ऊपर हम यह दिखला आए हैं कि आस्ट्रेलिया निवासी अनार्य लोग, मौका पाकर द्रविड़ होकर ब्राह्मण बन गए और अपने देश तथा जाति के असभ्य और अनार्य आचार – विचारों को आर्यों में वेद, धर्म और यज्ञ आदि के नाम से प्रचलित किया।वही सब आचार – विचार पहले पड़ोसी देशों में और फिर उड़ीसा ,बंगाल ,मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में धीरे-धीरे प्रचलित हुए। क्योंकि यह निश्चित बात है कि मनुष्य जाति यदि धर्म, शासन और सामाजिक बंधनों से सीधे रास्ते पर ने चलाई जाए,तो वह पतित होकर आनाचारिणी हो जाती है।विशेषकर ऐसी स्थिति में जब उसका धर्म और समाज खुद ही अधर्म और अनाचार को कर्तव्य तथा मोक्षप्रद मान ले,ऐसी दशा में उत्तम मनुष्य को भी बिगड़ने में देर नहीं लगती है।
उत्तम मनुष्य को बिगाड़ने वाले दुष्ट मनुष्य पहले स्वयं दिखाने मे उत्तम बनते हैं और फिर धीरे-धीरे अपना दुष्ट स्वभाव उत्तम मनुष्यों में दाखिल करते हैं।नवीन सिद्धांत के अचार करने वालों ने हमेशा से इसी नीति का अवलंबन किया है। उनका सिद्धांत है कि, जिस जाति को अपने सिद्धांत सिखला हो, उसकी भाषा में ऐसे-ऐसे ग्रंथ लिखे जाएं,जिनमें तीन बातों का सम्मिश्रण हो ।पहली बात यह होगी कि,उस जाति के जो सिद्धांत अपने प्रचार में बाधक न हो ,वे सब माल लिए जाएं। उनकी प्रशंसा की जाए और विस्तार से उनका वर्णन किया जाए ।दूसरी बात यह है कि, उस धर्म की सूक्ष्म बातें जो सर्वासाधारण की समझ में ना आती हो,उनका अभिप्रया बदलकर उन में अपने मत की आवश्यक बातें मिश्रित करके गूढ़ भाषा में वर्णित की जाए और तीसरी बात यह है कि,साधारण बातों का खंडन करके उनके स्थान में अपनी समस्त बातें भर दी जाए।यह तीनों बातें इस क्रम में डाली जाए कि, पहली बात बहुत विस्तार से हो, दूसरी साधारण हो और तीसरी बहुत ही न्यून परिणाम में हो। इस प्रकार का बंदोबस्त करने से एक जाति दूसरी जाति में अपने सिद्धांतों का प्रचार कर सकती है। यह सिद्धांत इतने व्यापक और सच्चे हैं कि नवीन सिद्धांतप्रवर्तको को, यदि वे बुद्धिमान है तो, काम में लाना ही पड़ता है। हम जिन-जिन जातियों का साहित्यप्रचार इस प्रकरण में लिखना चाहते हैं,यद्यपि इन बातों ने इस सिद्धांत का अनुकरण किया है, तथापि यह बात द्रविड़ो के सिद्धांत प्रचार में विशेष रूप से देखी जाती है।द्रविड़ोंने आर्यों के विश्वास को इसी क्रम से बिगाड़ा है।यह बात आर्यों के दार्शनिक विषयों के अवलोकन से अच्छी तरह ज्ञात हो जाती है।उपनिषद् , गीता और वेदांतदर्शन का मेल बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। अतः हम यहां इस प्रस्थानत्रयी की विस्तृत आलोचना करके दिखाना चाहते हैं कि, किस प्रकार आर्य उपनिषदों में आसुर उपनिषदों का मिश्रण हुआ है।
हम गत पृष्टों में लिखा है कि, पूर्व काल ही में मद्रास प्रांत में ऑस्ट्रेलिया ,अफ्रीका और मेसोपोटामिया की हिट्टाइट जाति का जमाव हो गया था।इस जमे हुए द्रविड़दल में असीरिया और मिस्र के असुरों के ही जैसे आचार और विचार अच्छी तरह भरे हुए थे, क्योंकि एक ही स्थान में उत्पन्न होने से इन सब के आचार-विचार एक समान ही थे।उन विचारों में जो विचार दर्शनशास्त्र से संबंध रखते थे, वही आसुर उपनिषद कहलाते थे ,इस आसुर उपनिषद् का जिक्र छांदोग्य उपनिषद् में है। वहां लिखा है कि, “असुराणां ह्मेषा उपनिषद्’ अर्थात यह असुरों का उपनिषद् है।इससे प्रतीत होता है कि उपनिषदों में आसुर उपनिषद् का समावेश है। उपनिषदों में ही नहीं,वह गीता और ब्रह्यसूत्रों में भी मिश्रित है। कहने का मतलब यह है कि उपनिषद् , गीता और वेदांतदर्शन जिन्हें प्रस्थानत्रयी कहा जाता है, कुछ अंशों में आसुरी विचारों से भरे हुए हैं।इस प्रस्थानत्रयी की आलोचना करने के पूर्व जान लेना चाहिए कि इसका यह नाम क्यों रखा गया ।
क्रमशः
(देवेंद्र सिंह आर्य, लेखक उगता भारत के चेयरमैन हैं )