भारत में किलों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना उन्नत वैदिक संस्कृति का इतिहास पुराना है। जब मनुष्य ने जंगली जानवरों से अपनी रक्षा के लिए बाड़ लगानी सीखी थी तो वह मध्यकालीन उन्नत शैली में बने किलों की पहली पीढ़ी थी । उसके बाद जब समाज में कुछ असामाजिक तत्वों ने मुख्यधारा में विश्वास रखने वाली सज्जन शक्ति को परेशान करना आरंभ किया तो लोगों ने उस समय पहली बार अपनी सुरक्षा के लिए कुछ प्रबंध करने आरंभ किए । लोगों की इस सोच ने भी दुर्गों की ओर बढ़ने में सहायता प्रदान की। लोगों ने उन असामाजिक या आतंकी विचारधारा के उग्रवादी लोगों से अपनी रक्षा के लिए जिन ऊंची दीवारों के बीच रहना आरंभ किया सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से बनाई गई वे ऊंची दीवारें किलों की विकासात्मक प्रक्रिया की दूसरी पीढ़ी थी।
शेष विश्व ने चाहे कितनी ही देर बाद जाकर दुर्ग बनाने सीखे हों, परंतु वैदिक साहित्य में दुर्गों का उल्लेख होने से पता चलता है कि हमारे देश में किलों के बनाने की जानकारी सृष्टि के प्रारंभ से ही थी।
जब समाज में असामाजिक लोगों का प्रचलन बढ़ा तो उन्होंने शेष समाज से अपनी रक्षा के लिए ऊंची- ऊंची दीवारों के बीच अपने आवास और ठहरने के ठिकाने बनाए। क्योंकि ये लोग समाज के शांतिप्रिय लोगों को परेशान करने के पश्चात अपना छुपने का स्थान बनाते थे। आज भी ऐसे लोग कानून और प्रशासन से बचने के लिए बीहड़ जंगलों में अपने स्थान बनाते हैं या शहरों के बीच बहुत मजबूत सुरक्षा व्यवस्था के बीच रहते हुए देखे जाते हैं । इनके पास अपने प्राइवेट अंगरक्षक होते हैं या ऐसे लोगों को साथ रखते हैं जो कहीं भी पुलिस से मुठभेड़ होने पर उनकी सुरक्षा में सहायक हो सकें।
भारतवर्ष में प्राचीन काल से यह परंपरा रही है कि जो लोग असामाजिक हैं या जो समाज की शांतिप्रिय विचारधारा के लोगों का जीना हराम करते हैं उनका वध करने में कोई बुराई नहीं है। इसलिए प्राचीन काल में अपने वध से बचने के लिए दस्यु लोगों ने अपने छुपने के ठिकाने बनाने आरंभ किए। वास्तव में दुर्ग जैसी शरणस्थली को मजबूत बनाने की प्रक्रिया में इन असामाजिक लोगों ने भी अपना योगदान दिया। यह बात अलग है कि इनका योगदान नकारात्मक दृष्टिकोण का था । इस प्रकार भारतवर्ष में दुर्गों के बनाने का काम प्रारंभ में अपने सुरक्षा कवच के रूप में जहां समाज के शांतिप्रिय लोगों ने अपनी सकारात्मक ऊर्जा का व्यय करते हुए अपने सुरक्षित स्थान बनाने में किया वहीं दस्यु या असामाजिक लोगों ने भी अपनी नकारात्मक ऊर्जा को व्यय करते हुए अपने सुरक्षित ठिकाने बनाकर और उनको मजबूती देकर आरंभ किया था।
भारतीय समाज के संदर्भ में यह बात भी सर्वमान्य है कि शांति प्रिय धार्मिक लोगों को कभी भी मजबूत और ऊंची – ऊंची दीवारों से घिरे किसी आवास में रहने की आवश्यकता नहीं होती। साधु ,संत, सन्यासी सब खुले में रहते हैं। जिनके आचार – विचार और आहार – विहार से हिंसक जीव भी अपनी हिंसा को भूल जाते हैं । प्राचीन काल में सारा भारतीय समाज ही धार्मिक लोगों का समाज था, जो एक – दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते थे और अपने कर्तव्य निर्वाह पर ध्यान केंद्रित रखते थे । जिससे उन्हें किसी से कोई भय नहीं रहता था। यही कारण है कि उन्हें खुले में रहना न केवल पसंद था बल्कि यह उनकी प्रकृति के अनुकूल भी था। जब तक धार्मिक लोगों का समाज में वर्चस्व और प्रभाव बना रहा तब तक उन्हें अपने लिए किसी भी प्रकार के ऐसे सुरक्षित स्थानों को ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ी जहां रहकर वे असामाजिक लोगों से अपनी सुरक्षा करने में समर्थ हो पाते । उन्हें उस समय केवल हिंसक वन्य जीवों से ही अपनी रक्षा करने की आवश्यकता थी, जिसे उन्होंने अपने निवास स्थानों को अपेक्षित सुरक्षा देकर संपन्न किया। जब दस्यु या असामाजिक लोगों ने बढ़ना आरंभ किया तो जनसाधारण को अब नई चुनौती का सामना करना पड़ा।
जब अनार्य या एक दूसरे के अधिकारों का हनन करने वाले असभ्य लोगों ने समाज में अफरा-तफरी फैलानी आरंभ की तो उसी समय भारतवर्ष में राज्य की और राजा की आवश्यकता अनुभव की गई। अपने राज्य के सभी नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन के लिए आए खतरे से निपटने के लिए राजा ने अपने पास एक मजबूत सुरक्षा तंत्र विकसित किया। जिसमें पुलिस और सेना भी सम्मिलित थी। फलस्वरूप दस्यु लोगों ने राजा, उसके प्रशासन और सैनिकों से संघर्ष करना आरंभ किया या कहिए कि राजा के इस सारे सुरक्षा तंत्र ने दस्यु तंत्र का विनाश करना आरंभ किया । जिससे राजा के सुरक्षा तंत्र और दस्युतंत्र में संघर्ष आरंभ हुआ। भौतिक जगत में इसी को सुरासुर संग्राम कहा जाता है, जो आज भी जारी है।
अब राजा ने अपने सुरक्षा तंत्र को सुरक्षा कवच देने के लिए दुर्गों का निर्माण करना आरंभ किया । इसके साथ ही साथ किसी भी आपत्तिकाल में जनसाधारण को भी सुरक्षा उपलब्ध कराने की दिशा में ठोस चिंतन मंथन और कार्य किया जाना आरंभ हुआ। यहीं से दोनों का विधिवत प्रचलन आरंभ हुआ ,जिसे राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ । यहां से एक और बात भी आरंभ हुई कि जो उग्रवादी, आतंकवादी या डाकू दल के लोग अपने सुरक्षा आवासों को मजबूत ऊंची ऊंची दीवारों के भीतर बनाते थे वे सभी अवैध और अनैतिक घोषित किए गए, क्योंकि ये लोग जनसामान्य के अधिकारों का हनन करने के लिए इन तथाकथित दुर्गों का उस समय प्रयोग करते थे। जबकि राजा के द्वारा बनाए गए दुर्ग पूर्णतया वैधानिक और नैतिक थे। क्योंकि उन दुर्गों में रहने वाले लोग जनसाधारण के अधिकारों का हनन न करके उनका संरक्षण करते थे।
भारत में दुर्गों की कहानी धीरे – धीरे इसी प्रकार आगे बढ़ी । भारत के विषय में यह सर्वमान्य सत्य है की सभ्यता और संस्कृति का विचारबीज भारत ने ही सारे संसार में फैलाया या बिखेरा । इस प्रकार यह निश्चित है कि भारत से ही दुर्गों के बनाने की परंपरा और उसकी जानकारी सारे संसार में प्रचारित और प्रसारित हुई। जो लोग भारत के ज्ञान विज्ञान से या दुर्गों को बनाने की कला से प्रभावित या परिचित हुए यदि उन्होंने ही कालांतर में भारत के बारे में यह भ्रांति फैलाई कि भारत को किलों के बनाने का ज्ञान हमने दिया तो भारत की वर्तमान पीढ़ी को ऐसी भ्रांति से बाहर निकलना चाहिए।
मनु ने छह प्रकार के दुर्गों का उल्लेख निम्न प्रकार किया है —
धन्वदुर्गं महीदुर्गम् अब्दुर्गं वार्क्षम् एव वा।नृदुर्गं गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत् पुरम् ॥सर्वेण तु प्रयत्नेन गिरिदुर्गं समाश्रयेत्।एषां हि बाहुगुण्येन गिरिदुर्गं विशिष्यते ॥ (मनुस्मृति ( 7- 70- 71)
मनु के अनुसार सबसे पहला धनु दुर्ग होता है। ऐसे दुर्ग के चारों ओर निर्जल प्रदेश होता है ।दूसरा दुर्ग मनु ने मही दुर्ग बताया है । जिसके चारों को ऊंची नीची टेढ़ी-मेढ़ी भूमि मिलती है। तीसरी प्रकार के दुर्ग जलदुर्ग (अब्दुर्ग) हैं । जिनके चारों ओर जल हो। जबकि चौथी प्रकार के वृक्षदुर्ग हैं। जिनके चारों ओर घने वृक्ष होते हैं। पांचवी प्रकार के नरदुर्ग होते हैं।जिनके चारों ओर सेना हो, और छठी प्रकार के गिरिदुर्ग हैं , जिसके चारों ओर पहाड़ हो या जो पहाड़ पर स्थित हो। भारतवर्ष में यद्यपि ये छहों प्रकार के दुर्ग मिलते हैं, परंतु सबसे अधिक सुरक्षित और उत्तम गिरिदुर्ग को माना गया है । यही कारण है कि भारत के सभी किलों में सर्वाधिक गिरिदुर्ग ही मिलते हैं।
अब प्रश्न यह भी है कि राजा जो कि बहुत अधिक सुरक्षा व्यवस्था के बीच रहता था, उसे दुर्ग बनवाने की आवश्यकता क्यों पड़ती थी ? इसका उत्तर यह है कि राजा जिन अतिवादी , असामाजिक व उग्रवादी किस्म के लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए नियुक्त किया गया था ,उनसे उसका संघर्ष होना निश्चित था। अतः राजा के लिए सुरक्षित स्थानों पर रहना भी आवश्यक हो गया। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि किसी आक्रमण के समय दूसरे देश के शत्रु राजा का निशाना भी राजा का निवास स्थान या उसका दुर्ग ही होता था। यदि शत्रु राजा ने उसके राज्य पर हमला करने के दौरान राजा के निवास स्थान या दुर्ग पर कब्जा कर लिया तो माना जाता था कि आक्रमित राजा का सारा राज्य ही शत्रु राजा का हो गया। इसलिए किले पूरे राज्य की या देश की प्रतिष्ठा और अस्तित्व का प्रतीक होते थे । उन पर फहराने वाली पताका उस राज्य के राजा के वैभव और गौरव का प्रतीक होती थी। यही कारण था कि राजा भव्य भवनों और दुर्ग में रहे – ऐसी व्यवस्था हमारे नीतिकारों ने की थी।
राजा यदि कमजोर दुर्ग में रहेगा तो उन्हें शत्रु देश का राजा बड़ी सहजता से पराजित कर सकता था। इसलिए राजा का गौरवमयी ढंग से शक्तिशाली और वैभवसम्पन्न दुर्गों नहीं रहना अनिवार्य किया गया। कुछ मूर्ख आज इस सच्चाई को न समझ कर राजाओं की आलोचना यह कहकर करते हैं कि राजा जनता के पैसे पर वैभव संपन्न जीवन जीते थे । जनता के पैसे का दुरुपयोग करते थे। उनका विलासिता का जीवन होता था जिस पर वह है जनता के पैसे को लुटाते थे।
हमारा कहना है कि भारत के आर्य राजाओं ने दीर्घकाल तक जनता के पैसे का दुरुपयोग नहीं किया। यद्यपि कुछ विकार भारतीय राजाओं के भीतर महाभारत के पश्चात आना आरंभ हुआ । यह विकार भी बहुत कम मात्रा में था। यदि भारत के राजाओं के भीतर यह विकार अधिक मात्रा में आया तो यह उस समय आया जब देश में तुर्कों और मुगलों का शासन स्थापित हो गया। क्योंकि तुर्क और मुगल लुटेरे शासक थे ।इन्हीं की तर्ज पर अंग्रेजों ने भी इस देश में लुटेरी सरकार के रूप में शासन किया। भारत के आर्य राजा तो इन लुटेरे शासकों के विपरीत जनहितकारी नीतियों में विश्वास रखने वाले हुआ करते थे।
महाभारत में जब युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा कि राजा को कैसे पुर अर्थात निवास स्थानों में रहना चाहिए तो पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को उपरोक्त वर्णित छहों प्रकार के दुर्गों के बारे में बताया कि राजा को देश ,काल, परिस्थिति के अनुसार इनमें से किसी भी प्रकार के दुर्ग में ही निवास करना चाहिए।
संसार के सबसे पहले राजा बने मनु महाराज ने अपनी ‘मनुस्मृति’ में स्पष्ट किया है कि कोष, सेना, अस्त्र, शिल्पी, ब्राह्मण, वाहन, तृण, जलाशय अन्न इत्यादि का दुर्ग के भीतर रहना आवश्यक है। महाभारत में भी मनुस्मृति की इसी बात का समर्थन किया गया है। इन दोनों शास्त्रों के इस प्रकार के उल्लेख से पता चलता है कि जहां कोष , सेना, अस्त्र आदि सुरक्षा के दृष्टिकोण से दुर्ग के भीतर रहने आवश्यक हैं ,वही शिल्पी आदि का किले के निर्माण मरम्मत आदि के लिए रहना आवश्यक है। जबकि ब्राह्मण का यज्ञ याग आदि कराने और लोगों का उचित मार्गदर्शन करने हेतु दुर्ग में रहना आवश्यक है। इसी प्रकार वाहन, जलाशय अन्न आदि के विषय में हमें समझना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत