कृष्ण प्रताप सिंह
अवध में एक कहावत बहुत कही जाती है, ‘दिल्ली अभी दूर है।’ हालांकि इसके बनने का अवध या उसके नवाबों से कोई संबंध नहीं है। वह तो मार्च, 1325 में बंगाल से लौटते वक्त दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया को उनके शागिर्द की मार्फत संदेश भिजवाया कि वह उसके पहुंचने से पहले दिल्ली छोड़ दें, तो संत ने कहा था, ‘हनूज दिल्ली दूरअस्त।’ यानी गयासुद्दीन के लिए दिल्ली अभी दूर है।
इसके बाद तो दिल्ली सचमुच उनके लिए दूर ही रह गई थी। उसके पुत्र जौना खां ने साजिश रचकर तुगलकाबाद से आठ किलोमीटर दूर स्थित अफगानपुर में उसकी हत्या करा दी और खुद सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक बन बैठा। इस किस्से से अलग, अवध के नवाबों का करिश्मा यह है कि जब तक उनका प्रभुत्व रहा, वे अपने हिसाब से दिल्ली से प्रेम व घृणा के मिले-जुले रिश्ते रखते और उसे अपनी उंगलियों पर नचाते। कभी वे उसको अपने इतने नजदीक खींच लाते कि वह लखनऊ से गलबहियां-सी करती लगती और कभी इतनी दूर धकेल देते कि सर्वथा पराई नजर आने लगती।
वैसे भी, उस वक्त तक मनुष्य का भौगोलिक दूरियों व संचार की असुविधाओं पर विजय पाना बाकी था। तभी तो 1857 में आखिरी नवाब बिरजिस कदर के नेतृत्व में लखनऊ जब स्वतंत्रता का पहला संग्राम लड़ रहा था, तो अंग्रेजों के हाथों दिल्ली का पतन हो जाने के हफ्तों बाद तक इस सचाई से नावाकिफ रह गया था।
इतिहासकार बताते हैं कि दिल्ली में मुगल सल्तनत के पतन और लखनऊ में नवाबों के अभ्युदय की परिघटनाएं लगभग एक साथ घटित हुईं। मुगल बादशाहों का इकबाल बुलंद था तो अवध उनकी सल्तनत का सूबा भर था और उनके द्वारा नियुक्त सूबेदार उनकी ओर से अवध की सत्ता का संचालन किया करते थे। लेकिन बाद में ये सूबेदार इस कहावत को चरितार्थ करने लगे कि जब-जब दिल्ली कमजोर होती है, सूबेदार सिर उठाते हैं।
1722 में नौ सितंबर को तत्कालीन मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने अकबराबाद के सूबेदार सआदत खां प्रथम को अवध का सूबेदार नियुक्त कर सूबे में फैली बदअमनी खत्म करने और मालगुजारी बढ़ाने को कहा, तो सआदत सूबे का स्वतंत्र शासक बनने की अपनी महत्वाकांक्षा दबाए नहीं रख सके। फिर जैसे ही सूबे पर उनकी पकड़ मजबूत हुई, उन्होंने उसे अपनी निजी सल्तनत घोषित कर दिया। यह तब था, जब मुगल बादशाह ने उन्हें सूबे की मालगुजारी सत्तर लाख रुपये से बढ़ाकर एक करोड़ रुपये कर देने के लिए बुरहानुल्मुल्क की उपाधि दे रखी थी।
मुगल सल्तनत उनके इस कृत्य को चुपचाप सह गई, क्योंकि वे उसकी बेचारगी के दिन थे। वह इतने में ही संतुष्ट रही कि सआदत ने उससे रिश्ते पूरी तरह नहीं तोड़े और उसके प्रति राजनीतिक शिष्टाचार बाकी रखा। सआदत नहीं रहे और विरासत की लड़ाई में जीत हासिल कर उनके भांजे मिर्जा मोहम्मद मुकीम दूसरे नवाब बने, तो मुगल सल्तनत ने उन्हें सफदरजंग की उपाधि दी और अपना वजीर भी बनाया। इसके बाद वह ‘नवाब वजीर’ बन गए। लेकिन बाद में महत्वाकांक्षाओं का टकराव इतना बढ़ गया कि नवाब वजीर ने बादशाह अहमदशाह के खिलाफ खुली बगावत कर दी और 1753 में चार मई से सोलह नवंबर तक छह महीनों से भी ज्यादा लंबी लड़ाई में उलझाकर अपने कदमों में ला झुकाया।
इसके बाद अंग्रेजों के प्रभुत्व का दौर आया तो गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने दिल्ली और लखनऊ दरबारों को पूरी तरह अलगाने के लिए 1819 में गाजीउद्दीन हैदर को नवाब से बादशाह बना डाला। यह समझाकर कि वह किस बात में कम हैं, जो मुगलों के दबदबे में रहें। इसके बाद अवध के नवाब अपने नाम के शुरू में ‘नवाब’ और आखिर में ‘शाह’ लगाने लगे, ताकि जैसी जरूरत हो, वैसी करवट बदलकर नवाबी और बादशाहत का डबल मजा ले सकें। यह सिलसिला अंग्रेजों के 11 फरवरी, 1856 को नवाब वाजिदअली शाह को अपदस्थ करने तक जारी रहा। लेकिन 1857 में दिल्ली और लखनऊ एक होकर लड़ सकें, इसके लिए बिरजिस कदर को सिर्फ ‘नवाब’ बनाया गया, ‘शाह’ नहीं। सुना होगा आपने, आज भी राजनीति के पंडित कहते हैं कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है।
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