अभय होने का वरदान देती है सनातन संस्कृति

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उज्ज्वल मिश्रा

सनातन संस्कृति हज़ारों वर्षों से मनुष्यों का मार्गदर्शन करती आ रही है। इस संस्कृति को सनातन इसलिए कहते हैं कि इसका ना आदि है ना अंत है। हमारे ऋषि मुनियों ने वेदों एवं उपनिषदों में उस सनातन के रहस्य को संकलित किया जिससे आने वाली पीढ़ी उस ज्ञान को आसानी से प्राप्त कर सके। जहां तक वेदों की बात है वेदों के दो भाग हैं कर्मकांड और ज्ञानकाण्ड! ज्ञानकांड का ही अगला स्वरूप उपनिषद और श्रीमद्भगवद्गीता है। लेकिन सनातनियों का दुर्भाग्य ही कहूंगा जो उन्होने अपने वेदों के सत्य स्वरूप को छोड़ कर आडम्बरों को अपना लिया। जैसे-जैसे समय बीतता गया पुरोहितों (धार्मिक क्रिया करने वाला) द्वारा इसका वही स्वरूप हमारे सामने रखा गया जो व्यावसायिक रूप से हमारे जानने योग्य था।

आज के समय में जिस प्रकार सनातनियों को एक डरा हुआ प्राणी बना दिया गया है वैसा सनातन संस्कृति का उद्देश्य नहीं है। आज के समय में पुरोहितों द्वारा कर्मकांड को एक छड़ी की तरह प्रयोग में लाया जा रहा है। जिससे कि हमें डराया जा सके और उनका व्यवसाय चलता रहे। हमने प्रायः पुरोहितों द्वारा सुना है कि

“तुम अमुक कार्य नहीं करोगे तो तुम्हारे साथ अमुक घटना घट सकती है”
“ऐसा किया तो भगवान तुम पर क्रोधित हो जाएंगे”
“हम तुम्हारे लिए अमुक पूजा कर देंगे और मनवांछित फल मिल जाएगा”
“अमुक इच्छापूर्ति के लिए ये अमुक पूजा करनी है”।

ये ऐसा लगता है जैसे परमेश्वर एक ऐसा मनुष्य है जिसे केवल अपनी पूजा करवानी है और ऐसा ना करने पर वह आपको दंड दे सकता है। ये सब भय का माहौल परमेश्वर के लिए इसलिए बनाया गया ताकि उनका व्यवसाय चलता रहे। आज के समय में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड की परिभाषा और अंतर को समझाने का कष्ट कोई नहीं उठाता। हमने शायद ही किसी पुरोहित को ये कहते सुना होगा कि…

“स्वार्थ का त्याग करो”
“कर्मों को सुधारो”
“भौतिकता का त्याग करो”
“इच्छओं का शमन करो”
“ब्रह्म के मार्ग पर चलो”।

इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि ऐसा कहने वाले को सबसे पहले अपनी इच्छाओं और स्वार्थ का त्याग करना होता है। पुरोहितों ने तो कर्मकांड में भय का मिश्रण कर उसे और ज्यादा धारदार बनाया। उन्होंने सनातन के उसी भाग को बताया जहां कर्मकांड का प्रभुत्व है। हम सनातनियों को बताया ही नहीं गया कि “ब्रह्म क्या है” “कर्मयोग और ज्ञानयोग क्या है”। असल में हमें वेदों के उस भाग से वंचित कर दिया गया जो हमें स्वयं ब्रह्म होने का मार्ग प्रशस्त करता है।

सनातन तो हमें “अहं ब्रह्मास्मि” के महावाक्य को आत्मसात करने का ज्ञान देता है। लेकिन गलती हमारी है कि हमने भेड़ बकरियों वाला जीवन चुना हुआ है। हम वास्तव में अपने इस मनुष्य जन्म के सही अर्थ को जानना ही नहीं चाहते। जिस मनुष्य जन्म में हमारा उद्देश्य उस ब्रह्म को जान कर स्वयं ब्रह्म होना चाहिए उस जन्म में हम तुच्छ भौतिक वस्तुओं को संग्रहित करने में निकाल देते हैं।

अभी भी समय है, हम अपने सभी प्रकार के भय को बाहर फेंक दें और अपनी सनातन संस्कृति को स्वाध्याय के माध्यम से जानने की कोशिश करें क्योंकि आज के भौतिकतावादी समय में यह ज्ञान देने कोई दूसरा नहीं आयेगा। सनातन संस्कृति ने हमें अभय होने का वरदान दिया और इस वरदान को पाने का हमें अधिकार है।

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