चिन्तन होय पवित्र तो,
हो व्यवहार पुनीत।
ऐसा वो ही कर सके,
जाकी प्रभु से प्रीत॥1470॥
व्याख्या:- वस्तुत:मनुष्य का चित्त यदि मनोविकारों अथवा दुर्गुणों और दुरितों से भरा है, तो उसका आचार-विचार अथवा व्यवहार भी आसुरी प्रवृत्तियों को परिलक्षित करता है।ऐसे व्यक्ति को समाज में सभी लोग हेय-भाव से देखते हैं और यदि व्यक्ति का चिन्तन पवित्र है,उसने अपने मनोविकारों का शमन किया हुआ है,देवी-सम्पदा का संग्रह किया हुआ है,तो उसका अचार-विचार अथवा व्यवहार श्रेष्ठ होता है,अनुकरणीय और वन्दनीय होता है।वह वाणी का वागीश होता है।उसकी वाणी में प्राण और प्राण में प्रण होता है। उसके संकल्प में कोई विकल्प नहीं होता। वह संकल्प सिद्ध पुरुष होता है।संसार उसके वचनों पर विश्वास करता है।याद रखो, यह संसार उसी का है,जिसका विश्वास है।वह अपने विश्वास को कायम रखने के लिए तथा परमपिता परमात्मा को सर्वदा प्रसन्न रखने के लिए कभी किसी के साथ बुरा नहीं करता है। ऐसा वही करता है,जिसका चित्त और चिन्तन पवित्र हो,जो परमपिता परमात्मा का प्रिय भक्त हो। इसलिए जितना हो सके, अपने चित्त और चिन्तन को पवित्र रखिए,निर्मल रखिए।
शनै:शनै: सर का सलिल,
रोज सूखता जाय।
ऐसे ही मन में कामना,
संयम से मिट जाय॥
व्याख्या:- यद्यपि कामनाएँ आकाश की तरह अनन्त है लेकिन जैसे रवि-रश्मियां सरोवर के अथाह जल को अपने ताप से एक दिन उसे सुखा देती हैं, ठीक इसी प्रकार मन रूपी मानसरोवर में उठने वाली कामनाओं को संयम के द्वारा अर्थात् नियन्त्रण रखकर समाप्त किया जा सकता है और ऐसा व्यक्ति ही ‘अकाम’ कहलाता है।इसलिए कामनाओ (तृष्णाओं) को सर्वदा संयम की लगाम दो।
क्रमश:
प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य
मुख्य संरक्षक : उगता भारत