भारत ने किसी भी विदेशी सत्ताधारी को कभी भी अपना शासक स्वीकार नहीं किया। अनमने मन से या किसी मजबूरी के चलते यदि कहीं कुछ देर के लिए इन विदेशी सत्ताधारियों को अपना शासक स्वीकार कर भी लिया गया तो भारत के लोगों ने समय आते ही उसकी सत्ता पलटने या उसका सर्वनाश करने में तनिक भी देर नहीं लगाई। जब भारत में अंग्रेज शासक बनकर बैठ गए तो भारत के लोगों ने उन्हें भी समझने में देर नहीं की। यही कारण था कि अंग्रेजों के विरुद्ध भी हमारे महान पूर्वजों ने पहले दिन से ही क्रांति और विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था।
भारत के बारे में यह बहुत ही सुखद और आश्चर्यजनक तथ्य है कि यहां पर देश के लोगों की ओर से राजाओं का इस बात के लिए इंतजार नहीं किया गया कि वे आएंगे और उनके नेतृत्व में विदेशी सत्ताधारियों को उखाड़ने का संघर्ष किया जाएगा । ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब गांव के मुकद्दम स्तर के लोगों ने अपनी – अपनी अवैतनिक देशभक्त सेनाएं तैयार कीं और अंग्रेजों या उनके पहले मुगलों और तुर्कों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। ऐसा ही सिलसिला अंग्रेजों के विरुद्ध भी जारी रहा ।
1857 में अंग्रेज जब भारतवर्ष में अपने शासन के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में बड़े स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन करने जा रहे थे, तब भारत की जनता ने उनके रंग में भंग करने का मन बना लिया था। जहां 1857 की क्रांति का शुभारंभ धन सिंह कोतवाल जैसे महान क्रांतिनायक ने मेरठ से आरंभ कर दिया था वहीं देश के अन्य प्रांतों और क्षेत्रों में भी क्रांति की यह ज्वाला बड़ी तेजी से फैल गई। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी और उसके इर्दगिर्द के क्षेत्र में क्रांति की इस ज्वाला का नेतृत्व किया।
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर, 1835 को हुआ था। उनके माता पिता और परिवार जन उन्हें बचपन में प्यार से मनु कहकर पुकारते थे। इसके साथ-साथ उनके प्यार के दो नाम और भी थे – मणिकर्णिका तथा छबीली । इनके पिता का नाम श्री मोरोपन्त ताँबे तथा माँ का नाम श्रीमती भागीरथी बाई था। कहते हैं ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ – और यही बात मनु पर पूर्णतया सिद्ध हो रही थी। वह बचपन से ही गुड़ियों से न खेलकर तीरंदाजी करने घुड़सवारी करने और ऐसे वीरता के प्रदर्शन करने में विश्वास रखती थी जो उस अवस्था के बच्चों के लिए पूर्णतया अप्रत्याशित ही कहा जा सकता है। लगता है नियति ने उन्हें बचपन से ही अपने अनुसार उस सांचे में ढालना आरंभ कर दिया था जो उनकी भविष्य की भूमिका तैयार कर रहा था । इसी समय उन्हें नाना साहब पेशवा का साथ मिला। वह भी उनकी अवस्था के ही बालक थे, परंतु उनके अंदर भी बालकपन से ही वीरता और देशभक्ति का अद्भुत सम्मिलन था।
मनु का विवाह उस समय की प्रचलित मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार बालकपन में ही राजा गंगाधर राव के साथ कर दिया गया था। विवाह के समय मनु की अवस्था मात्र 7 वर्ष की थी। वास्तव में इस अवस्था में विवाह करना बच्चों के साथ अत्याचार करने से कम नहीं था, परंतु कुछ मजबूरियां थीं, जिनके कारण हिंदू समाज ने उस समय ऐसी कुपरंपराओं को अपना लिया था। अब बालिका मनु विवाह के उपरांत मनु से रानी लक्ष्मीबाई बन गई।
विवाह के पश्चात कुछ दिनों तक तो सब कुछ सामान्य चलता रहा, परंतु जब रानी लक्ष्मीबाई कुछ समझने योग्य हुईं तो नियति ने उनके साथ बड़ा क्रूर प्रहार कर डाला। उनके पति राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता था । वह निरंतर बीमार रहते थे। जब रानी लक्ष्मीबाई 18 वर्ष की हुईं तो उस समय राजा गंगाधर राव कुछ अधिक ही अस्वस्थ हो गए और उसी अवस्था में उनका देहांत हो गया। इस घटना से रानी के लिए सचमुच आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा था । उनकी अवस्था अभी वैधव्य के कष्ट को झेलने के लिए तैयार नहीं थी , परंतु उन पर न केवल वैधव्य का कष्ट आया बल्कि उसके साथ-साथ और भी अनेकों कष्टों ने उनके जीवन को बहुत अधिक कष्टपूर्ण बना दिया। रानी लक्ष्मी बाई के लिए सबसे बड़ी कष्टदायक बात यह थी कि उन्हें राजा से कोई संतान प्राप्त नहीं हुई थी , जिससे उनके राज्य के उत्तराधिकारी का प्रश्न उनके लिए बहुत ही जटिल हो गया था।
रानी के पास राजा गंगाधर राव का कोई पुत्र या उत्तराधिकारी न होने का लाभ अंग्रेजों ने उठाने का मन बना लिया था । अंग्रेजों की कोपदृष्टि रानी की ओर पड़ी तो रानी और भी अधिक असहज हो उठी। क्योंकि वह किसी भी कीमत पर अपने पति के राज को अंग्रेजों को थाली में रखकर देने के लिए तैयार नहीं थीं। यद्यपि राजा गंगाधर राव अपने जीवन काल में ही इस समस्या का समाधान करके गए थे , क्योंकि उन्होंने दामोदर राव नामक एक बच्चे को अपना उत्तराधिकारी मानकर गोद ले लिया था। इससे भारतीय परंपरा के अनुसार रानी को अपने पति राजा गंगाधर राव का उत्तराधिकारी मिल चुका था, परंतु अंग्रेज रानी के गोद लिए पुत्र को उसके पति के राज्य का उत्तराधिकारी मानने को तैयार नहीं थे। जिन अंग्रेजो को उनके चाटुकार भारतीय इतिहासकार आज भी न्याय प्रिय कहते हैं, उन्हीं अंग्रेजों ने अन्याय का सहारा लेकर ऐसे कई राज्यों को हड़प लिया था जिनके पास प्राकृतिक उत्तराधिकारी नहीं था अर्थात दत्तक पुत्र को वह किसी राजा के राज्य का उत्तराधिकारी नहीं मानते थे। अपने इसी अन्याय पूर्ण दृष्टिकोण का परिचय देते हुए अंग्रेजों ने राजा गंगाधर राव के परलोक सिधारते ही उनके राज्य को ब्रिटिश राज में मिला लिया। रानी के लिए अंग्रेजों का इस प्रकार का दुराचरण बहुत ही अधिक क्रोध दिलाने वाला था। रानी ने अंग्रेजों के इस निर्णय को पहले दिन से स्वीकार नहीं किया और उन्होंने यह मन बना लिया कि वे अंग्रेजों को भारत से भगा कर ही वह दम लेंगी। यही कारण था कि उन्होंने अंग्रेजों की इस घोषणा का विरोध करते हुए स्पष्ट घोषणा कर दी कि वह झांसी को किसी भी कीमत पर ब्रिटिश राज्य का हिस्सा नहीं बनने देंगी। इसके लिए चाहे उन्हें प्राणोत्सर्ग भी करना पड़े तो वह इससे भी सहर्ष करेंगी।
जब रानी ने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत और क्रांति का झंडा बुलंद किया तो सदाशिव नामक उनका एक विश्वसनीय सरदार उनके विरुद्ध गद्दारी पर उतर आया। वास्तव में इस गद्दार को अंग्रेजों ने पीछे से अपना सहयोग, समर्थन और आशीर्वाद दे दिया था। जिससे वह मातृभूमि के विरुद्ध गद्दारी करने पर उतर आया था। इस गद्दार सदाशिव ने रानी और भारत माता के विरुद्ध गद्दारी करते हुए झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया। जब रानी को उसकी गद्दारी के इस प्रकार के आचरण का ज्ञान हुआ तो उसने बड़ी कुशलता और सफलता के साथ इस गद्दार का फन कुचल दिया । इसी समय ओरछा के दीवान नत्थे खाँ को भी रानी के विरुद्ध विद्रोह और गद्दारी करने का अवसर उपलब्ध हो गया। वह भी अपने दल बल के साथ झाँसी पर चढ़ आया।
यद्यपि दीवान नत्थे खान के पास 60,000 सैनिकों का विशाल सैन्य दल था, परंतु रानी ने उसके इस विशाल सैन्य दल की तनिक भी परवाह नहीं की और उन्होंने इस गद्दार को भी गद्दारी का उचित पुरस्कार देते हुए पराजित कर दिया।
इस समय सारे भारतवर्ष में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की ज्वाला धधक रही थी, अंग्रेज भारतवर्ष में अपने शासन की हीरक जयंती मनाने के जिस कार्यक्रम की तैयारी कर रहे थे, अब वह उसे मनाना भूल गए थे और भारत में जिस क्रांतिकारी केसरिया की ध्वजाएं चारों ओर फहरा रही थीं, उन केसरिया ध्वजाओं ने अंग्रेजों की रात की नींद और दिन का चैन छीन लिया था। केसरिया क्रांति की अप्रत्याशित लहर से झांसी भी अछूती नहीं थी। यहां भी हमारे वीर सैनिक और अन्य क्रांतिकारी योद्धा जनता के बीच से निकल निकल कर केसरिया ध्वज के नीचे आकर मां भारती के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने का संकल्प ले रहे थे । उन्हें अंग्रेज जहां भी दिखाई देते थे उन्हें तुरंत यमलोक पहुंचा दिया जाता था। देशभक्ति का ऐसा वातावरण बन चुका था कि अंग्रेज उसे देखकर भी भयभीत होने लगे थे। रानी के लिए यह सारी परिस्थितियां बड़ी अनुकूल थीं। उन्होंने अपने अद्भुत साहस और शौर्य का परिचय देते हुए झांसी क्षेत्र की जनता का नेतृत्व करते हुए क्रांति और अपने राज्य का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया।
अंग्रेजों ने रानी से प्रतिशोध लेने और उसका प्रतिरोध करने के लिए बड़े व्यापक स्तर पर तैयारियां करनी आरंभ कीं। वे रानी के अद्भुत साहस और शौर्य को देखकर न केवल भयभीत थे ,बल्कि बहुत ही अधिक लज्जित भी हो रहे थे कि भारतवर्ष की एक नारी के सामने उनकी सारी शक्ति और बौद्धिक चातुर्य नष्ट हो गया था। यही कारण था कि अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई से निपटने के लिए बहुत ही दमनकारी और क्रूरता पूर्वक उपायों का सहारा लिया । जनरल ह्यू रोज को एक बड़ी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई का दमन करने के लिए झांसी भेजा गया। इस राक्षस ने अपने राज्य के भारतवर्ष में स्थायित्व को लेकर बड़ी द्रुतगति से झांसी पर हमला बोल दिया। जब रानी लक्ष्मीबाई को इस योजना की भनक लगी तो वह भी युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गईं। उन्हें यह पहले से ही आभास था कि अंग्रेज उनके विरुद्ध व्यापक स्तर पर तैयारी कर रहे हैं और वह उनका दमन करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।
रानी ने अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अपनी पीठ पर बाँध लिया और 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र आकर अंग्रेजों का सामना तलवार से करने लगी। रानी और उसके वीर सेनानायक बड़ी वीरता के साथ अंग्रेजों का सफाया करने लगे। यह युद्ध निरंतर 8 दिन तक चलता रहा । हमारे वीर क्रांतिकारी अंग्रेज सेना का सफाया करते हुए वीरगति को प्राप्त होते जा रहे थे। जिससे रानी प्रतिदिन मित्रविहीन होती जा रही थी । 8 दिन तक हमारे क्रांतिकारी योद्धा रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों को आगे बढ़ने से रोकने में सफल रहे । उधर तात्या टोपे बड़ी तेजी से अपने 20000 सैनिकों के साथ रानी की सहायता के लिए बढ़े चले आ रहे थे। नौवें दिन उन्होंने आकर रानी के साहस को बढ़ा दिया। पर अंग्रेजों ने भी नयी कुमुक मँगा ली। रानी पीछे हटकर कालपी जा पहुँची।
कालपी से रानी ग्वालियर आयीं। वहाँ 18 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी की दो सहेलियां सुंदरा व मुंदरा ने भी उनके साथ रहकर अपनी वीरता का प्रदर्शन किया था । उन्होंने अंग्रेजों को यह दिखा दिया था कि भारतवर्ष में न केवल लक्ष्मीबाई वीरता की मिसाल है बल्कि उसके साथ साथ भारत की अनेकों नारियां भी अपने वीरांगना धर्म का निर्वाह करने में निपुण हैं। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं। पर उन्होंने अपने इस छोटे से जीवन में ही अंग्रेजों को यह दिखा दिया कि भारत कभी भी विदेशी सत्ताधारियों की सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा। उन्होंने अपने रक्त से जिस क्रांति बीज का आरोपण किया वह ही आगे चलकर फलवती हुआ और एक दिन भारत आजाद हुआ। इस प्रकार भारत की आजादी को लाने में रानी लक्ष्मीबाई का विशेष योगदान है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत