वृक्ष नामधारी गांव
“वृक्ष नामधारी गांव”
“”””””””””””””””””””””””””””””””
अ से आमका
प से पीपलका
न से नीमका
ढ से ढाकका
इ से इमलीयाका
यह महज देवनागरी वर्णमाला से बने हुए शब्द पाठशाला पाठ मात्र नहीं है ।यह गौतम बुध नगर के गांवो के नाम है ।जिनकी पहचान नामकरण वहां बहुतायात में कभी पाए जाने वाले देशज वृक्षों के नाम से हुई। बुजुर्गों में वृक्षों प्रकृति के प्रति कितना सम्मान आदर का भाव था गांव की शाश्वत पहचान के तौर पर वृक्षों को स्थापित कर दिया। अब हमारी इस पीढ़ी के सामने कोई हरे-भरे जंगल को हमारी आंखों के सामने काट दे हम लेश मात्र भी प्रतिरोध नहीं करते । भारतवर्ष में अधिकांश गांवों के नाम आपको स्थानीय देशज वृक्षों के नाम पर मिल जाएंगे। बात करते हैं आमका गांव की यह दादरी तहसील का गांव है इस गांव में कभी आम के बाग बहुत होते थे। इस गांव का नाम ही आमका हो गया। आज आम के बाग तो नाम मात्र है लेकिन कंक्रीट के जंगल अवैध आवासीय कॉलोनियां उन्हें काटकर बस गयी है। यही हालत दनकौर क्षेत्र के गांव पीपलका, इमलियाका की है। पीपलका में पीपल दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते ,वही इमलिया का में महज एक पेड़ इमली का बचा है जो उस गाव के धार्मिक स्थल वैदिक संयास आश्रम झीडी में आज भी उपस्थित है। हालांकि इमलिया का गांव के नामकरण को लेकर दूसरी मान्यता भी निकल कर आती है एक मान्यता यह है इमलिया का नामकरण इमली से ना होकर इस गांव को स्थापित करने वाले पूर्वज जिनका नाम इलम सिंह था । यमुना पार फरीदाबाद के नीमका गांव से निकलकर आए इलम सिंह के नाम से हुआ। इस गांव का इतिहास और संघर्ष बड़ा ही दिलचस्प है। अपने आसपास के गांव पौभारी लड़पुरा खानपुर से यह गांव बहुत बाद में स्थापित हुआ 400 वर्ष गाव को हो गए हैं। स्थापना के 100 वर्ष के पश्चात ही गांव का पड़ोसी गांव लडपुरा से सीमा विवाद हो गया ।हमारे देश में गांवो का सीमा विवाद उतना ही प्राचीन है जितना कि भारतवर्ष का इतिहास। आज किसानों का खेतों की सीमा को लेकर विवाद होता लेकिन पहले गांवों का सीमा विवाद होता था। यह समस्या इतनी चर्चित थी कि आचार्य कौटिल्य ने लगभग तीसरी सदी ईसा पूर्व अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में गांव के सीमा विवादो को सुलझाने के लिए बहुत ही सुंदर व्यवस्था कि पूरा अध्याय लिखा ।ग्रामणी नामक अधिकारी की नियुक्ति की थी ।
सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बहुत ही सुंदर व्यवस्था थी ग्राम देवता खेड़ा देवता विशेष पत्थरों को गांव की सीमाओं में गाड़ा जाता था इस विषय पर कभी विस्तार से लिखा जाएगा। मुद्दे पर लौटते हैं लड़पुरा व इमलियाका गांव के बाशिंदों के बीच लाठियां चल गई। यह सब देख कर पड़ोसी तीसरे गांव नवादा ने मध्यस्था स्वीकार की खूनी संघर्ष को टालने के लिए। उस गांव के गणमान्य व्यक्ति जिनका नाम भोपाल नंबरदार था प्रत्येक गांव में ऐसे व्यक्ति अक्सर मिल जाया करते थे न्याय शांतिप्रिय प्रिय होते थे जो उस जमाने में अपने बुद्धि कौशल क्षमताओं से जन्मजात न्यायिक अधिकारी होते थे। भोपाल नंबरदार जी ने कहा कि आप मेरा फार्मूला स्वीकार कीजिए फॉर्मूले के मुताबिक भोपाल नंबरदार घोड़े पर सवार हो गए अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली उन्होंने कहा जहां जहां मेरा घोड़ा घूमेगा वहा वहा उस गांव की सीमा तय हो जाएगी। यह फार्मूला इमलियाका ग्राम पर बहुत भारी पड़ा घोड़ा इमलियाका के भौगोलिक माजरे में ही घूम गया अर्थात इमलियाका गांव की भौगोलिक सीमा से घट गई गाव को 18 00 बीघा जमीन का नुकसान हुआ जो लडपुरा गांव को मिल गयी। गांव के लोग अपने वचन के पक्के थे उन्होंने व्यवस्था फार्मूला का कोई विरोध नहीं किया क्योंकि सभी ने रजामंदी की थी इस विवाद को इस तरह से सुलझाने के लिए। आज भाई भाई का खून बहा देता है एक इंच जमीन के लिए नाली खड़ंजा खंभों पर ट्रिपल मर्डर हो जाते हैं। यह अनोखा सीमा विवाद का निपटारा यहीं नहीं रुका मध्यस्था कर्ता भोपाल नंबरदार का घोडा जब गांव इमलिया का की मूल आबादी की ओर आ रहा था तो एक ग्रामीण महिला मातृशक्ति इमलीयाका गांव से निकलकर आई। चीख चीख कर कहने लगी गुजरी भाषा में…..”ओ! सत्तानाशी घुड़सवार हमारे जंगल फिरने (शौच) के लिए तो जमीन छोड़ दे”। यह सुनते ही घोड़ा और घुडसवार सवार दोनों वहीं रुक गए उस महिला ने ग्राम देवता का पत्थर उखाड़ कर वही लगा दिया। इस प्रकार एक महिला के साहस सूझबूझ से इमलियाका गांव बसते ही पूरी तरह उजड़ने से बच गया। 18 00 जमीन किसी गांव की चंद घंटों में घटना बहुत बड़ी संपत्ति की क्षति होती है। लेकिन पहले बुजुर्ग जिंदादिल इंसान होते थे पुरुषार्थी कर्मठ होते थे उन्होंने गांव से निकलकर यमुना के खादर मुर्शदपुर चूहडपुरर बदौली मोमनाथल गांव में खेती की जमीन ली क्षतिपूर्ति का भर पाया किया इन गावो के कहीं कहीं 2 चौथाई माजरे को उन्होंने खरीद लिया इसके बाद इमलियाका गाव ने पीछे मुड़कर नहीं देखा यह गांव नागर गोत्र के गुर्जरों में बहुत संपन्न गाव बन गया। कालांतर में यह गांव 19वीं शताब्दी में आर्य समाज की विचारधारा से जुड़ गया रही सही कसर इससे पूरी हो गई गांव पाखंड अंधविश्वास टोने टोटके से मुक्त हो गया गांव ने चतुर्दिक उन्नति की। इस घटना से एक रोचक निष्कर्ष यह निकल कर आया है कि “खुले में शौच करना” आज के युग में एक नुकसानदायक स्वास्थ्य की दृष्टि से बुरी आदत हो सकती है लेकिन पहले यह आरोग्य वर्धक स्वास्थ्य परक आदत थी। जब ग्रामीण आबादी कम थी। हमारे गांव में भी ऐसी ही एक पूजनीय महिला ने जो संध्या समय शौच के लिए गई थी ।पहले लोगों का स्वास्थ्य उन्नत था ग्रामीण लोग आठों पहर में दो बार शौच के लिए जाते थे ।आज तो दिन में एक बार ही चले जाए वही बहुत है । शहरों में फास्ट फूड के आदि एक जमात ऐसी तैयार हो गई है सप्ताह में दो बार शौच (मल त्याग) के लिए जाते हैं संयुक्त राज्य अमेरिका को भी पछाड़ दिया है जहां औसत नागरिक की साप्ताहिक बोबल फ्रीक्वेंसी( 1 सप्ताह में कितनी बार मल त्याग किया) बहुत कम है। खैर विषय की ओर लोटते है उस भाग्यवान मातृशक्ति ने ग्राम देवता के पत्थर को उठाकर दक्षिण पूर्व दिशा में पड़ोसी गांव के गुलिस्तानपुर की सीमा में 2 किलोमीटर अंदर जाकर स्थापित कर दिया उससे हमारे गांव का भौगोलिक क्षेत्रफल भी बढ़ गया पड़ोसी गांव गुलिस्तानपुर पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वह हमारे गांव की अपेक्षा कम आबादी का काम था वह बावनी खेड़ा था अर्थात उसका 52 हजार बीघे का रकबा था ।हमारे गांव का रकबा महज 5 हजार बीघे का था। यह किस्सा बुजुर्ग बताते हैं। आज के औद्योगिक गौतम बुध नगर जिले में एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी से लेकर यामाहा मोटर कंपनी इसी गुलिस्तानपुर गांव के रकबे में स्थापित है । गांवों के सीमांकन के लिए स्थापित किए जाने वाले वाले ग्राम देवता के पत्थर में 1 मन से अधिक वजन होता था। तो सोचिए हमारी मातृशक्ति कितनी बलवान होती थी गांवों में।
गांव दरख़्तों की दास्तान का किस्सा आगे भी जारी रहेगा शेष अगले अंक में।
आर्य सागर खारी✍✍✍