कोणार्क मन्दिर की चर्चा पंचदेवों की अवधारणा के बिना पूरी नहीं होगी। स्मार्त सनातन परम्परा पाँच देवताओं की नित्य आराधना को बहुत महत्त्वपूर्ण मानती आयी है। ये पाँच देव हैं – गणेश, आदित्य, महादेव, दुर्गा और विष्णु। उड़िया जन ने अपनी पवित्र भूमि को भी इन पाँच देवताओं के आधार पर पाँच क्षेत्रों में बाँट दिया था।
राजा नरसिंहदेव की राजधानी जाजपुर के पास महाविनायक पहाड़ियों वाला क्षेत्र गणेश क्षेत्र कहलाता था जहाँ महाविनायक मन्दिर है। एकाम्रक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध भुवनेश्वर में लिंगराज शिव का मन्दिर, जाजपुर या यज्ञपुर विरजाक्षेत्र में देवी दुर्गा का बिरजा मन्दिर और विष्णु या शंखक्षेत्र पुरी में जगन्नाथ मन्दिर।
ये चारो मन्दिर सूर्यमन्दिर के बनने के पहले भी विद्यमान थे और समन्वय की अद्भुत परम्परा के तहत एक ही गर्भगृह में एक ही प्रतिमा के भीतर पंचदेवों की उपासना महाविनायक मन्दिर में आज भी होती है जो कि ऐसा एकमात्र उदाहरण है। साम्ब निर्मित लघु मन्दिर और चन्द्रभागा तट पर पवित्र स्नान मेले के प्रचलित होने पर भी उस युग की यह विडम्बना ही थी कि केवल अर्कक्षेत्र यानि कोणार्क में आदित्य का भव्य मन्दिर नहीं था।
इस बात के प्रमाण हैं कि राजा की माँ ने इस कारण भी उन्हें वहाँ एक भव्य मन्दिर बनवाने का निर्देश दिया जो कि नरसिंहदेव की महत्त्वाकांक्षा और उसकी भव्य कीर्ति के अनुकूल भी होता। यह मन्दिर पवित्र उड़िया भूमि को पूर्णता प्रतीक देने वाला था जिससे राजा की कीर्ति इतिहास में सुरक्षित हो जाती।
पहले बताया जा चुका है कि उड़ीसा में नरसिंह शिव के रूप भी माने जाते हैं और जगन्नाथ का वर्तमान स्वरूप बहुत बाद का है। उसके पहले उड़ीसा में बौद्धों के साथ ही शैव शाक्त परम्परा सशक्त थी। इसका प्रमाण महाभारत में वर्णित पूर्वी तट के प्रसिद्ध स्वयम्भू लोकेश्वर से मिलता है जिन्हें वेदी पर स्थापित बताया गया है। पिछ्ले अंक में यह दर्शाया जा चुका है कि कैसे त्रिभुज आधारित मिथुन चित्र से श्रीयंत्र का विकास हुआ और कैसे अंतत: वह स्त्री स्वरूप वह पीठ बन गया जिस पर पुरुष स्वरूप लिंग विराजता था। महाभारत का वर्णन भी शिवलिंग की ओर ही संकेत करता है।
बिरजाक्षेत्र एक शक्तिपीठ है जिसे ओडरतीर्थ कहा जाता है। मान्यता है कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जली देवी के देह को लेकर शिव विक्षिप्त हो घूमने लगे थे तो उन्हें मुक्त करने के लिये विष्णु ने चक्र से उस देह के 52 टुकड़े कर दिये। वे जहाँ जहाँ गिरे वहाँ शक्तिपीठ बन गये। बिरजाक्षेत्र जाजपुर में देवी की नाभि या उस पर पहने जाना वाला आभूषण उड्डयान बन्ध गिरा था। शाक्त मत के यहाँ सशक्त होने का यही कारण है। पुरी के वर्तमान मन्दिर के निर्माण के पहले वहाँ शिव नरसिंह का मन्दिर बना जो आज भी है और देवी से अनुमति स्वरूप प्रांगण में उनका देवालय बनवाने की और प्रसाद के बिना उन पर चढ़े महाप्रसाद नहीं माने जाने की बात पहले ही बता चुका हूँ।
पुरी यानि एक ओर महौदधि सागर और दूसरी ओर भाग्येश्वरी(बरगाबी) नदी से घिरा आकार में दक्षिणावर्त शंख जैसे तद्नाम शंखक्षेत्र के जगन्नाथ से पहले शैव शाक्त व्याप्त होने के प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं।
शंखक्षेत्र के मुख पर लोकनाथ या लोकेश्वर महादेव हैं तो पुच्छ भाग में विल्वेश्वर महादेव। इन्हें मिलाते अक्ष के लगभग लम्बवत एक छोर पर देवी अलम्बा हैं तो दूसरे पर देवी वाराही। वाराही देवी से लगी हुई है आचार्य शंकर की पीठ। जगन्नाथ मन्दिर की आंतरिक चहारदीवारी प्राथमिक श्रीयंत्र की वर्गाकार परिधि है जिसके चार द्वारों पर व्याघ्र, हाथी, सिंह और अश्व हैं। त्रिकोणयुग्म यंत्र स्पष्ट दर्शाया गया है जिसके गर्भ में जगन्नाथ विराजमान हैं। यंत्र को घेरे सोलह कलाओं को प्रदर्शित करता कमल है जिसकी पंखुड़ियों पर एकानुक्रम से शिवलिंग और देवी प्रतीक वही त्रिकोणयुग्म प्रतिष्ठित हैं। समूचा क्षेत्र अन्य कई शिव और देवी मन्दिरों से भरपूर है। मन्दिर के प्रांगण में ही कोणार्क से लाई गई इन्द्र प्रतिमा स्थापित है। समन्वय और समाहित करने की सनातनी प्रकृति का दर्शन यहाँ भी होता है, इस प्रतिमा को कोणार्क सूर्य कहा जाता है।
राजा के सामने स्थापित और सशक्त शैव शाक्त परम्परा थी और आँखों में उड़िया भूमि को आदित्य मन्दिर निर्माण द्वारा पंचदेव पवित्र भूमि की पूर्णता देने का सपना। वास्तुविद और स्थापति को लिंगराज मन्दिर से प्रेरणा लेने को कहा गया। यह मन्दिर पारम्परिक उड़िया नागर शैली में बना था और गर्भगृह शिखर से लगे दो बाहरी उपमन्दिरों के कारण उस त्रिकोण को भी धारण किये हुये था जो तंत्रमार्ग में बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। इस त्रिकोण की प्रतिलिपि करने पर कोणार्क में उदय, मध्याह्न और अस्ताचल सूर्य प्रतिमाओं की स्थापना द्वारा आदित्य को सम्पूर्ण रूप में प्रदर्शित किया जा सकता था।
देवालय के मनुष्य शरीर रूप होने में भोगमंडप और नृत्यमंडप का अलगाव बाधा उत्पन्न करता था, इसलिये कोणार्क की योजना में दोनों को एक कर दिया गया।
पिछले आलेख में देवालय के देह स्वरूप होने की बात बता चुका हूँ, इसे इन चित्रों से और आसानी से समझा जा सकता है। दक्षिण की द्रविड़ शैली हो या उत्तर की नागर शैली, यह देहप्रतीक दोनों पर लागू है।
यहाँ यह भी दर्शनीय है कि वास्तुपुरुष की संकल्पना विष्णु से भी मिलती है जिनकी नाभि से
निर्माणी ब्रह्मा उपजते हैं। वास्तुपुरुष का केन्द्रीय उदरभाग भी ब्रह्मा कहलाता है। लेटे हुये विष्णु के शरीर की साम्यता भी दर्शनीय है जिनके मस्तक पर शेषनाग शिखर की सृष्टि करता है तो ब्रह्मकमल ध्वजस्तम्भ स्वरूप प्राथमिक लिंग का। नाग वैष्णव और शैव दोनों मतों में बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहे हैं। तन्त्र मार्ग में कुंडलिनि की परिकल्पना सर्पिणी के रूप में है।
ध्वज प्राथमिक लिंग के रूप में ‘काम ऊर्जा’ का प्रतीक है जिसका उदात्तीकरण मन्दिर प्रवेश के साथ प्रारम्भ होना चाहिये और गर्भगृह के सामने आते आते पूर्ण हो जाना चाहिये। बीच का विमर्शी मंडप ‘जगमोहन’ सम्बन्धित साधना क्रिया को दर्शाता है जो कि उदर है और ब्रह्मा सहित तमाम देवों का स्थान भी।
ध्वज के लिंग रूप होने का प्रमाण कोणार्क के इस अरुण स्तम्भ(अब पुरी में स्थापित) के पुराने चित्र से हो जाता है जिसके मूलस्थान पर योनिवेदी स्वरूप अनेक त्रिभुजों को कलात्मक रूप देते कमल की आकृति बनी हुई है। स्तम्भ का घेरा भी सोलह भुजाओं वाला बहुभुज है जो सोलह पंखुड़ियों वाले कमल का ही सूक्ष्म नैरंतर्य है।
कोणार्क मन्दिर की क्षैतिज योजना (plan) में त्रिकोण और अरुण स्तम्भ एक तांत्रिक यंत्र से भी सम्बन्धित लगते हैं जिसे ‘कामकला’ यंत्र कहा जाता है। किसी मन्दिर के तांत्रिक मन्दिर या ‘वीर’ मन्दिर होने के लिये उसका निर्माण इस यन्त्र के अनुसार होना चाहिये। यहाँ भी त्रिकोण दर्शनीय है।
जब हम क्षैतिज योजना को मन्दिर की भित्तियों पर लगी हुई विभिन्न मिथुन मूर्तियों से मिला कर देखते हैं तो आदित्य पूजा के साथ साथ मन्दिर के तांत्रिक अनुष्ठान केन्द्र होने में कोई शंका नहीं रह जाती और न राजा के समन्वयी महत्त्वाकांक्षा के बारे में जिसे रूप दे कर वह पुरुषोत्तम (वर्तमान जगन्नाथ) के समांतर ही एक और अनूठा आराधना केन्द्र विकसित करना चाहता था।
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