इसलिए अरबी समाज में ये लोग गर्दन छुपाए बैठे थे । जब कोई अन्य मजहब अपने मत की बात करता था तो ये हिन्दू लोग वैदिक धर्म की बात को शस्त्रसम्मत ढंग से कह भी नहीं पाते थे। जब कोई व्यक्ति, संगठन या समुदाय अपनी उचित बात को लोगों के मध्य प्रस्तुत भी नहीं कर पाता है तब समझ लेना चाहिए कि वह आत्महत्या की ओर बढ़ रहा है। बहुत से हिन्दू आज भी अपनी बात को विधर्मियों के मध्य कहने में संकोच करते हैं ,ऐसे लोग आज भी हिन्दू समाज के शत्रु के रूप में कार्य कर रहे हैं।
जो घुटनों में गर्दन छुपा बैठे सभा के बीच ।
कायर वह नर होत है और होता है नीच ।।
‘काफिर’ का सीधा सा अर्थ यह था कि जो लोग इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास नहीं रखते थे उनका संसार में रहना उचित नहीं है। संसार के सबसे पवित्र दीन इस्लाम को मानना उन सबके लिए आवश्यक है और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो मौत ही उनका एकमात्र उपचार है।
विपरीत दिशा में हो गई क्रान्ति
वैदिक धर्म की वापसी के लिए अरब जगत में क्रान्ति तो होनी अपेक्षित थी , परन्तु वह विपरीत दिशा में हो गई । जिस मानवता की स्थापना के लिए वैदिक क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी, वह मानवता के स्थान पर दानवता को स्थापित करने वाली क्रान्ति के रूप में लोगों को मिली । इस प्रकार की सोच के चलते अरब जगत में इस्लाम के मानने वाले लोगों के द्वारा धीरे – धीरे ऐसी खूनी क्रान्ति की गई कि इन सभी धर्मावलंबियों को वहाँ से समाप्त कर दिया गया।
इतिहास का यह आश्चर्यपूर्ण तथ्य है कि इस्लाम की स्थापना के अगले 50 वर्ष से कम समय में ही यह कार्य पूर्ण कर लिया गया। जिससे अरब देशों में विपरीत मतावलम्बी अर्थात ‘काफिर’ लगभग समाप्त कर दिए गए। काफिरों की समाप्ति का यह क्रम अरब जगत से बाहर भी चला और इस्लाम को मानने वाले लोग बड़े-बड़े लूट दल (जिन्हें सैन्य दल कहा जाना उचित नहीं है ) अन्य देशों के लिए प्रस्थान करने लगे । उनके इस प्रकार के प्रस्थान के पीछे एक ही उद्देश्य होता था कि आक्रमण किए जाने वाले देश को इस्लाम में दीक्षित किया जाए ,और वहाँ के धनमाल व औरतों को लूटकर अपना बनाया जाए। इसी प्रकार की सोच के चलते उत्तरी अफ्रीका के देश अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को, उतरी सूडान के मूल निवासियों को भी या तो मार काटकर समाप्त कर दिया गया या उन्हें धर्मान्तरित कर मुसलमान बना लिया गया।
मजहब के नाम पर तलवारें लेकर चल पड़े,
निरीहजनों के अनेक सिर उनके पैरों पर चढ़े।
सर्वत्र हाहाकार थी और त्राहिमाम की चीख थी,
प्राण बचाने के लिए जन हाथ जोड़े थे खड़े ।।
इन सभी देशों में इस्लाम के अत्याचार अपने चरम पर होते चलते रहे। लाखों लोगों को बेमौत मार दिया गया । चारों ओर दानवता का क्रूर चक्र चला। सारा संसार मानवता की चीख-पुकार से कराहता रहा। पर इस्लाम के तथाकथित सिपाहियों पर उसकी इस चीख-पुकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वे तो यह मानते रहे कि वह जो कुछ भी कर रहे हैं, उसे अल्लाह के हुक्म से कर रहे हैं। आज जो लोग मनु को कोसते हैं, उन्हें इस्लाम के द्वारा किए जा रहे ऐसे अत्याचारों पर विचार करते समय यह अवश्य विचार करना चाहिए कि यदि मनुवाद की व्यवस्था उस समय काम कर रही होती तो इस्लाम के नाम पर लोगों का सर काटते इस्लाम के तथाकथित सिपाहियों को तो मनु एक बार क्षमा कर देते परन्तु जो लोग इन सिपाहियों को पीछे से इस बात की प्रेरणा दे रहे थे कि तुम जो कुछ भी कर रहे हो वह अल्लाह के हुक्म से कर रहे हो – उन्हें मनु कदापि नहीं छोड़ते।
भारत -अरब सम्बन्ध
भारत-अरब- सम्बन्ध का इतिहास दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है। प्रथम शताब्दी ई.पू. में भारत और सेल्यूसिड साम्राज्य के बीच व्यापारिक सम्बन्ध थे। व्यापार सड़क और समुद्री- दोनों मार्गों से होता था । इस सम्बन्ध में हमारे विद्वानों का मानना है कि सड़क-मार्ग उत्तर में तक्षशिला से सेल्यूसिया, कपिसा, बैक्ट्रिया, हिके़टोमोपाइलस होकर जाता था, जो एक महत्त्वपूर्ण सड़क-मार्ग था, जबकि दक्षिण से दूसरा सड़क-मार्ग सीस्तान और कार्मेनिया होकर जाता था।
‘भारतीय धरोहर’ से हमें पता चलता है कि सन् 570 ई. (?) में मुहम्मद साहब के जन्म के समय अर्वस्थान में एक उन्नत, समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण वैदिक संस्कृति थी। प्रत्येक घर में हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ थीं। सार्वजनिक मन्दिर, पूजा-पाठ के साथ-साथ शिक्षा एवं संस्कृति के भी केन्द्र थे। ‘हरिहरक्षेत्रमाहात्म्य’ नामक ग्रन्थ में अर्वस्थान की धार्मिक-सांस्कृतिक राजधानी व साहित्यिक क्रियाकलापों तथा अनेक उत्सवों और मेलों की कार्यस्थली ‘मक्का’ के लिए निम्नलिखित उल्लेख मिलता है : —
एकं पदं गयायांतु मक्कायांतु द्वितीयकम्।
तृतीयं स्थापितं दिव्यं मुक्त्यै शुक्लस्य सन्निधौ।।
अर्थात्, ‘(भगवान् विष्णु का) एक पद (चिह्न) गया में, दूसरा मक्का में तथा तीसरा शुक्लतीर्थ के समीप स्थापित है।’
हिन्दू -मान्यतानुसार मक्का (मक्केश्वर) तीर्थ को स्वयं भगवान् ब्रह्माजी ने बसाया था। इन्हीं ब्रह्माजी को मुसलमान, यहूदी और ईसाई ‘अब्राहम’ या ‘इब्राहीम’ कहते हैं। इस्लामी-परम्परा में मक्का को अब्राहम ने बसाया था। मक्का शहर अति प्राचीन काल से ही विभिन्न व्यापारिक-मार्गों के मध्य में अवस्थित होने के कारण वाणिज्यिक महत्त्व का रहा है। इस्लाम अथवा मुहम्मद साहब के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व से ही यह शहर ‘हरियम्’ (हरम्) सहित विभिन्न धर्मस्थलों का केन्द्र रहा है। इस्लाम के आगमन के पहले के युग में यहाँ 360 वैदिक देवी-देवताओं की पूजा होती थी। सन् 622 में इस्लामी पैगम्बर मुहम्मद साहब ने मक्का में, जो एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक-केन्द्र था, इस्लाम की घोषणा की और तब से इस शहर ने इस्लाम के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। तब से यह शहर इस्लाम का पवित्रतम शहर हो गया है, जहाँ प्रतिवर्ष दुनिया के लगभग 10 लाख मुसलमान इस्लामी कैलेण्डर के अन्तिम महीने में ‘हज’ तीर्थयात्रा करने पहुँचते हैं। ‘हज’ तीर्थयात्रा को इस्लाम के पाँच स्तम्भों (ईमान, नमाज़, रोज़ा, ज़कात एवं हज) में से एक माना गया है।
भारत ने धर्म का पैगाम मक्का को दिया,
अर्व के शुष्क रेत को ज्ञान से गीला किया।
हृदय में उनके हिंद ने भाव ऊंचे थे भरे,
दी व्यवस्था हिंद ने जीना उन्हें सिखला दिया।।
मक्का के केन्द्र में दुनिया की सबसे बड़ी मस्ज़िद और हज़-यात्रा का केन्द्र ‘अल्-मस्ज़िद अल्-हरम्’ स्थित है। इसे ‘अल्-हरम् मस्ज़िद’, ‘हरम् अल्-शरीफ़’, ‘मस्ज़िद अल्-शरीफ़’, ‘मस्ज़िद-ए-हरम्’, ‘प्रधान मस्ज़िद’ और सिर्फ़ ‘हरम्’ भी कहा जाता है। प्रख्यात इतिहास-संशोधक पुरुषोत्तम नागेश ओक (1916-2008) ने उल्लेख किया है कि अरबी-शब्द ‘हरम्’ संस्कृत के ‘हरियम्’ शब्द का अपभ्रंश है, जो विष्णु-मन्दिर का द्योतक है।”
जब हम यह पढ़ते हैं कि ईसाई, बौद्ध, यहूदी आदि अन्य मतावलम्बियों को या धर्मावलम्बियों को मुसलमानों ने शीघ्र ही या तो समाप्त कर दिया या फिर उनको धर्मान्तरित कर उनका मौलिक स्वरूप बिगाड़ दिया गया, लेकिन भारत का वैदिक धर्म अपने अस्तित्व के लिए सबसे अधिक देर तक संघर्ष करता रहा तो इसका अभिप्राय केवल यह है कि वैदिक धर्म से निकल कर सारे संसार में जितने भर भी मजहब या मत पैदा हुए उन सबके वैचारिक चिन्तन में कहीं ना कहीं दोष था, कमी थी, चिन्तन की अपवित्रता थी । जिसके चलते वह उतनी मजबूती से इस्लाम की तलवार का सामना नहीं कर पाए, जितनी मजबूती से भारत के वैदिक धर्मावलम्बियों ने किया।
वैदिक धर्म का चिंतन
वैदिक धर्मावलम्बी लोगों के भीतर एक भाव था कि संसार के लोगों का धर्म अलग अलग नहीं हो सकता। सभी का धर्म एक है और यदि धर्म के नाम पर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का गला काटता है या नरसंहार करता है तो ऐसा व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह धर्म और मानवता का शत्रु है। जिसे समाप्त किया जाना धर्म संगत है वास्तव में धर्म के साथ बेईमानी और उसकी परिभाषा को विकृत करने की सोच यहीं से आरम्भ हुई।
उदाहरण के रूप में बौद्ध धर्म को आप ले सकते हैं। जो कि मूल रूप से वैदिक धर्मावलम्बियों का ही एक मत था, परन्तु यह अहिंसावादी अवगुण या दोष का शिकार हुआ। फलस्वरूप जब इस्लाम की नंगी तलवार इसके सामने आई तो यह उसका सामना नहीं कर पाया। यही कारण रहा कि तुर्की के जितने भर भी बौद्ध धर्मावलम्बी लोग थे, उन्होंने बिना अधिक प्रतिरोध या विरोध के मुसलमान आक्रमणकारियों के सामने शीघ्र ही आत्मसमर्पण कर दिया। इसका कारण केवल एक था कि बौद्ध धर्मावलंबी लोगों को केवल यह शिक्षा दी गई थी कि आपको हिंसा का सहारा किसी भी स्थिति में नहीं लेना है । उन लोगों को अहिंसा के नाम पर भीतर से कायर बना दिया गया । यद्यपि कुछ विद्वानों की मान्यता यह भी है कि स्वयं महात्मा बुद्ध भी नहीं चाहते थे कि अहिंसा की इस प्रकार की गलत परिभाषा प्रचलित हो।
अहिंसा ने इस देश का कर दिया सत्यानाश।
हिंसा दिन प्रतिदिन बढ़ी धर्म गया संन्यास ।।
सातवीं शताब्दी के मध्य से बौद्ध धर्मावलम्बी तुर्की लोगों के इस्लाम में धर्मांतरण करने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। जो अगले 100 वर्ष में पूर्ण हो गई । 100 वर्ष का यह कालखण्ड यद्यपि कुछ अधिक देर तक चला हुआ काल दिखाई देता है, परन्तु इतिहास के कालचक्र पर या इतिहास की कसौटी पर इसे रखने से पता चलता है कि सभ्यताओं के विनाश के लिए 100 वर्ष का समय कोई अधिक नहीं होता। 100 वर्ष का यह कालखण्ड भी इतनी देर केवल इसलिए चल पाया कि वहाँ पर जो हिन्दू लोग थे, उन्होंने बौद्धों को भी बचाने का संघर्ष किया था। क्योंकि ये हिन्दू लोग बौद्ध धर्मावलम्बी लोगों को अपने ही वैदिक धर्म की एक शाखा मानते थे। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इराक भी एक बौद्ध देश था। वहाँ का अन्तिम हिन्दू / बौद्ध राजवंश बरमक था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
3 replies on “राष्ट्रनायक राजा दाहिर सेन और तत्कालीन भारत -2 , मेरी आने वाली पुस्तक ‘राष्ट्रनायक राजा दाहिर सेन’ का लेखकीय निवेदन”
लेख अच्छा लगा। लेख में अनेक खोजपूर्ण बातें हैं जिनसे हिंदू व इतर विद्वान भी परिचित नहीं है। लेख अतीव प्रशंसनीय है। इस लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार। सादर।
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