रमेश ठाकुर
साल-दर-साल बढ़ती बाल श्रमिकों की संख्या वैसे ही चिंता का विषय बनी हुई थी। इसे कोरोना संकट ने और हवा दे दी। कोरोना काल में अनाथ हुए बच्चों का आंकड़ा भयभीत करता है। बड़ी संख्या में बच्चे अपने मां-बाप के न रहने से अनाथ हुए हैं। गनीमत ये है कि केंद्र व राज्य सरकारों ने इन अनाथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और 21 वर्ष आयु पूरी होने तक समुचित देखरेख का जिम्मा अपने पर लिया है। कोई भी बच्चा दर-दर न भटके, मेहनत-मजदूरी व बाल श्रम से बचे, इसके लिए सरकारों ने जिलाधिकारियों को जिम्मेदारी सौंपी है। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो बाल श्रमिकों की संख्या में और बढ़ोतरी हो सकती थी। दरअसल बाल श्रम वैश्विक समस्या बन गई है।
पचास के दशक की हिंदी फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का एक गाना ‘नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी’ के बोल न सिर्फ बाल श्रम की भट्टियों में धधकते बचपन के प्रति ललकार और संवेदना जगाते हैं, बल्कि हुकूमतों के लिए बाल समस्याओं पर अंकुश न लगाने व उनसे जुड़े उत्पीड़न और अपराध के प्रति घोर निराशा की अभिव्यक्ति भी है। बच्चों से मजदूरी करवाना कुछ परिवारों की मजबूरी हो सकती है, पर उस दलदल से निकालने की जिम्मेदारी समाज की भी बनती है। जब तक समाज मुखर नहीं होगा, बात नहीं बनेगी।
सिर्फ सरकार-सिस्टम पर सवाल उठाने से काम नहीं चलेगा, समाधान के रास्ते सामूहिक रूप से खोजने होंगे। सड़कों पर भीख मांगते बच्चे, ईंट-भट्ठों पर काम करते नौनिहाल, विभिन्न अपराधों में लिप्त बच्चे व शिक्षा से महरूम बच्चों को देखकर हमें आगे नहीं बढ़ना है, बल्कि पीछे आकर उनके लिए सिस्टम को ललकारना होगा। उन्हें देखकर मुंह फेरना ही हमारा सबसे बड़ा अपराध है। हमारी चुप्पी ही बाल श्रम जैसे कृत्य को बढ़ावा देती है। बाल श्रम रोकना केवल सरकारों की ही जिम्मेदारी नहीं है। ये समस्या किसी एक के बूते नहीं सुलझ सकती, इसके लिए सामाजिक चेतना, जनजागरण और जागरूकता की आवश्यकता होगी। बाल मजदूरी और बाल अपराध को थामने के लिए महिला बाल मंत्रालय, श्रम विभाग, समाज कल्याण विभाग व निपसिड सहित इस क्षेत्र में कार्यरत तमाम संस्थाएं, सरकारी व गैर सरकारी संगठन, एनजीओ को लगना पड़ेगा।
ताजा आंकड़ा बताता है कि बीते एकाध दशकों से एशिया में सबसे ज्यादा बाल तस्करी हिंदुस्तान में हुई है। पिछड़े राज्यों में बाल तस्करों का बड़ा गैंग इस काम में सक्रिय है, जो मासूम बच्चों को किडनैप करके उन्हें कुछ समय बाद भीख मांगने या मजदूरी के काम लगा देता है। कुछ बच्चों को अपराध की दुनिया में भी उतार देते हैं। नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि तस्कर गिरोह समूचे हिंदुस्तान में रोजाना सैकड़ों बच्चे किडनेप करते हैं, जिन्हें बाद में भीख मंगवाने, मजूदरी, बाल अपराध और बाल श्रम की आग में झोंकते हैं। सड़क, बाजार व अन्य जगहों पर की जाने वाली स्नैचिंग की ज्यातादर घटनाओं को कम उम्र के बच्चे ही अंजाम देते हैं। उद्योग, कल-कारखाने व कंपनियों वाले बच्चों से मजदूरी इसलिए भी करवाते हैं क्योंकि इसके एवज में उन्हें कुछ देना नहीं पड़ता, बिना भुगतान के वह बच्चों को कुछ थोड़ा खाना खिलाकर ही उनसे शारीरिक कार्य करवा लेते हैं।
बाल श्रम रोकने में सरकारी व सामाजिक दोनों के प्रयास नाकाफी न रहें, सभी को ईमानदारी से इस दायित्व में आहूति देनी चाहिए। बाल श्रम अधिनियम 1986 के तहत ढाबों, घरों, होटलों में बाल श्रम करवाना दंडनीय अपराध है। बावजूद इसके लोग बाल श्रम को बढ़ावा देते हैं। बाल मजदूरी रोकने के लिए 1979 में बनी गुरुपाद स्वामी समिति ने बेहतरीन काम किया था। उसके बाद अलग मंत्रालय, आयोग, संस्थान और समितियां बनीं, लेकिन बात फिर वहीं आकर रुक जाती है कि जब तक आमजन की सहभागिता नहीं होगी, सरकारी प्रयास भी नाकाफी साबित होंगे।
विश्व भर में 21-22 करोड़ बच्चे आज भी श्रम की भट्ठियों में अपना बचपन झोंके हुए हैं। ये संख्या हिंदुस्तान में करीब पौने दो करोड़ के आसपास है। देहरादून हाईवे पर कुछ महीने पहले ऐसी ही एक घटना घटी। होटल पर एक दंपति चाय पी रहे थे, चाय देने आया वाला बच्चा सिसक-सिसक कर रो रहा था। दंपति ने उसके रोने की वजह पूछी तो उसने बताया कि उसे जबरदस्ती झारखंड से लाया गया है। दंपति ने चुपके से स्थानीय पुलिस को फोन कर दिया। पुलिस ने पहुंचकर बच्चे को अपने कब्जे में लिया और थाने ले गई। बाद में पता चला कि बच्चा वहां से किडनैप करके लाया गया था और ढाबे वाले को पचास हजार में बेच दिया था।
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