कोणार्क सूर्य मंदिर- 9 , विदिशा की ओर, दीर्घतमा ऋषि और एरन
कोणार्क सूर्य मन्दिर –
बाला सर की कम्प्यूटर स्क्रीन पर चक्र आवर्त।
चन्द्र हरि संकेत – ध्यान केन्द्रित करो!
प्रज्ज्वलित कसौटी अग्निकुंड। अस्सी की एलिस की आँखें दपदप हैं। संकल्प लो! कालसर्प की फुफकारे हैं ये, चन्द्रभागा तट के समुद्र की ध्वनियाँ नहीं हैं, चेतन हो!
“चेतन कि सम्मोहन, एलिस?”
“चुप्प! बोलो मेरे साथ – वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलि प्रथम चरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बुद्वीपे भागीरथ्याः तटे …”
“एलिस! हम विदिशा जा रहे हैं। भागीरथी का तट क्यों?”
“भगीरथ प्रयत्न को ऋषियों का स्मरण करो! काल और स्थान के चतुर्विमीय जगत में नहीं हो तुम!”
अंतरिक्ष सम्मोहन। यह एनिमेशन नहीं कालपुरुष का चक्र है। एकल चक्र, ब्रह्मांडीय वायु, निर्वात, तरंगित हहर अस्वर धूम। जन्मा, युवती, विहारिणी, माता, संहारिणी अनंत निहारिकायें। आकाशगंगा, नक्षत्र, सूर्य, ग्रह, पृथ्वी। अयन वृत्त पर घर घर रथ स्वर, उड़ती धूल। भुवन भाष्कर – आदि पुरखे।
रथ को घेरे कालसर्प, कितने मन्वंतर, कितने मनु? कितने युग? कितने नृवंश? कितनी परम्परायें? आदित्य सबका जनक, पूज्य पुरखे की गोद में कितने इतिहास?
अयन वृत्त क्या क्या समेटे हुये है?
… आदि युग, सरस्वती तट। उगते आदित्य को अर्घ्य देते, विश्वमित्र रश्मियों से स्नात होते औचथ्य ऋषि दीर्घतमा।
प्रात: के जरापीत केशधारी पुरोहित तुम, मध्याह्न के तड़ित सम तेजधारी भ्राता तुम, घृतपृष्ठ हो तुम तीसरे भ्राता, जिस पर अंतरिक्ष फिसलता है और हम विश्पति और उनके पुत्र सप्तऋषियों का दर्शन करते हैं।
अयनवृत्त एक रथ, एक चक्र जिस पर सात ग्रह जुतते हैं और जिन्हें एक गुरुत्त्व अश्व खींचता है। तीन नाभियों वाला यह दीर्घवृत्त अजर है, बली है जिस पर सम्पूर्ण संसार स्थित है।
सप्तर्षि उन अश्वधारी सातो ग्रहों को धारण किये अग्रसर होते हैं जिनके नाम पर सात गायों (वार?) के नाम हैं। उनकी प्रशंसा में सात बहनें गीत गाती हैं।…
अयन रथचक्र में समय माप से बारह अरे हैं, ये बिना थके घूमते हैं। इनके अमर 720 पुत्र हैं जो संयोगाग्नि के साथ युगनद्ध रहते हैं। कोई इन्हें आधे नभ का स्वामी पंचपादी पितर कहते हैं तो कोई इन्हें छ: अरों वाले सात पहियों के रथ पर सवार दूर द्रष्टा कहते हैं।
… चन्द्र हरि या आचार्य शरण जाने किसका स्वर है – दीर्घतमा जब सरस्वती तट पर गा रहे थे उस युग में महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र की सीध में था।
इस नक्षत्र की स्मृति में ही सप्तमातृकायें आज भी पूजित हैं। वही छ: कृत्तिकायें और एक कार्तिकेय नाम से आगे पूजित हुईं।
बारह अरे बारह महीने हैं। दिन रात मिला कर चन्द्रगति सामान्यीकृत वर्ष में 720 संख्या बनती है। सात पहिये वार हैं और छ: अरे ऋतुयें, आधा नभ क्षितिज की सीमा वाला अर्धवृत्त मंडल है।
… अर्धचेतन सी स्थिति में प्रश्न उभरा है – वर्ष के बचे 5 दिन क्या पितरों को समर्पित थे? पंचपादी पितर?
कोई उत्तर नहीं।
महाध्यान में दीर्घतमा का स्वर ही प्रखर है, आचार्यों के स्वर जैसे उनके शिष्यों द्वारा दुहराव है। अग्नि, सूर्य, वायु, वाकादि देवों की स्तुति करते ऋषि आह्लादित हैं। आराधना में संवत्सर कालचक्र भी देवता हो गये हैं:
संख्यायें, नक्षत्र, तारागण, अहोरात्र … जाने कितने आयामों में मैं प्रार्थना स्वर के साथ घूम आया हूँ। निर्झरिणी उतरी है – तुम्हीं पूषन, तुम्हीं प्रजापति, इन्द्र तुम्हीं, विष्णु तुम्हीं, पर्जन्य तुम्हीं, मित्र तुम्हीं, वरुण तुम्हीं, सम्पूर्ण देव, तुम्हीं अश्विन, विश्वे देवा:!
एक ही है। एकम् सद्विप्रा: वहुधा वदन्ति।
कालचक्र की उद्धत दुर्धर्ष गड़गड़ाहट है और तेज भागता मैं देख रहा हूँ –
बेबीलोन, माया, मिस्र, आर्य, शक, मग, अरब, नाग, किन्नर, शाबर, सौर, बौद्ध सब, सब सूर्योपासक।
यज्ञ के बलि यूप से बँधा पशु सूर्यरूपी प्रजापति है, वराह है जो बलि लेता है और स्वयं बलि भी होता है। भरतखंड जम्बूद्वीप में वैदिक बलियूप सौर, शाक्त और तांत्रिक मतों के लिये सौरगति प्रेक्षण का छाया यंत्र हो गया है तो बौद्धों के लिये कीर्ति स्तम्भ।
वेधशाला मन्दिरों के बाहर गड़ा अरुणस्तम्भ हो या गरुड़स्तम्भ या चक्रस्तम्भ, सभी छायायंत्र हैं। अपने तीन पगों से समूची धरती को मापने वाला वैष्णव देव वामन त्रिविक्रम भी सूर्य है।…
…ध्यान टूट गया है। दिशायें लुप्त हैं। कितने दिन बीत गये?
एलिस ने मुस्कुराते हुये उत्तर दिया है – 14।
“तो, शरद विषुव बीते एक पक्ष हो गया?”
“हाँ, एक पक्ष में तुमने तो विश्वरूप दर्शन कर लिया। कृष्णा जी की कृपा है तुम पर।“
“विदिशा कितनी दूर है अभी?”
आचार्य शरण ने उत्तर दिया है – बस पहुँच गये। रास्ते में ऐरण में वाराह अवतार के दर्शन करेंगे।
पुरानी पुस्तक से टूट कर गिरते शब्दों को सँभालते एलिस के हाथ थम गये हैं – वाराह अवतार?
“हाँ एलिस! यहाँ वाराह मनुष्य देह में न होकर मूल देह के साथ हैं और भूदेवी का उद्धार कर रहे हैं।“
आचार्य ने मेरी ओर देख कर कहा है – यहाँ गरुड़ स्तम्भ भी है। सूर्य मन्दिर के रहस्य को सुलझाने के लिये जैसे विष्णु को जानना होगा वैसे ही सारथी अरुण के स्तम्भ को सुलझाने के पहले उसके भाई गरुड़ के स्तम्भ को जानना होगा।
आचार्य ने संकेत किया है – देखो! वाराह के गले की मेखला। यह मेखला अयनवृत्त के उन 27 नक्षत्रों को दर्शाती है जिनसे होकर सूर्य, चन्द्र और ग्रहादि चलते दिखाई देते हैं। वाराह उदित होते सूर्य का प्रतीक है जो सहज दर्शनीय सर्वपोषक सर्वप्रमुख आकाशीय पिंड है। जो पृथ्वी को अंधकार से उबारता है।
मेरा ध्यान दोनों स्तम्भों पर है। एक का घेरा चतुर्भुज से अष्टभुज और अष्टभुज से षोडषभुज कर दिया गया है। मैं अंकगणित लगा रहा हूँ:
चार दिशायें – 4, चतुर्भुज विष्णु
चार दिशायें+चार कोण (ईशान, नैऋत्य, वायव्य और आग्नेय) – 8, अष्टभुजा भवानी
इसके आगे?
भक्ति से ज्योतिष विद्या की ओर। पूर्ण वृत्त = 360 अंश
360/16 = 22.5
पृथ्वी का अक्ष पर झुकाव – 23.5 अंश यानि मात्र एक अंश का अंतर है। स्तम्भ पर सूर्य के प्रकाश और छाया के भाग देख कर स्थान के अक्षांश का प्रयोग करते हुये अयनान्त और विषुव के बारे में भविष्यवाणी और गणनायें की जा सकती हैं। कोणार्क का अरुण स्तम्भ भी षोडषभुज है। चतुष्कोणीय आधार के ऊपर अष्टदल कमल और ऊपर सोलह पंखुड़ियाँ। कोणीय दिशाओं में हाथी पर सवार दोपीछे सिंह।
स्तम्भ के पास यहाँ भी सिंह है। मन्दिर वास्तु की सिंहद्वार अवधारणा का क्या रहस्य है?…
मैंने सिर घुमाया है। एलिस मुग्ध सी वाराह को निहारे जा रही हैं – अवश्य मूर्तिकला का कोई अनुपात दिख गया होगा!
प्रो. शरण ने पुकारा है – दोनों यहाँ आओ! प्रतिमा और स्तम्भ के दिशाओं से सम्बन्ध समझा दूँ।
“तुम जाओ, मैं इस पुस्तक के पन्नों को व्यवस्थित कर के आती हूँ।“
(….जारी)