कोणार्क सूर्य मंदिर- 8, पश्चिमी तट से विदिशा की ओर
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पश्चिमी तटक्षेत्र का विशाल भूदृश्य है। एक कैनवस जिसमें मैं साक्षी हूँ, कोने पर स्थिर, नभ निहारता तूलिका के दो तीन स्पर्श भर अस्तित्त्व हूँ। जहाँ बैठा हूँ, चट्टान नहीं झूलता कालखंड है। नभ की नीलिमा विलुप्त है। साँवरे कारे मेघ घिरते नीचे उतर आये हैं। दृष्टिपटल पर दूर लघु पर्वतमालाओं का आभास है। मुझे लगता है कि धरा से क्षितिज छिन चुका है।
निर्जन एकांत में कहीं से उमस भरी गहिमणी गीली पुकार उभरी है – तुम हो? स्वरहीन महीन झींसे की झीनी तैरती सी बूँदें काँप काँप मुझे घेरने लगी हैं – तुम हो?
‘नहीं, मैं नहीं हूँ … यहाँ नहीं हूँ, दूर पूर्वी तट पर हूँ।‘
मौन भर पुलकित धीमी हँसी। गीली झीनी कँपकँपाती अदृश्य बूँदे, भीगती देह और नभ में छाने लगे हैं कितने घुले वर्ण – गैरिक, रक्त, पीत, केसर। चन्द्रभागा के प्रात:कालीन तट की स्मृति हो आई है… ईर्ष्यालु बूँदे सिमट गईं।
मेघों के पीछे से प्रभापुरुष झाँक रहा है … हविषा विधेम! चित्र स्थिर है। यह लाली! अरुणोदय है क्या?
‘नहीं, तुम विक्षिप्त हो!’
काले मेघ नहीं, ये बेचैन प्रश्नों के अंधेरे हैं। इतने बड़े विद्रोही निर्माण में इतना सरल आयोजन कि विषुव दिनों में प्रात: के कुछ क्षणों तक रश्मियाँ गर्भगृह के अंधेरे तक पहुँचें? ऐसा तो मोदेरा के सूर्यमन्दिर और दक्षिण के पूर्वाभिमुख कई मन्दिरों में होता है, अर्कक्षेत्र के मित्रवंशी इतने से ही संतुष्ट हो गये होंगे?
बाहर का झुटपुटा वैसे ही है लेकिन भीतर अचानक उत्तरों के प्रकाशपुंज दीप्त हो उठे हैं।
मुझ मनुष्य पर भारी घिर आये गज स्वरूप मेघ और उन पर सवारी गाँठता नरसिंह स्वरूप सूर्य! – कोणार्क में आगंतुकों का स्वागत करती सिंहद्वार की विशाल नर-गज-सिंह प्रतिमायें।
अरुणोदय – अब जगन्नाथ पुरी के पूर्वी द्वार पर विराजमान कोणार्क से ले जाया गया अरुण स्तम्भ।…मन्दिर नहीं रे! वह विशाल छायायंत्र था!! शंकुयंत्र। संक्रांतियों और सूर्यगतियों के प्रेक्षण की धर्म वेधशाला थी वह!
अरुण स्तम्भ ही नहीं विमान का शिखर, पीछे कोने पर बना रहस्यमय छायादेवी का मन्दिर, रथाकार मन्दिर के पहिये, सब, सभी सौर प्रेक्षण के यंत्र थे। अंशुमाली सूर्य का महागायत्री महालय आराधना स्थल के अतिरिक्त वेधशाला भी था। रथाकृति में बने महागायत्री महालय के 6,4,2 के युग्म में स्थापित 24 पहिये कालगति के प्रतीक हैं।
..तट की चट्टान तपने सी लगी है, पाँवों के नीचे कालचक्र उग आये हैं। भागते हुये अपने कक्ष में पहुँच कर मैंने संगणक को ऑन कर दिया है । यहाँ मैं सूर्य की गति को, छायाओं को, रश्मियों को वर्ष के किसी दिनांक और किसी समय पर देख सकता हूँ। Konark sun temple टंकित कर ध्वंसावशेषों में प्रवेश कर गया हूँ। मेरे साथ हैं – प्रो. बालसुब्रमण्यम, एलिस बोनर, के. चन्द्रहरि, सदाशिव रथ और उनके कई शिष्य।
काल और स्थान की सीमायें छिन्न भिन्न हो गई हैं। वे सभी मुझे पकड़ कर पश्चिमी तटक्षेत्र से दूर उज्जयिनी क्षेत्र की ओर ले उड़े जा रहे हैं। उस क्षेत्र में लगभग कर्क वृत्त पर पड़ती है विदिशा नगरी – अक्षांश 23° 32′ 0″ उ., देशांतर 77° 49′ 0″ पू.।
मेरी उलझन को भाँप कर प्रो. बालसुब्रमण्यम ने बताया है – कोणार्क के ध्वंशावशेषों में शंकुयंत्र का सन्धान करने से पहले वह तो देख लो जो अभी भी ध्वस्त नहीं हुआ है, जहाँ विष्णुस्तम्भ वैसे ही है जैसे लगा था। हाँ, उसमें भी अष्टकोण और षोडषकोण हैं जैसे तुम्हारे कोणार्क के अरुण स्तम्भ में हैं। प्रोफेसर ने ‘तुम्हारे’ पर वात्सल्य भरा जोर दिया है। मैं मान गया हूँ।
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