वेद में नारी का स्थान
वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, शीलगुण, कर्तव्य, अधिकार एवं सामाजिक भूमिका का जो सुंदर वर्णन पाया जाता है वैसा संसार के अन्य धर्म ग्रंथ में नहीं है। वेद उन्हें घर की साम्राज्ञी कहते हैं। देश के शासक, पृथ्वी की साम्राज्ञी बनने की बात कहते हैं।
वेद में नारी को सृष्टि माना गया है। वही परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की निर्मात्री है। श्रीमती एनीबेसेंट भी अपने विचार उदधृत करती हैं- “Nowhere in the whole world, no where any religion, a nobler, a beautiful, a more perfect ideal of marriage than you can find in the early writings of Hindus ( Aryan culture)”.
अर्थात् भूमंडल के किसी भी देश में, संसार की किसी भी जाति, धर्म में विवाह का ऐसा महत्व (गम्भीर एवं पवित्र) नहीं है जैसा कि प्राचीन आर्ष ग्रंथों में पाया जाता है।
इसी श्रृंखला में वेद मंत्र कहता है-
ओ३म् समञ्जन्तु विश्वे देवा समापो हृदयानि नौ।
सं मातरिश्वा सं धाता समुदेष्ट्री दधातु नौ।।
ऋ० १०/८५/४७
वर वधु मंत्रोच्चार कर संकल्प लेते हैं ” हे यज्ञशाला सभासदो! आज हम दोनों गृहस्थाश्रम में प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश कर रहे हैं। हम दोनों के ह्रदय जल के समान मिल जाएं। प्राण वायु की तरह हम एक दूसरे के प्रिय बनें। परमात्मा की तरह हम एक दूसरे को धारण करें। विवाह की मूल भावना है कि दो हृदयों का मिलन वह भी वाह-वाह के साथ।”
यह तत वह तत एक हैं,
एक प्राण द्वै (दो) गात।
प्रियवर अपने हिए से जानिए,
मेरे हिय जिए की बात।।
जल का मिलन ही मिलन है – दो कूप, दो सरोवर अथवा दो नदियों के जल का मिलन होने पर किसी वैज्ञानिक क्रिया के द्वारा भी अलग (पृथक) नहीं किया जा सकता है। इस कारण ही एनीबेसेंट ने लिखा है क्योंकि विदेशों में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की तरह इस पवित्र संबंध को कुछ अवधि तक ही प्रयोग किया जाता है।
स्वयं वेद भगवान (ऋ. १०/८५/४६) नव वधू को अधोलिखित आशीर्वाद देते हैं-
१- साम्राज्ञी श्वसुरे भव, साम्राज्ञी श्वश्रवां भव।
ननान्दरि साम्राज्ञी भव, साम्राज्ञी अधिदेवृषु।।
श्वसुर, सास, ननद, देवर-देवरानी, जेठ- जिठानी यथा योग्य कर्तव्य को करती हुई उनके मन-मस्तिष्क पर राज्य कर, रानी जैसे महल में आनंद से रहती है। उसी प्रकार रानी बनकर अधिकार के साथ रह।
२. सहृदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमिवः।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वर्त्स जाति मिवाप्नया।।
(अथर्व ३।३०।११)
वेद पति पत्नी को उपदेश करता है तुम अक्षय सुख को प्राप्त करो अर्थात् सहृदयं बनो। (सामनस्यम ) प्रसन्नता पूर्वक ( अविद्वेषम्) बिना किसी विरोध और प्रतिशोध के व्यवहार से (कृणोमि जातिमिव ) जैसे गाय, उत्पन्न बछड़े के साथ वात्सल्य भाव से वर्तती है (अन्यो अन्यम्) एक दूसरे ( अत्रि हर्यत ) प्रेम पूर्वकामना से वार्ता करो।
३. अघोरचक्षुरपतिघ्नी स्योना ………………..
…………….. सुमनस्यमाना ( अथर्व १८|२|१७)
पत्नी का प्रथम गुण अघोरचक्षु: है अर्थात् क्रूर दृष्टि ना रखने वाली|
मृदुर्निमन्युः केवली प्रियवादिन्यनुव्रता ||
(अथर्व ३|२५|४)
मृदुभाषणी, कौमलांगी, प्रसन्नवदन, क्रोधशून्य और गृहस्थ धर्म की अनुव्रता हो |
“सुमंङ्गली प्रतरणी गृहाणां सुशेवा पत्ये श्वसुरायशंभू।
स्योना श्वश्रवै प्र गृहान विशेष मान ॥
(अथर्व १४|२|२६)
हे देवी! तू उत्तम मंङ्गल करने वाली, परिवार की तारणहारिणीं, पति, श्वसुर, सास आदि की सुखदायिनी है। ऐसे घर सुख आश्रम है ।
गृह लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंङ्गल उनके जीवन में।
पत्नी होती है पूर्णवृत्ता, स्नेह भरे सबके मन में।।
मम पुत्राः शत्रुहणोऽथो मे दुहिता विराट्।
उताहमस्मि संजया पत्यौ मे श्लोक उत्तम।।
(ऋग्वेद १०|१५९|३)
मेरे पुत्र शत्रुओं का संहार करने वाले हैं। मेरी पुत्री अत्यंत तेजस्विनी, मैं स्वयं विजय शालिनी हूं। मेरे पति में भी सर्वश्रेष्ठ शत्रु विजय संबंधी यश है।
पुराणों में नारी का स्थान- प्राचीन इतिहास में सबसे सुंदर उदाहरण मदालसा देवी हैं। मदालसा के तीन पुत्र विक्रांत, सुबाहु, और अरिदमन हुए। माता उन्हें लोरी देते हुए कहती है –
शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि,
संसार माया परिवर्जितोऽसि।
संसार मायां त्यज मोह निंद्रां,
मदालसा शिक्षयतीह बालम।।
हे पुत्र! तू शुद्ध है, बुध है, निरंजन-निर्दोष है, संसार की माया से रहित है। इस संसार की माया को त्याग दे। उठ, खड़ा हो, मोह माया को परे हटा। इस प्रकार मदालसा अपने पुत्रों को शिक्षा देती है। इस शिक्षा के परिणाम से तीनों पुत्र राजपाट का मोह त्याग कर वन चले गए। यह स्थिति देख महाराज ने कहा- क्या सबको ही सन्यासी बना दोगी? जब चौथा पुत्र उत्पन्न हुआ। तब मदालसा ने पुत्र का नाम अलर्क रखा। माता ने उसे राजनीति का उपदेश दिया, उसे लोरी देते हुए कहती थी-
धन्योऽसि रे यो वसुधामशत्रु,
रेकश्चिरं पालयिताऽसिपुत्र।
तत्पालनादस्तु सुखोप भोगों,
धर्मात् फलम् प्राप्स्यसि चामरत्वम्।।”
( मा. पु.-२६/३५)
हे पुत्र! तू धन्य है जो अकेला ही शत्रुओं से रहित होकर इस पृथिवी का पालन कर रहा है। धर्म पूर्वक प्रजा पालन से तुझे इस लोक में सुख और मरने पर मोक्ष की प्राप्ति होगी। राज्य की उत्तम व्यवस्था पर उपदेश देती हुई कहती है-
राज्यं कुर्वन् सुहृदो नन्दयेथा:,
साधून् रक्षंस्तात: यज्ञैर्यजेथा:।
दुष्टान्निघ्नन् वैरिणश्चाजिमध्यै,
गो विप्रार्थ वत्स: मृत्युं व्रजेथा: ।।
( मा० पु० २६/४१)
हे पुत्र ! तू राज्य करते हुए अपने मित्रों को आनंदित करना। साधुओं और श्रेष्ठ पुरुषों की रक्षा करते हुए खूब यज्ञ करना और कराना। गौ, विद्वानों की रक्षा के लिए संग्राम भूमि में शत्रुओं को मौत के घाट उतारता हुआ, तू स्वयं भी मृत्यु का आलिंगन करना अर्थात् राष्ट्र रक्षा, गौ, साधु ,श्रेष्ठ पुरुषों एवं विद्वान ब्राह्मणों हितार्थ मृत्यु का आलिंगन ही मृत्युंजयी कहलाता है।
पुत्रसू पाककुशला पवित्रा च पतिव्रता।
पद्माक्षी पञ्चपैर्नारी भुवि संयाति गौरवम।।
पुत्रसू: – वीर संतो को जन्म देने वाली, पाककुशला अर्थात्
गृहकार्यो में दक्ष, पवित्रा-पवित्र रहने वाली ,पतिव्रता -पति के अनुकूल आचरण करने वाली, पद्माक्षी – कमल के समान नेत्रों वाली – इन पांच प्रकारों से युक्त नारी संसार में गौरव प्राप्त करती है ।
अनुकूलाम् विमलांगी कुलजां,
कुशलां सुशीलसम्पन्नाम।
पञ्चलकारां भार्या,
पुरूष: पुण्योदयाल्लभते।।
पति के अनुकूल आचरण करने वाली , सुंदर अंगों वाली, उत्तम कुल में उत्पन्न, गृहकार्यों में कुशल, सुशील, सदाचार से युक्त – इन पांच लकारों से युक्त विभूषित भार्या किसी पुरुष को बड़े भाग्य से मिलती है।
नारी के दूषण पर मनु महाराज लिखते हैं-
पानं दुर्जन संसर्ग
पत्या च विरोहऽटनम्।
स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च
नारी संदूषणानि षट ।।
( मनु० ९/१३)
“मद्यादि मादक द्रव्यों का सेवन, दुष्टों का संसर्ग, पति से वियोग, व्यर्थ इधर-उधर घूमना और दूसरों के घर में सोना या रहना यह छह स्त्रियों के दूषण हैं।
नारी भूषण-
लज्जा वासो भूषणं शुद्ध शीलम्
पादक्षेपो धर्म मार्गे यस्या:।
नित्यं पत्यु: सेवनं मिष्ट वाणी
धन्या सा स्त्री पूतयत्येव पृथिवीम्।।
लज्जा जिसका वस्त्र है, सदाचार जिसका आभूषण है, जो धर्म मार्ग पर चलती है अर्थात सत्य मार्ग पर चलती है, जो पति की सदा सेवा करती है, मीठा बोलती है, वह स्त्री स्वयं में धन्य है, वह संपूर्ण पृथिवी को पवित्र कर देती है।
अध: पश्यस्व मोपरिसंतरा पादकौ हर।
मा ते कश्प्लकौ दृशन् स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ।।
(ऋ० ८/३३/१९)
हे स्त्रि! नीचे देख, ऊपर मत देख। गंभीरता से पांव रखकर चल। तेरे न दिखाई देने वाले अंग किसी को दिखाई न दे क्योंकि स्त्री ही निर्माणकर्त्री (निर्मात्री) है।
रामायण प्रसंग –
न गृहाणि न वस्त्राणि
न प्रकारास्तिरस्क्रिया।
ने दशा राजसत्कारा
वृत्तमावरणं स्त्रियाः ।।
(वा० रा० युद्ध ११४/२७)
स्त्रियों के लिए न घर, न वस्त्र, न राजमहल चार दीवारी और न राजसत्कार रूपी पर्दे की आवश्यकता है। स्त्रियों का वास्तविक पर्दा तो शुद्ध आचरण है।
महाभारत प्रसंग-
पुत्रपौत्रवधूभृत्यैशकीर्णमपि सर्वत:।
क्षभार्याहीनं गृहस्थस्य शून्यमेव गृहं भवेत ।।
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृह मुच्यते ।
गृहं तु गृहिणीनमरण्य सद्रशं महम ।।
(महा. शान्ति. १४४/५६)
पुत्र, पौत्र, पतोहू तथा अन्य भरण पोषण योग्य कुटुंबी जनों से भरा होने पर भी गृहस्थ का घर उस नारी (पत्नी) के बिना सूना ही रहता है। वास्तव में घर को घर नहीं कहते। गृहिणी (धर्मपत्नी) घरवाली का नाम ही घर है। ग्रहणी से शून्य घर को जंगल माना गया है।
जापान में विवाह के समय माता अपनी पुत्री को ग्यारह उपदेश करती है जिनमें एक यह भी है-
सदा ऐसे वस्त्र पहनना जिनमें स्वच्छता एवं लज्जा का भाव हो। बहुत चटकीले, भड़कीले, अधिक रंगीन वस्त्र मत पहनना।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। (मनु० ३/५६)
“जिस कुल में वस्त्र आभूषण और मधुर वचन द्वारा नारियों का आदर सत्कार होता है उस कुल पर देवता प्रसन्न होते हैं।”
महर्षि दयानंद ने मनु महाराज के उक्त श्लोक को गृहस्थ में धारण करने पर सर्वाधिक बल दिया है नारी के बिना पुरुष पक्षाघात से पीड़ित है। जैसे लकवा ग्रस्त व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता, वैसे ही नारी के बिना कुछ नहीं कर सकता। नारी राष्ट्र की निर्मात्री है, उसकी कुक्षि रत्नगर्भा है अतः उसका आदर सत्कार ही पूजा है। अतः भार्या पुरुष का आधा अंग है मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ मित्र है। पुरुष की पग (पगड़ी) है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार स्त्रियों के सुधार के बिना विश्व कल्याण संभव नहीं है। किसी पक्षी का एक पंख के सहारे उड़ना संभव नहीं है।
अर्ध भार्या मनुष्यस्य
भार्या श्रेष्ठतम: सखा।
भार्यामूलम् त्रिवर्गस्य
भार्यामूलं तरिष्यत:।।
(महा. आदि. ७४/४१)
भार्या पुरुष का आधा अंग है, भार्या मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ मित्र है। भार्या धर्म अर्थ और काम का मूल है और संसार सागर से तरने की इच्छा वाले पुरुष को भार्या ही प्रमुख है।
पूजनीया महाभागा: पुण्याश्च गृहदीप्तय: ।
स्त्रिय: श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषत:।।
(विदुर नीति: ६/११)
स्त्रियां अत्यंत सौभाग्य शालिनी पूजा सत्कार के योग्य, पवित्र और घर की दीप्ति (रौनक) शोभा है अतः इनकी विशेष रूप से रक्षा एवं आदर सत्कार करें।
गृहिणी सचिव: सखी मिथ:
प्रिय शिष्या ललितेकला विधौ।
करुणा विमुखेन मृत्युना
हरता त्वां वद किं न मेहृतम्।।
(रघुवंश. ८/६७)
अपनी पत्नी इंदुमती की मृत्यु पर विलाप करते हुए श्री राम के पितामह महाराज अज कहते हैं कि तुम मेरे गृह की स्वामिनी, सम्मति देने वाली मंत्री, एकांत की सखी और मनोहर कलाओं के प्रयोग में शिष्या थी । कहो तुम्हारे हरण करते समय मृत्यु ने मेरा सर्वस्व हरण कर लिया ।”
अंत में यही कहा जा सकता है वेद ही हमारा जीवन है । वेद में नारी का सर्वोच्च स्थान है, वह परिवार की गरिमा है, मर्यादा है, वह निर्मात्री है। वह तपस्विनी है, उसकी साधना से ही परिवार समाज एवं राष्ट्र का निर्माण होता है। वही सृष्टि में मानव निर्माण की उर्वरा तपोभूमि है।
राष्ट्रकवि एवं साहित्य देवदूत रामधारी सिंह दिनकर के उदगार विदा के समय पिता की शुभकामनाएं-
मंगलमय हो पंथ सुहागिन
यह मेरा वरदान।
हारसिंगार की टहनी से
फूलें तेरे अरमान।।
छाया करती रहे सदा,
तुझको सुहाग की छांह।
सुख दुख में ग्रीवा के नीचे,
हो प्रियतम कि बांह।।
सादर-
गजेंद्र सिंह आर्य
राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता, पूर्व प्राचार्य
जलालपुर (अनूपशहर), बुलंदशहर -२०३३९०
उत्तर प्रदेश
चल दूरभाष – ९७८३८९७५११