राकेश सैन
पंजाब में विधानसभा चुनाव सिर पर आते ही बंगाल की तरह मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल शुरू हो चुका है। इसे संयोग कहा जाए या कुछ और कि पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह भी व्यवसायिक चुनाव रणनीतिकार प्रशान्त किशोर की सेवाएं ले रहे हैं।
डेढ़-दो माह पहले देश कोरोना की दूसरी लहर के चलते त्राहिमाम मुद्रा में था। अस्पताल स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ खून की कमी से भी जूझ रहे थे, बहुत से सरकारी अस्पतालों के रक्त-भण्डार (ब्लड बैंक) रिक्त हो गए और निजी संस्थानों में खून सोने के भाव मिल रहा था। ऐसे में परम्परा अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पूरे देश के साथ-साथ पंजाब में भी जगह-जगह रक्तदान शिविर लगाए, लेकिन देश का दुर्भाग्य देखो कि किसान आन्दोलन के नाम पर शरारती तत्वों ने जहां तक बस चला मानव सेवा के इस कार्य में भी बाधा पहुंचाई।
दूसरी ओर केन्द्र में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठजोड़ सरकार के सात साल पूरा होने पर भारतीय जनता पार्टी ने मास्क, सैनेटाइजर, आयुष काढ़ा सहित अनेक कोरोना राहत एवं बचाव सामग्री बांटी तो उन्हें भी कई स्थानों पर इन्हीं तत्वों के विरोध का सामना करना पड़ा। महामारी के समय इस तरह के सेवा कार्यों में बाधा मानवता के प्रति अक्षम्य तो है ही साथ में कानून की दृष्टि में भी यह दण्डनीय अपराध है और लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों का उल्लंघन भी। यह लोकतन्त्र का उपहास ही है कि राज्य सरकार इन आपराधिक घटनाओं को मजाकिया अन्दाज में लेती रही है तो सत्ताधारी कांग्रेस के साथ अन्य गैर-भाजपाई दल और मीडिया का एक वर्ग इसके लिए पीड़ितों को ही दोषी ठहराने का प्रयास करते रहे हैं। देश का एक सीमान्त राज्य पंजाब दूसरे उस सीमावर्ती प्रदेश बंगाल की डगर चलता दिखाई देने लगा है जहां विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद भी राजनीतिक हिंसा का क्रम थम नहीं रहा। दोनों राज्यों में राजनीतिक हिंसा का सेक राष्ट्रवादी विचारधारा के दलों व संगठनों को ही सहना पड़ रहा है। राजनीतिक शह पर कानून का चीरहरण कर रहे शरारती तत्वों की अराजकता व अघोषित आपातकाल से निपटने के लिए लोकतान्त्रिक शक्तियों को एकजुट होना होगा।
पंजाब में राष्ट्रवादी विचारधारा का विरोध करने वाले नक्सलियों, अलगाववादियों व छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी दलों ने दिल्ली की सीमा पर चल रहे किसान आन्दोलन को अपना कारगर हथियार बना लिया है। जिहादी व मतान्तरणवादी शक्तियां गुप्त रूप से इनके साथ हैं। इस आन्दोलन के बैनर तले जब किसी का दिल चाहा भाजपा व संघ की गर्दन दबोचने का प्रयास करता है। आभास यह दिया जाता है कि केन्द्र सरकार आन्दोलनरत किसानों की सुनवाई नहीं कर रही और विरोध इसी का परिणाम हैं। कुल मिला कर पीड़ितों को खलनायक के रूप में पेश करने का प्रयास होता है और हर बार लोकतन्त्र पर संकट की बहस का गला घोंट दिया जाता है।
पंजाब में विधानसभा चुनाव सिर पर आते ही बंगाल की तरह मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल शुरू हो चुका है। इसे संयोग कहा जाए या कुछ और कि पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी उन्हीं व्यवसायिक चुनाव रणनीतिकार प्रशान्त किशोर की सेवाएं ले रहे हैं जिन्होंने बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बैनर्जी को 27 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक को साधने का परामर्श दिया था। छद्म धर्मनिरपेक्षता की धुरन्धर कही जाने वाली ममता बैनर्जी तो पहले ही इसी राह पर चल रही थीं परन्तु उक्त परामर्श का भी उन्होंने अक्षरश: पालन किया। इसी का परिणाम निकला कि तमाम चुनौतियों के बावजूद वो दो तिहाई बहुमत के साथ तीसरी बार मुख्यमन्त्री बन गईं। लगता है कि इन्हीं पदचिन्हों पर चल कर कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने भी ईद के मौके पर मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र मालेरकोटला को जिला बनाने की घोषणा कर एक खास वोटबैंक को साधने का प्रयास किया है। कहने को तो यह निर्णय साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए है परन्तु देश में इस तरह अल्पसंख्यक बाहुल्य इलाकों के सामूहीकरण के जो दुष्परिणाम सामने आ चुके हैं, साफ है कि उनको राजनीतिक स्वार्थों के चलते नजरंदाज कर दिया गया है।
पंजाब में राष्ट्रवाद आतंकवाद के समय से ही चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना करता आ रहा है परन्तु उसके लिए राजनीतिक आपातकाल का नया दौर उस समय शुरू हुआ जब केन्द्र के तीन कृषि सुधार अधिनियमों के खिलाफ कुछ किसान संगठनों का आन्दोलन शुरू हुआ। इस आन्दोलन के जरिए केन्द्र में भाजपा सरकार को उलझाए रखने के लिए कांग्रेस सहित सभी गैर-भाजपा दलों ने इसका समर्थन किया। आन्दोलन के नाम पर प्रदेश की जनता ने इतनी गुण्डागर्दी भुगती कि किसानों के रेल रोको आन्दोलन के चलते आर्थिक गतिविधियां तक सीमित हो गईं और उद्योग-व्यवसाय पर बुरा प्रभाव पड़ा। आन्दोलन के नाम पर सैंकड़ों वे मोबाइल टावर क्षतिग्रस्त कर दिए गए वर्तमान में जिनके बिना जीवन की कल्पना तक नहीं हो सकती। स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों को चुनावी प्रचार तक नहीं करने दिया गया। आन्दोलन की आड़ में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर कई पूर्व मन्त्रियों, विधायकों, कार्यकर्ताओं, संघ के प्रचारकों तक पर हमले हो चुके हैं। बठिण्डा जिले में गुरुद्वारा साहिब के एक ग्रन्थी पर इसलिए केस दर्ज कर लिया जाता है कि उन्होंने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के अच्छे स्वास्थ्य व लम्बी उम्र की अरदास की। हैरानी है कि यह सारी अलोकतान्त्रिक गतिविधियां मीडिया व बौद्धिक चर्चाओं से बाहर हैं। प्रश्न उठना स्वभाविक ही है कि अगर किसी भाजपा शासित राज्य में विरोधी दल से इस तरह का व्यवहार हो रहा होता तो क्या सेकुलरवादी हाथ में घाघरा उठा कर पूरे देश में नंगा नाच नहीं कर रहे होते ?
बंगाल में चाहे राजनीतिक हिंसा का पुराना इतिहास रहा है परन्तु वर्तमान दौर के शुरुआती चरण में इन हिंसक प्रदर्शनों पर इसी तरह मौन साधा जाता रहा। इसी का परिणाम निकला कि आज बंगाल राजनीतिक हत्या, बलात्कार व आगजनी की राजधानी बन चुका है। पंजाब में भी उसी गलती को दोहराया जा रहा है, अगर लोकतान्त्रिक शक्तियां समय पर नहीं चेतीं तो भविष्य में पूरे देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
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