कोणार्क सूर्यमन्दिर
उपासना के अंतर्निहित भावों और देवस्थलों को स्थूल रूप देने के पीछे स्त्री पुरुष संयोग के सूक्ष्म और प्रकट तरीकों के कारण और कुछ प्रकार हम पिछली कड़ी में देख चुके हैं। दार्शनिक चित्रण, मंत्र, स्थापत्य, मिथकीय चित्रण और आधुनिक स्थापत्य में भी निर्माण के दर्शक पर पड़ने वाले सकल स्त्री या पुल्लिंग प्रभावों के बारे में भी हम बातें कर चुके हैं कि कैसे कुछ निर्माण स्त्री, पुरुष या उभयलिंगी रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं।
भारत में देखें तो अजंता, एलोरादि समस्त गुफा आराधना, ललित कला स्थल स्त्रीलिंग होंगे और ऊँचे पर्वताकार शिखर और गोपुरम वाले मन्दिर पुल्लिंग। बहुधा देवियों के आराधनास्थल या तो गुफाओं में हैं या नीचे शिखर वाले मन्दिरों में। स्त्री तत्त्व आधारित आध्यात्मिक साधना की गोपनीयता और कठिनाइयों को स्थूल रूप में रेखांकित करने की मंशा के कारण ही तंत्र और शाक्त पूजा स्थल दुर्गम पहाड़ियों में हैं या अब आबाद हो चुके पहले के दुर्गम वनप्रांतरों में।
पुरुष में स्त्री और स्त्री में पुरुष तत्त्व का सर्वोत्तम उदाहरण भारत की अर्धनारीश्वर संकल्पना है जिसमें यौनांगों के बजाय पूरी देह को ही स्त्री और पुरुष देहों के संपृक्त रूप में दर्शाया जाता है। ताओवाद की यिन यांग संकल्पना का इससे अच्छा वैकल्पिक निरूपण नहीं हो सकता। शिव आराधना में जो गोपनीय पक्ष है, वह शिवा के अर्धांग प्रभाव के कारण है।
समाज बहुत पहले से ही पुरुषप्रधान रहा है और इसका प्रभाव देवालयों या स्मारकों के स्थापत्य पर भी पड़ा है। मिस्र के देवता के उत्थित लिंग का उदाहरण हम देख ही चुके हैं। इतर सभ्यताओं में भी पुरुष का लिंग श्रेष्ठता मापन और निरूपण का प्रेरक तत्त्व रहा है। इसके सबसे अच्छे उदाहरण विभिन्न प्रकार के स्तम्भ हैं। मिस्र के ओबेलिस्क हों या ग्रीक रोमन सभ्यताओं के स्तम्भ या हिन्दू देवताओं के प्रतीकों के स्तम्भ, सब की प्रेरणा में वही लिंगोत्त्थान का भाव है। दैवी शक्तियों का उच्च भाव इस से स्वभावत: जुड़ जाता है। मणि पद्म के बीज मंत्र का पीड़ित जन पर उच्च स्थिति से नीचे की ओर करुणा दृष्टि डालते अवलोकितेश्वर से सम्बन्ध ऐसे ही नहीं है। अपने से उच्च मानने के कारण ही मनुष्य देवताओं या ईश्वर का वास अंतरिक्ष में मानता आया है। पिरामिड हों, ऊँचे शिखर वाले मन्दिर हों, मिनारे हों या ऊँची पहाड़ियों पठारों पर बने पूजास्थल हों, सबमें उच्चता भाव का स्थूलीकरण है।
हिन्दुओं में मिथकीय सुमेरु पर्वत की संकल्पना रही है। महादेव का निवास भीतरी हिमालय की कैलाश चोटी पर माना गया है। हिमालयक्षेत्र को देवभूमि माना जाता रहा है। पांडवों की स्वर्गारोहण कथा इसी संकल्पना की देन है।
सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य की क्षमतायें बढ़ीं। अब वह पर्वत सरीखे ऊँचे देवालय अपनी सुविधा से कहीं भी बना सकता था। हिन्दुओं के देवालय शिखर या गोपुरम सुमेरु से प्रेरित हैं जो पुरुष अंग और पुरुष के मनोविज्ञान से भी जुड़ते हैं।
पुरुष जीवन दो सूक्ष्म भावों से परिचालित होता है – प्रभाव क्षेत्र और अमरत्त्व की चाह। पुरुष अपने कृत्य, व्यवहार और संतति के प्रसार द्वारा इन दोनों की परिलब्धि करता है। कुछ स्तनधारी जंतुओं के नरों जैसे शेर, हाथी, कुत्ते आदि में अपना ‘इलाका’ चिह्नित कर रखने में प्रभाव क्षेत्र ही कारक है। वे दूसरों के प्रभाव क्षेत्र का सम्मान करते हैं और लड़ाई का घोष भी उसके उल्लंघन द्वारा ही करते हैं। ऊँचे शिखर युक्त भव्य मन्दिरों, प्रासादों के निर्माण के पीछे प्रभाव क्षेत्र और अमरत्त्व प्राप्ति की सोच ही काम करती है। ऊँचे शिखर एक ओर तो अंतरिक्ष स्थित देवों के निकट पुरुष की कीर्ति ले जाते हैं तो दूसरी ओर बहुत दूर से दिख कर उसके प्रभाव क्षेत्र और उसकी कीर्ति का विस्तार करते हैं। इनका निर्माण ऐसा किया जाता है कि सैकड़ो वर्षों तक बने रहें। पीढ़ी दर पीढ़ी निर्माण और निर्माता की कीर्ति मिथकीय रूप लेती उन्हें दैवी गरिमा से युक्त कर देती है।
मन्दिरों की संकल्पना में पाँच तत्त्वों को भी सम्मिलित किया गया।
चूँकि सृष्टि केवल पुरुष तत्त्व से नहीं बनी है, इसलिये स्त्री तत्त्व का भी ध्यान रखा जाना चाहिये। तो मन्दिर का आकार कैसा हो जो इनको प्रदर्शित कर सके? मन्दिरों में तो आराधक भी आयेंगे जिनके लिये पर्याप्त स्थान चाहिये। स्तंभ आकार में उतना ‘गगन’ कहाँ – गगन माने खाली स्थान? क्षिति तो मन्दिर का पिंड है, जल की पूर्ति कुओं, पुष्करणियों के निर्माण द्वारा या नदी और समुद्र के किनारे निर्माण से हो जाती है, अग्नि तत्त्व तो स्वयं विग्रह है जिसके पास दीप प्रज्वलित रहते हैं और जब गगन होगा तो वायु रहेगी ही! प्रश्न वहीं का वहीं रह जाता है – गगन का सृजन आराधना स्थल में कैसे हो?
निर्माताओं की दृष्टि पर्वतों पर पड़ी।
ध्यान से देखने पर क्रमश: ऊँचे सँकरे होते जाते और अंतत: एकदम ऊँचे एक विन्दु भर रह जाने में ज्यामिति का एक आकार उभरता है – त्रिभुज। सीधे खड़े त्रिभुज में ऊँचाई भी है, चौड़ा आधार ऊँचाई से संपृक्त हो गगन का सृजन भी कर देता है और निर्माण की मूल ईकाई के रूप में इसे बनाना आसान भी है। बात यहीं समाप्त नहीं होती – आधार बढ़ा कर इसे चाहे जितना ऊँचा बनाया जा सकता है जिसमें विराट पौरुष के विराट लिंग का भाव समाहित हो जाता है। साथ ही जनित गगन का त्रिकोण स्त्रीप्रतीक गर्भ का सृजन कर देता है। उन्हों ने कल्पना को और विस्तार दिया तो पाया कि त्रिभुज का प्रयोग पुरुष लिंग और स्त्री योनि को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाने के लिये किया जा सकता है:
(1) आधार नीचे और चोटी ऊपर – लिंग।
(2) चोटी नीचे और आधार ऊपर – योनि।
यह तो हुआ ऊर्ध्व विस्तार।
मन्दिरों के क्षैतिज विस्तार को देखें तो हम पाते हैं कि दो धारायें हैं – शरीर प्रधान और संयोग प्रधान।
शरीर प्रधान योजना ने मनुष्य शरीर को आधार बना कर मन्दिरों के क्षैतिज विस्तार की परिकल्पना की जो स्पष्टत: पुरुष देह ही थी। दोनों हाथ फैलाया खड़ा पुरुष हो या हाथ जोड़, पैर सिकोड़ बैठा पुरुष – एक वर्गाकार आकृति बनती है। वास्तुपुरुष की संकल्पना यहाँ से आई। संकल्पना और निर्माण दोनों दृष्टियों से अपने ज्यामितीय गुणों और सरलता के कारण वर्ग और बाद में आयत मन्दिर क्षैतिज योजना के मूल बने।
संयोग प्रधान योजना ने दो देहों के संयोग के प्रतीक को आधार बनाया। दो त्रिभुजों के संयोग द्वारा दैवी सम्भोग की प्रक्रिया कि निरूपित किया गया और छ: कोणों वाली आकृति अस्तित्त्व में आई जो कालांतर में विभिन्न प्रकार के यंत्रों जैसे श्रीयंत्र के रूप में विकसित हुई।
इसमें पुरुष प्रतीक चार त्रिभुजों का उलट आधार वाले चार स्त्री प्रतीक त्रिभुजों से संयोग था और पाँचवा उलट आधार वाला त्रिभुज स्त्री तत्त्व की श्रेष्ठता को अभिव्यक्त करता था जिसके ऊपर लिंग स्वरूप महादेव विराजते थे। त्रिभुजों की संख्या इस तरह से ली गई कि छोटे छोटे त्रिभुज संख्या में गर्भ की संकल्पना को अभिव्यक्त करें जिन्हें अन्तत: गर्भ प्रतीक कमल पंखुड़ियों से घेर दिया गया।
श्री यंत्र का त्रिविमीय रूप ही सुमेरु पर्वत कहलाया जिससे प्रेरणा ले कर बौद्ध तंत्र में स्तूप गढ़े गये। समूचे क्षैतिज विस्तार को योनि रूप मान कर उसके ऊपर लिंग स्थापित कर दिया गया जिससे स्त्री और पुरुष तत्त्व और मुखर हो अपनी उपस्थिति जताने लगे। वैदिक यज्ञों की बलियूप (स्तम्भ) पूजा से मिलकर शिवलिंग के वर्तमान रूप का विकास सुमेरु पर्वत की इसी संकल्पना से हुआ।
गूढ़ प्रतीकात्मकता और निर्माण की जटिलता की आवश्यकता वश ज्यामिति ज्ञान परिवर्धित हुआ और गोपन संयोग कर्म से जुड़ाव के कारण यह उपासना पद्धति आम जन से दूर ही रही। वेदी पर स्थापित विभिन्न प्रकार के यंत्र ही मन्दिर स्वरूप हो गये जो पोर्टेबल थे और ‘जहाँ भक्त वहाँ ईश्वर’ की अवधारणा से जुड़ते थे।
शरीर प्रधान ऊँचे शिखर वाले वास्तु को देखें या संयोग प्रधान गुह्य वास्तु को, हम पाते हैं कि कहीं न कहीं ईकाई स्वरूप एक ही आकार की बारम्बरता से विशालता का सृजन हुआ है। श्रीयंत्र में यह त्रिभुजों के क्षैतिज रूप में दिखता है तो मन्दिर शिखरों में त्रिकोणीय आकारों की बारम्बारता में। तड़ित झंझा हो, बादल हों, पर्वत शिखर हों, वनस्पतियाँ हों या सागर तट; प्रकृति ऐसे ही निर्माण करती है जिसे अंग्रेजी में फ्रैक्टल (fractal) कहते हैं। सूक्ष्म में स्थूल के और स्थूल में सूक्ष्म के निवास का भाव प्रकृति में भी है जिसे आराधना स्थलों और वस्तुओं में मनुष्य ने व्यक्त किया है।
अपने प्रभाव क्षेत्र, यश और संरचना की वृत्ति को सर्वोच्च रूप में अभिव्यक्त करने के लिये पुरुष ने देवालयों को चुना क्यों कि उनसे दैवीयता भी जुड़ जाती थी। मन्दिर के शिखर जहाँ तक दिखते वहाँ तक मनुष्य दैवी अनुशासन में रहते। यह प्रसिद्ध है कि प्राचीन सोमनाथ का कलश ध्वज जहाँ दिख जाता वहाँ हत्या को आतुर पीछा करता शत्रु भी प्रतिद्वन्द्वी को छोड़ देता।
तमाम सूक्ष्म संकेतों को समेटे हुये मन्दिर स्थापत्य स्थूल रूप से पुरुष देह को व्यक्त करने लगे। वाहन स्तम्भ जैसे गरुड़ स्तम्भ, अरुण स्तम्भ आदि उत्त्थित लिंग के प्रतीक हो गये जहाँ से मन्दिर में प्रवेश किया जाता था। मस्तक स्वरूप गर्भगृह का ऊँचा शिखर उदात्तता का प्रतीक हो गया जहाँ आदिम संयोग भाव ईश्वरीय संयोग में परिवर्तित हो जाते।
कुन्डलिनि तंत्र साधना में यह मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा मानी गयी है जिसका अंतिम उद्देश्य है – निर्विकल्प समाधि। मन्दिर स्थापत्य इसी यात्रा को सांकेतिक रूप से व्यक्त करते हैं।
(…जारी)
आभार: रुड़की विश्वविद्यालय के गुरुजन, श्रीमती जी, विकिपीडिया, गुगल, कुछ पुस्तकें, http://architecture.about.com, पाठक गण और आलसी नामधारी एक सनकी 😉
✍🏻सनातन कालयात्री अप्रतिरथ ऐन्द्र श्री गिरिजेश राव का यात्रावृत्त गतिमान है…..
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