अंग्रेज भारत आए, कंपनी राज की स्थापना की पूरे भारतवर्ष का सघन अध्ययन किया। अंग्रेजों ने भारत की स्वदेशी परंपरागत शिक्षा, चिकित्सा व्यवस्था को ही ध्वस्त नहीं किया उन्होंने ध्वस्त किया भारत की समृद्ध सिंचाई व्यवस्था को सबसे पहले उन्होंने दक्षिण भारत मद्रास प्रेसीडेंसी की परंपरागत सिंचाई व्यवस्था को खत्म किया जो तालाबों पर आधारित थी । तालाबों के पानी पर पहरा लगा दिया। अंग्रेजों जमीदारों रईसों के माध्यम से आम कृषक जनता का खून चूस लिया। नतीजा बंगाल से लेकर बिहार मद्रास मरूभूमि राजस्थान में अनेक वर्षों पर अंतराल में अनेक भीषण अकाल पड़े करोड़ों मौतें हुई।
अब अंग्रेजों का राजस्व घट गया। अधिक अनाज उत्पादित हो तभी तो अधिक लूट की प्राप्ति होगी यह बेहतर सिंचाई व्यवस्था के संभव नहीं था तो अंग्रेजों ने देश में कृत्रिम नहरों का तंत्र स्थापित किया। अंग्रेजों ने भारत में रेल सड़क नहर तंत्र स्थापित भारत वासियों के हित के लिए नहीं किया अपने फायदे के लिए किया जिससे उन्हें जबरदस्त फायदा हुआ। अंग्रेजों के मानसिक दास आज भी अंग्रेजों की शान में कसीदे कसते हैं कहते हैं अंग्रेज ना आते तो यह ना होता ,वह ना होता। आपको आश्चर्य होगा भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो ब्रिटेन की संसद में अपने 1 घंटे से अधिक के अभिभाषण में 50 मिनट अंग्रेजों के गुणगान में ही खपा दिए थे अपने प्रथम कार्यकाल में ब्रिटेन की यात्रा के दौरान तो आम अंग्रेजों के प्रशंसकों का तो कहना ही क्या?।
लेकिन अंग्रेजों की शोषक नीतियों राजनीतिक व्यवस्था तथा अंग्रेजों के स्वामी भक्तों कुतर्कों का बेजोड़ जवाब महान क्रांतिकारी समाज सुधारक ओजस्वी सन्यासी महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने इस कथन में दे दिया है जो उन्होंने 18 70 के आसपास कहा था।
“चाहे कोई कितना ही करे, किन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। किन्तु विदेशियों का राज्य कितना ही मतमतान्तर के आग्रह से शून्य, न्याययुक्त तथा माता-पिता के समान दया तथा कृपायुक्त ही क्यों न हो, कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता”
अंग्रेजों ने महर्षि दयानंद सरस्वती को बागी फकीर घोषित कर दिया था अपनी खुफिया एजेंसियों को उनकी निगरानी के लिए लगा दिया था लेकिन ऋषि दयानंद निर्भीक सन्यासी वक्ता थे वह कहां पीछे हटने वाले थे।
बंगाल बिहार के बाद अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि गंगा व यमुना के बीच के मैदान दोआब पर पड़ी जो उस समय उत्तराखंड के हरिद्वार से लेकर प्रयागराज तक फैला हुआ था। 1840 में Thomas proby cautley नामक अंग्रेज इंजीनियर जीवाश्म विज्ञानी अपने घुड़सवार दस्ते के साथ हरिद्वार से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश होते हुए कानपुर तक के गंगा यमुना के बीच के मैदान में घोड़े से घुमा पूरे मैदान की सतह का अध्ययन किया नापतोल की। उसने रिपोर्ट बनाई रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड के हरिद्वार से गंगा नदी से एक कृत्रिम नहर का खाका खींचा गया जो हरिद्वार से निकलकर सहारनपुर मुजफ्फरनगर बागपत गाजियाबाद बुलंदशहर अलीगढ़ होते हुए कानपुर गंगा और यमुना के बीच के ए सिंचित क्षेत्र को सिंचित करेगी इससे उपज बढ़ेगी अंग्रेजों को जबरदस्त मुनाफा होगा। उसने इस परियोजना पर ₹2000000 sterling pound खर्च होने का अनुमान किया। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड ने इस परियोजना को अनुमति दे दी । 1844 में विशाल कृत्रिम नहर का निर्माण शुरू हो गया, 18 54 में निर्माण पूरा हुआ 10 वर्ष लगे नहर को बनने में यही नहर आज आज गंग नहर कहलाती है । आज हरिद्वार से अलीगढ़ की बीच अपर गंग नहर कहलाती है अलीगढ़ से कानपुर इटावा के बीच लोअर गंग नहर कहलाती है अलीगढ़ से आगे यह दो शाखा में बढ़ जाती है एक इटावा की ओर चली जाती है जो यमुना नदी में मिल जाती है दूसरी कानपुर की ओर सीधे निकल जाती है आखिर में फिर गंगा नदी में मिल जाती है राजस्थान नहर जो अब इंदिरा गांधी नहर के नाम से जानी जाती है मरूभूमि राजस्थान से सीचती है पंजाब से पानी लेकर आती है उसके बनने से पहले यह देश की सबसे बड़ी कृत्रिम नहर थी। अंग्रेजों द्वारा बनाई गई यह नहर लगभग 500 से अधिक किलोमीटर लंबी है। इस नहर से अनगिनत छोटी-छोटी बडी नहर की शाखाएं निकाली गई है जो बड़ी नहर निकाली गई है जिन्हें डिसटीब्यूटरी कहा जाता है तो कुछ छोटी नहर है जिन्हें स्थानीय लोग रजवाहा या बंबा कह देते। इन सभी की कुल लंबाई 6000 किलोमीटर है। आज भी अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए तंत्र पर ही काम हो रहा है। हमारे गौतम बुध नगर में इसी गंग नहर से निकली हुई एक मध्यम तो एक लघु नहर निकलती है जिसे कल्दा माइनर तो दूसरी को मांट ब्रांच कहते हैं इसे स्थानीय लोग कोट की नहर भी कह देते हैं।
यहां तक तो सब ठीक था अंग्रेजों ने नहर बनाई सिंचाई के साधन विकसित हुए लेकिन शातिर अंग्रेज कहां बाज आने वाले थे। उन्होंने मुख्य गंग नहर से लेकर उस से निकली हुई छोटी बड़ी नहर के ऊपर सोची समझी रणनीति के तहत पुल बनाएं। गंग नहर हरे भरे हरित क्षेत्र के बीच से निकाली गई थी ऐसा इसलिए नहर के दोनों तरफ प्राकृतिक पेड़ों की सुरक्षा मिल गई नहर को कटान से रोकने के लिए । थॉमस कोटले की यह यह सोची-समझी योजना थी इंग्लैंड पहुंचकर 1864 में उसने गंग नहर के निर्माण को लेकर एक पुस्तक लिखी वह उसने इसलिए लिखी कि उसके प्रतिद्वंदी इंजीनियरों ने उसके प्रोजेक्ट को अनुपयोगी बहुत पैसा खाने वाला बताया था क्योंकि इस नहर में खर्च होने वाली पैसा वह लगने वाले समय का आधा समय हरिद्वार से रुड़की के बीच नहर बनने में ही खर्च हो गया था साथी अंग्रेज इंजीनियर सर ऑर्थर ने आपत्ति की थी क्यों ना यह नहर रुड़की से शुरू की गई अर्थात इस नहर का सर (हेड) मैदान से ही शुरु होना चाहिए था ना कि हरिद्वार के पहाड़ों से कोटले ने जवाब दिया यदि वह नहर का निर्माण मैदान से शुरू करते जहां गंगा मैदानों पर आ जाती है तो पानी कभी भी कानपुर तक नहीं पहुंचने वाला था उन्होंने पानी के प्राकृतिक बहाव स्लोप का इस्तेमाल किया। । नहर को बनाने में पुल घाट आदि में बड़ी संख्या में ईटों का इस्तेमाल हुआ सैकड़ों के भट्टे अंग्रेजों ने लगाए थे जबरन लोगों से मजदूरी कराई थी। अंग्रेजों ने खास रणनीति के तहत प्रत्येक पुल के पास अपने ऐशो आराम व लोगों पर शासन करने के लिए ,लोगों के गांव में आवागमन अनाज के आदान-प्रदान पर निगरानी करने के लिए नहर कोठियों का निर्माण कराया। यह नहर कोठिया ही अंग्रेजो के द्वारा बनाई गई गंग नहर का सबसे काला पहेलू है। इनको कोठीयो में अंग्रेजों के घोड़ों के लिए अस्तबल से लेकर व्यामशाला छोटी चर्च तो क्रांतिकारियों भारतीय किसानों को यातना देने के लिए टॉर्चर हाउस भी बने होते थे साथ ही अंग्रेज पद्धति का कुआं भी रहता था। बगैर अंग्रेजों की अनुमति के सिंचाई तो दूर नहर के पानी को भी कोई नहीं पी सकता था। गंग नहर के निकलने से वह गांव जो आसपास थे उनके बीच घंटों की दूरियां बन गई दमन के लिए गांवों की घेराबंदी आसान हो गई। यह कोठियां हरे-भरे प्राकृतिक परिवेश में बनी होती थी क्योंकि यह गगं नेहर ही प्राकृतिक हरित पट्टी से निकाली गई थी ऐसे में अंग्रेज वन्यजीवों का शिकार भी करते थे। 18 57 के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत से क्रांतिकारियों लोगों को ऐसी अनेक सैकड़ों नहर कोठियों पर हरिद्वार से लेकर कानपुर तक यातना दी गई बरगद पीपल के वृक्षों पर फांसी के फंदे पर टांग दिया गया।
हमारे बुजुर्ग पूर्वज लोगों ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया 18 57 के स्वाधीनता संग्राम में इन्हीं नहर कोठियों पर अंग्रेजों पर हमला किया गया जालिम अंग्रेजों को मार कर जला दिया गया पानी को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कर दिया जाए जो इन कोठियों में कई कई दिनों का रात्रि विश्राम ब्रिटिश राज के बड़े-बड़े गवर्नर जनरल कलेक्टरों का होता था सारी प्रशासनिक कागजी कार्रवाई लंदन तक रिपोर्टिंग इन्हीं कोठियों से होती थी इनमे तार घर भी होते थे।
अंग्रेज और उनकी नहर कोठी को लेकर एक जिंदादिल किस्सा मेरे गांव के पड़ोसी गांव रूपवास से जुड़ा हुआ है यह अनोखा गांव में कलसन व पायले गौत्र के गुर्जरों का गाव है इस गांव की अपनी ही लोक संस्कृति अलग ही बोलीगत पहचान है किसी जमाने में सर्वाधिक दूध उत्पादन गोपालन इसी गाँव में होता था आज भी अधिकांश लोग गोपालक है दुग्ध उत्पादको किसानों के हितेषी आदरणीय स्वर्गीय बिहारी सिंह बागी इसी गांव के निवासी थे ।अख्खडपन निर्भीकता इस गांव के बाशिंदों के खून में ।बहरहाल घटना किस वर्ष की है यह तो मालूम नहीं लेकिन संभवतः है जब गंग नहर निकली थी उसके कुछ वर्ष पश्चात की ही घटना है। गंग नहर से निकलने वाली अंग्रेजी द्वारा बनाई गई एक छोटी सी लघु सिंचाई राइट कल्दा माइनर हमारे गांव से होकर गुजरती है। घटना इस प्रकार है रूपवास गांव के एक बुजुर्ग पशुपालक अपने पशु चरा रहे थे। सैकड़ों गौ का समूह था पशुओं को अचानक प्यास लगी। पशुपालक ने अपने पशुओं को शीतल जल से प्रवाहित हो रही अंग्रेजों द्वारा बनाई गई नहर में पानी पिलाने के लिए हाक दिया कुछ पशु पानी पीने लगे इसी दौरान घोड़ों पर सवार अंग्रेज इंस्पेक्टर जनरल सिंचाई विभाग का एक शीर्ष अंग्रेज अधिकारी वहां से गुजरा। जिसकी हनक मेरठ से लेकर कानपुर तक थी। उसने पशुपालक को डांट दिया पशुपालक की गायों को भगा दिया। यह निर्देश दिया आगे से यह पशुपालक यहां नजर नहीं आना चाहिए। बुजुर्ग पशुपालक उस समय अपमान का घूंट पीकर रह गया उसने पता किया यह अंग्रेज अधिकारी आखिरी ठहरता कहां है तो उसे पता चला यह उसके पड़ोस में ही दादरी कस्बे के रेलवे स्टेशन के पास अंग्रेजों की बनाई हुई नहर कोठी पर पिछले 10 दिन से ठहरा हुआ है। अंग्रेजी द्वारा बनाई गई यह नहर कोठी भी हरे भरे परिवेश में स्थापित थी वह पशुपालक रात्रि के अंधेरे में गया और नहर कोठी के परिसर से सटे हुए नीम के पेड़ पर चढ़कर अंग्रेज अधिकारी के मुख्य आराम कक्ष में उतर गया। अंग्रेज अधिकारी अपने हेट को पास में रखकर सोया हुआ था अंग्रेज लोगों के विषय में कहा जाता है कि यह अपने हेट से बड़ा प्रेम करते हैं जो स्थान भारतीय समाज में पकड़ी का है वह अंग्रेजों में हेट है उस पशुपालक रूपवास निवासी बुजुर्ग को यह ज्ञात था। उसने उस अंग्रेज अधिकारी के हेट को उठाकर उसमें मल त्याग किया अंग्रेज अधिकारी की चारपाई के चारों तरफ पेशाब किया फिर वापस दीवारों पर चढ़ते हुए पेड़ के माध्यम से सुरक्षित बाहर रात्रि के अंधेरे में निकल कर अपनी बैठक पर आकर सो गया। सुबह जब वह अंग्रेज अधिकारी उठा तो पूरे नहर विभाग में अफरा-तफरी मच गई बहुत से तार हुए हुए अधिकारी बहुत क्रुद्ध हुआ। अपनी बेज्जती के डर से उसने इस घटना को छुपा दिया रातो रात ऐसा सर्कुलर जारी किया कि फिर कभी भविष्य में कभी भी दादरी की नहर कोठी पर कोई नहीं ठहरेगा कोई अंग्रेज अधिकारी रात्रि स्टे नहीं लेगा। स्थानीय लोगों को अंग्रेजों की मजबूरी में लिये गये इस फैसले से बहुत राहत मिली।
आप भी गुलामी शोषण के यह नहर कोठियां खंडहर पड़ी हुई है। कुछ मूर्ख बुद्धि सामाजिक कार्यकर्ता इन कोठियों को विरासत बताते हैं सरकार और प्रशासन पर अनावश्यक दबाव इनकी मरम्मत के लिए डालते हैं प्रिंट मीडिया में खबर निकलवा ते हैं। गुलामी की निशानी यों की मरम्मत नहीं की जाती उन्हें ध्वस्त कर देना चाहिए।
इन कोठियों को ध्वस्त कर क्रांतिकारियों के स्मारक बना देना चाहिए।
नीचे फोटो में यह ऐसी अंग्रेजों द्वारा बनाई गई नहर कोठी की फोटो है जो गौतम बुध नगर के महावड़, दुजाना से गुजरने वाले गंग नहर के रजवाहे पर स्थित है। यह नहर कोठी दादरी स्टेशन की कोठी से अलग है।
फोटो सौजन्य मेरे मित्र राजीव विकल जी के माध्यम से जो महावड गाँव के ही निवासी है।
आर्य सागर खारी ✍✍✍
मुख्य संपादक, उगता भारत