कोणार्क सूर्य मंदिर – 10, ग्रीष्म अयनांत और ऐरण
पृथ्वी है, नभ है, युगनद्ध दिन रात, ऋतुचक्र, चन्द्रकलायें, क्षितिज पर लुका छिपी खेलती तारिकायें, निशा शयन जागरण की लाली लिये उगता, दिन भर चलता और अंत में अलसाता, अंतरिक्ष में श्रांति का गैरिक वैराग्य उड़ेल सो जाता अनुशासन प्रिय प्रत्यक्ष देव सूरज, उसकी अनुपस्थिति में सिर के ऊपर दूर सजती सभायें, निहारिकाओं और नक्षत्रों के वर्तुल एकल युगल समूह नृत्य, लगभग थिर एकटक निहारता ध्रुव।
मनुष्य ने आज अनुभव किया है कि बाहर दिखती जो लय है वह उसके भीतर भी है। काल का जनक अनंत नृत्य कूट संकेत बन मन को तरंगित करता है। कब हुआ यह सब, कैसे हुआ, क्या रहा होगा तब? इतना विशाल नियमन! कौन सँभालता होगा? उत्सुकता के बीज सहज प्रेक्षण और अनुमानों की खाद पानी पा अंकुरित हो उठे हैं। भीतर की लय शब्दों में संगीत भर रही है। वह छलक पड़ा है:
क्या नाम दूँ तुम्हें हे विराट नियामक? तुम अक्षर हो, तुम्हारी लय का छ्न्द मैं भी अक्षर हूँ। तुम ‘क’ हो! तुम्हारी उपासना करता हूँ। यह सम्पूर्ण परिवेश ‘ख’ है जिसमें मेरे ग, अरे नहीं, गीत गूँजते हैं…
महाअन्धकार में ज्योति की पहली लीक थी वह, जाने कितने युगों पहले। उपासना और श्रद्धा के स्वर पहचाने जाते गये। एक स्वरा , द्वि स्वर, तीन स्वर, पंचयोग, षड् राग, सप्त अर्घ्य – राग रागिनियाँ उमड़ती रहीं। सूरज उदित अस्त होता रहा, नदियाँ बहती, सूखती, बढ़ियाती रहीं, मनु संतति जन्म लेती, युवा होती और क्रीड़ोपरांत क्षय होती रही। सूरज से प्रेरणा पा पुरुष परिवेश सँवारता रहा और कन्धों से कन्धा मिलाती स्त्री, सोमदेव की कलाओं के ऋतुचक्र देह भीतर जीती गर्भभार धारण करती, प्रजनन करती रही।
दूर देश गये घर लौटते पथिकों को रात के नक्षत्र पथ दिखाते रहे और देहरी पर बैठी चन्द्र को निहारती प्रतीक्षारत ललनायें गीत गाती रहीं। उनके घूमते जातों में ऋतुओं के चक्र बारहमासा बन घहरते रहे और अमानिशायें देह के रसायन को शमित कर डराती रहीं।
मनुष्य ने कहानियाँ गढ़नी सीख लीं, हजारो कहानियाँ। फलक पर अब प्रेमिल संयोग को उफनती युवा देवियाँ थीं तो मिलन को आतुर अर्धनर-अर्धपशु देव भी। उनके क्रियाकलाप विचित्र थे। वे बड़े जटिल थे किंतु उनकी कहानियों में जीवन का लय था।
ओझाओं ने सुनहले उड़ते बाज की गति के रहस्य को अपने मंत्रों में समेट लिया। जब वह सम पर आता तो उनके ढोल बज उठते और एक साथ कभी बीज बोने को किसानों के हल उठते तो कभी समूह स्नान को सरोवर की ओर पग। वे देवताओं से बातें करने लगे, देवियाँ उन्हें अपने गोपन बताने लगीं और वे भविष्यवक्ता हो गये। समारोहों के अवसान समय भोज के लिये दी जाने वाली बलि के गले से उफनते रक्त की धार से वे नदी की बाढ़ बताने लगे।
हू हू करती लू में उठते बवंडरों की धूल उन्हें प्रकृति की प्यास लगती तो नभ में छिटके रंग बदलते बादल आने वाली वर्षा के स्वागत में भरे कलश। उनके अभिचारों में संवत्सर पगते चले गये और यूँ सैकड़ो, हजारो वर्षों तक सभ्यतायें एक दूसरे से अलग थलग फलती फूलती रहीं।
विप्लव, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारियाँ, भूकम्प और सबसे ऊपर स्वयं के लालच से उपजी तृष्णायें, आक्रमण, युद्ध, बर्बर सामूहिक संहार; सभ्यताओं के मिलन ऐसे ही होते। रह जातीं कहानियाँ, भूल जाते मर्म। रह जाते गीत, बह जाते राग। रह जाते शब्द, खो जाते अर्थ। रह जाते अभिचार, भटक जाते लय विस्तार। रह जाते ढोल, खो जाते ठाठ… और नया उपजा मनुष्य हँसते हुये कहता – सब कोरी गप्प है। मिथ हैं, मिथक हैं, बकवास! …
धरती अपनी धुरी पर नहीं घूमती तो दिन रात नहीं होते। सूर्य की परिक्रमा करती वह घूर्णन अक्ष का वह 23.5 अंश कोण नहीं बनाती तो ऋतुयें नहीं होतीं, सूरज अयन वलय की पट्टी पर खेल करता नहीं नज़र आता। न तो बारह महीनों के समान्तर अयन पट्टी की वह बारह राशियाँ होतीं जिन पर धीरे धीरे खिसकता सूरज अहेरी सा लगता और न तो वे 27, 28 नक्षत्र होते जिनके सहारे चन्दा की कलायें और महीने नाम पाते। वर्ष के वे विशिष्ट दो दिन नहीं होते जब दिन रात बराबर होते, वर्ष के वे दो दिन भी नहीं होते जब सूरज नभ में एक ओर टंगा सा लगता।
उसे हिलाने डुलाने को न तो अवतारी देव होते और न ही दयालु देवियाँ! समूचे संसार में फैले संक्रान्ति उत्सव नहीं होते यानि फसलों की कटाई के समय बैसाखी नहीं होती और कहीं दूर दूसरी ओर मृदंग नहीं बजते। तब जाने क्या होता!
घूर्णन अक्ष भी अगर 26000 वर्षों की आवृत्ति से न घूम रहा होता तो नक्षत्र कितने जड़ लगते! जैसे क देवता के सम्मोहन में ख मंच पर व्यर्थ ही एकरस घूमे जा रहे हों – ह, ह, ह … ह,ह,ह। नभ निहारते मानुष की कल्पनायें परवान नहीं चढ़तीं, मनभावन परीकथायें नहीं होतीं। ऋचाओं में पुरखे अपने समय के संकेत भी नहीं छोड़ पाते।
हम भी वो नहीं होते जो हैं, कुछ और होते, जाने क्या! क्या होते? इस पर तो कहानियाँ ही गढ़ी जा सकती हैं, मिथक रचे जा सकते हैं और आने वाली पीढ़ी के लिये छोड़े जा सकते हैं – कूटो मत्था कि पुरखे क्या कहना चाहते थे!
लेकिन चूँकि घूर्णन अक्ष का घुमाव है इसलिये हमारे पास कथाओं से छ्न कर आते प्रमाण हैं।
2950 ईसा पूर्व, शतपथ ब्राह्मण – तब कृत्तिकायें पूरब का दामन नहीं छोड़ती थीं यानि हर दिन प्रात: सूरज बच्चे को बहलातीं कि जा बच्चा खेल आ!
1660 ईसा पूर्व, मैत्रायनीय ब्राह्मणोपनिषद – अयन पट्टी पर छुआ छू खेलता सूरज ग्रीष्म अयनांत के दिन मघा नक्षत्र को छूता।
वेदांग ज्योतिष को रचने वाला बताता है कि जाड़े के अयनांत में सूरज शर्विष्ठा नक्षत्र का उत्तरीय भर छू पाता लेकिन ग्रीष्म अयनांत में अश्लेषा नक्षत्र का भरपूर आलिंगन करता यानि 1300 ईसा पूर्व।
इन सबका आधार एक, वही – भुवन भास्कर, सूरज दादा, स्वर्ण बाज, मित्र मिहिर, रा, मार्तंड, भास्वत भाइल्ल स्वामी…एकं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति! हजारो वर्षों तक बस नभ को निहार कर और गीत रच कर पूर्वज पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान सौंपते रहे और स्वयं तारे बन कर पूज्य होते रहे – वशिष्ठ, अत्रि, अंगिरा, अरुन्धती, अनुसूया…
…आचार्य की पुकार से मन यात्रा को ठाँव मिला है – भाइल्ल स्वामी भी चलेंगे पगले! वो वहाँ हैं विष्णुपदगिरि पर लेकिन पहले यह तो देख लो कि कैसे विष्णु प्रतिमा, गरुड़ स्तम्भ और नक्षत्रधारी वाराह यहाँ ऐरण में व्यवस्थित किये गये हैं!
ऐरण का अक्षांश है भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर लगभग 24 अंश। वाराह और विष्णु प्रतिमायें इसी कोण पर उत्तर पूर्व की ओर मुँह किये हुये हैं। ग्रीष्म अयनांत यानि ईसा पंचांग के दिनांक 21/22 जून को सूर्य किरणें सीधी इनके ऊपर पड़ती हैं और स्तम्भ की छाया विष्णु की प्रतिमा पर पड़ती है। इस तरह से धार्मिक व्यवस्था में सौर गति का प्रेक्षण भी समाहित है। प्रतिमाओं पर सूर्य किरणों के कोण और स्तम्भ की छाया देख ऋतु परिवर्तन और काल का सटीक अनुमान लगाया जाता था।
… पुस्तक के शब्द टूट टूट कर गिर रहे हैं। उन्हें सहेजना किसी के वश में नहीं – उड़ जाने दो उन्हें एलिस! आओ चलें विष्णुपदगिरि, विदिशा।
“अब कोणार्क ही चलो न!”
“नहीं, पहले विष्णुपदगिरि।“
(……जारी)
✍🏻सनातन कालयात्री अप्रतिरथ ऐन्द्र श्री गिरिजेश राव का यात्रावृत गतिमान है….