डाँ राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
जब सबकुछ ठहर गया तब खेती किसानी ही ऐसी रही जो लगातार पूरे दमखम से चलती रही और अच्छे उत्पादन से अर्थव्यवस्था को राहत दी।
खरीफ फसलों की एमएसपी की घोषणा करते हुए सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक काश्तकारों को लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक रिटर्न दिलाने की दिशा में कदम बढ़ाया है। सरकार ने खरीफ फसलों की एमएसपी में अच्छी खासा बढ़ोतरी की है और तिल की फसल की एमएसपी तो 452 रुपये बढ़ा दी है। इसे सकारात्मक दिशा में बढ़ा हुआ कदम माना जाना चाहिए। हालांकि सरकार ने दलहनी फसलों की एमएसपी में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी कर दलहनी फसलों के प्रति काश्तकारों को प्रेरित करने का प्रयास किया है। पिछले सात महीनों से चल रहे किसान आंदोलन को देखते हुए यह सरकार का सकारात्मक निर्णय माना जा सकता है। 2004 में एमएस स्वामीनाथन आयोग ने अपनी सिफारिश में न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने का एक फार्मूला सुझाया था कि उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक एमएसपी घोषित की जाए। इसी को ध्यान में रखते हुए खरीफ एमएसपी की घोषणा मानी जा सकती है। हालांकि अभी यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि सरकार ने जो एमएसपी की घोषणा की है उसका पूरा-पूरा लाभ काश्तकारों को कैसे मिले। इसके लिए घोषित एमएसपी के स्तर पर मण्डियों में भाव आते ही स्वतः खरीद की व्यवस्था हो तभी किसानों को इसका लाभ मिल सकता है नहीं तो यह सब कागजी घोषणाएं रह जाती हैं और सरकार की घोषणाओं का फायदा आम किसान को नहीं मिल कर बिचौलियों को मिल जाता है और किसान ठगा का ठगा रह जाता है।
देखा जाए तो हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया के देशों में इस कोरोना महामारी के दौर में कृषि ही बड़ा संबल रही है। जब सबकुछ ठहर गया तब खेती किसानी ही ऐसी रही जो लगातार पूरे दमखम से चलती रही और अच्छे उत्पादन से अर्थव्यवस्था को राहत दी तो दूसरी और अन्नदाता की मेहनत का परिणाम रहा कि कहीं पर भी खाद्य पदार्थों को लेकर कोई समस्या नहीं आई। हमारी अर्थव्यवस्था को तो बचाने में खेती किसानी की खास भूमिका रही तो देशभर में कहीं भी अन्नधन की कोई कमी नहीं रही। हालांकि आज दलहन-तिलहनों के भावों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही हैं और लोगों के दैनिक जीवन पर यह महंगाई भारी पड़ रही है। पर सबसे खास बात यह कि कोरोना लॉकडाउन और अनलॉक अवधि में भी करोड़ों लोगों को सरकार द्वारा निःशुल्क अनाज वितरित किया गया है और यह सब अच्छे मानसून और हमारे अन्नदाता की मेहनत का परिणाम है।
किसानों को कम से कम उनकी लागत का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। देश में पहली बार 1966-67 में सबसे पहले गेहूं की सरकारी खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक अगस्त 1964 को एलके झा की अध्यक्षता में इसके लिए कमेटी घटित की थी। गेहूं की समर्थन मूल्य पर खरीद व्यवस्था का एक विपरीत प्रभाव सामने आने पर कि किसान अन्य फसलों की जगह गेहूं की फसल पर ही केन्द्रित होने लगे तो ऐसी स्थिति में सरकार ने अन्य प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने की ओर कदम बढ़ाए। केन्द्र सरकार द्वारा सीएसीपी यानी कि कृषि मूल्य एवं लागत आयोग की सिफारिश पर कृषि जिंसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाने लगी। आज देश में 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। इसमें 7 गेहूं, धान आदि अनाज फसलें, 5 दलहनी फसलें, 7 तिलहनी फसलों, 4 नकदी फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। नकदी फसलों में गन्ना के सरकारी खरीद मूल्य की सिफारिश गन्ना आयोग द्वारा की जाती है तो गन्ने की खरीद भी सीधे गन्ना मिलों द्वारा की जाती है। इसी तरह से कपास की खरीद सीसीआई यानी कि कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया द्वारा की जाती है। मुख्यतौर से अनाज की खरीद भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से और दलहन व तिलहन की खरीद नेफैड द्वारा राज्यों की सहकारी संस्थाओं और अन्य खरीद केन्द्रों के माध्यम से की जाती है। केरल सरकार ने 16 तरह की सब्जियों के बेस मूल्य तय करने की पहल की है तो अब हरियाणा सरकार भी केरल की तरह सब्जियों का बेस मूल्य तय करने पर विचार कर रही है।
आज किसान आंदोलन का केन्द्रीय बिन्दु एमएसपी ही है। नए कानून में किसानों को अपनी उपज कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र करने से आंदोलनकारियों को लग रहा है कि मण्डी व्यवस्था प्रभावित होगी पर सरकार ने कई मंचों व कई बार यह स्पष्ट कर दिया है कि मण्डी व्यवस्था भी रहेगी तो एमएसपी व्यवस्था भी जारी रहेगी और इस विषय में किसी तरह का संदेह नहीं किया जाना चाहिए। एमएसपी पर खरीद व्यवस्था का विश्लेषण किया जाए तो कुछ दशकों पहले तक स्थितियां बिल्कुल अलग थीं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरण व्यवस्था के सुचारू संचालन और बाजार पर नियंत्रण के लिए गेहूं और धान की खरीद सरकार द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती रही है। अन्य फसलों का जहां तक सवाल है, देश के अधिकांश प्रदेशों में खाद्यान्नों की खरीद एफसीआई द्वारा राज्यों के मार्केटिंग फेडरेशनों के माध्यम से सहकारी संस्थाओं के माध्यम से व तिलहनों और दलहनों की खरीद नैफड द्वारा भी इसी व्यवस्था के तहत की जाती रही है। एक समय था जब सरकारी खरीद की घोषणा होने मात्र से बाजार में जिंसों के भाव बढ़ जाते थे तो 25 से 30 प्रतिशत सरकारी खरीद से भाव एमएसपी स्तर पर आ जाते थे। पर पिछले एक दशक से ऐसा लगता है जैसे एमएसपी व्यवस्था पर व्यापारी काबिज हो गए हैं और इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि कई खरीद केन्द्रों पर तो वहां उत्पादित कुल फसल से भी अधिक खरीद देखने को मिल जाती है। एमएसपी खरीद व्यवस्था में अब निजी खरीददारों की भागीदारी बढ़ गई है। इस आरोप को सिरे से नकारा नहीं जा सकता कि छोटे किसानों से उनकी फसलों को कम दामों में खरीद कर उनके नाम से एमएसपी पर खरीद केन्द्रों पर बेच कर किसान के नाम पर उसका लाभ बिचैलिए लेने लगे हैं। हालांकि पिछली रबी में एक शुभ संकेत देखने को मिला है कि अधिकांश फसलों के भाव एमएसपी से अधिक देखे गए हैं।
जिस तरह से एमएसपी की घोषणा की गयी है उसी तरह से एक व्यवस्था भी सुनिश्चित हो जानी चाहिए कि मण्डियों में आवक के साथ ही भाव एमएसपी से कम हो तो तत्काल सरकारी खरीद शुरू हो जाए तभी इसका लाभ किसानों को सही रूप में मिल सकता है। समय पर खरीद और माफी जैसी योजनाओं के स्थान पर अनुदानित खाद-बीज उपलब्ध कराए जाएं तो देश का अन्नदाता विकास की नई इबारत लिखने में सक्षम हो सकेगा। अन्नदाता को एमएसपी का लाभ दिलाना सरकारों का दायित्व है तो व्यवस्था को प्रभावित करती बाजार ताकतों को भी व्यवस्था से हटाने का दायित्व सरकारों का हो जाता है।