अवधेश कुमार
जो मानकर चल रहे थे कि पश्चिम बंगाल में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने के बाद बीजेपी चुनाव पूर्व उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन करेगी, उन्हें निराशा हाथ लगी है। भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश का महत्व हमेशा रहा है। कांग्रेस जब से राज्य में सिमट गई, राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी शक्ति कमजोर हुई। 2009 में लंबे समय बाद उत्तर प्रदेश में आंशिक सफलता ने कांग्रेस को 1991 के बाद पहली बार लोकसभा में 200 के पार पहुंचा दिया। 1996 और 1998 में बीजेपी देश की सबसे बड़ी पार्टी बनी तो उसमें मुख्य योगदान इसी राज्य का था। 2014 और 2019 में बीजेपी के अपने दम पर बहुमत पाने में उत्तर प्रदेश का योगदान कितना बड़ा था, यह भी बताने की आवश्यकता नहीं। इसलिए राज्य की सत्ता में फिर से आना बीजेपी के सबसे बड़े सपनों में से एक रहा है।
सीएम नहीं हटेंगे
जिस राम मंदिर आंदोलन ने पार्टी को शिखर तक पहुंचाया, अब उसका निर्माण प्रारंभ हो गया है। यह बीजेपी के साथ संघ परिवार के लिए केवल एक मंदिर नहीं बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारत के आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में फिर से उदय का केंद्र है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी सत्ता में वापसी नहीं करती है तो विरोधी राम मंदिर के संदर्भ में उसकी सोच और प्रदेश सहित संपूर्ण देश के हिंदुओं पर उसके प्रभाव को लेकर जो टिप्पणियां करेंगे, उनका जवाब देना पार्टी के लिए मुश्किल होगा। यानी बीजेपी के लिए राज्य में अपनी सत्ता कायम रखना अपरिहार्य हो गया है।
जब पिछले दिनों पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष और प्रदेश प्रभारी राधामोहन सिंह ने लखनऊ में मंत्रियों, विधायकों, कुछ सांसदों, नेताओं, कार्यकर्ताओं के साथ विचार-विमर्श शुरू किया तो मीडिया, सोशल मीडिया पर एक बड़े तबके ने इसे विशेष रूप से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जोड़ कर देखा। आम टिप्पणी यही थी कि बीजेपी ने उत्तराखंड में जिस तरह नेतृत्व परिवर्तन किया, वैसा ही वह उत्तर प्रदेश में कर सकती है। हालांकि जो लोग बीजेपी सहित संघ परिवार की सोच से परिचित हैं, उनके लिए ऐसी आशंका का कोई कारण नहीं था। जिस मुख्यमंत्री की चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के बाद सबसे ज्यादा सभाएं कराई जातीं हो, उसे वह पद से हटा देगी, ऐसी सोच ही बेमानी है।
प्रधानमंत्री होने के कारण बीजेपी न तो नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व और भगवा के मुखर चेहरे के रूप में पेश कर सकती है और न वे स्वयं उस प्रकार से उन मुद्दों को उठा सकते हैं, जिसकी पार्टी को सतत आवश्यकता रहती है। योगी आदित्यनाथ बीजेपी और संघ के दृष्टिकोण में इसके लिए संपूर्ण व्यक्तित्व हैं। पार्टी और संघ का मानना है कि सत्ता में आने के बाद घोषित अपराधियों, माफियाओं आदि के विरुद्ध उन्होंने सख्त कार्रवाई की। लव जिहाद, गोहत्या के विरुद्ध न केवल कदम उठाया बल्कि इसके लिए कानूनी ढांचा भी खड़ा किया। इन सब के साथ विकास, पूंजी निवेश, रोजगार और सुशासन के संदर्भ में उनका कार्य बतौर मुख्यमंत्री संतुलित रहा है। इसी तरह उनके कोरोना प्रबंधन को भी संघ और बीजेपी नेतृत्व उत्कृष्ट मानता है। बीएल संतोष और राधामोहन सिंह का फीडबैक भी इसकी पुष्टि करता है। फिर भी यह मान लेना उचित नहीं होगा कि बीजेपी और संघ के अंदर बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बारे में केवल सकारात्मक आकलन ही है।
बीजेपी सरकारों की दो ‘सनातन’ समस्याएं रही हैं। पहला, इनमें अधिकारियों और नौकरशाहों का बोलबाला कायम होता है। वे आम कार्यकर्ता और नेता तो छोड़िए कई बार विधायकों और मंत्रियों तक की अनदेखी करती हैं। दूसरे, शासन में आने के बाद अधिकांश मंत्रियों का कार्यकर्ताओं के साथ जिस तरह का सामंजस्य होना चाहिए, वह नहीं दिखता। केंद्र के स्तर पर प्रधानमंत्री ने इसे दूर करने की कोशिश की। इसके लिए बीजेपी के सहयोग विभाग को पहले से ज्यादा शक्तिशाली, सक्रिय और व्यवस्थित किया। अधिकारियों और नौकरशाहों को भी संदेश दिया कि सरकारी योजनाओं को सही ढंग से लागू करने, सही फीडबैक देने में तो उन्हें पूरी स्वतंत्रता है, लेकिन राजनीति को ध्यान में रखते हुए नेताओं, कार्यकर्ताओं, सांसदों, विधायकों और मंत्रियों को भी वैधानिक सीमाओं के अंदर पूरा महत्व मिलना चाहिए।
असंतोष दूर करें योगी
उत्तर प्रदेश में आम कार्यकर्ता और नेता शिकायत करते पाए जाते हैं कि सरकारी अधिकारी हमारी नहीं सुनते। कई मंत्रियों, विधायकों के खिलाफ भी ऐसी शिकायतें प्रदेश से लेकर केंद्र तक आई हैं। ऐसी शिकायतें स्वयं मुख्यमंत्री के खिलाफ भी हैं। कई विधायक आरोप लगाते हैं कि मुख्यमंत्री उनसे ज्यादा अधिकारियों को महत्व देते हैं। जिन्हें चुनाव और संपूर्ण राजनीति में इसके प्रभाव का अनुभव नहीं है, उनके लिए शायद यह बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन सच यही है कि बीजेपी की कई सरकारें समर्थकों, कार्यकर्ताओं और नेताओं के असंतोष का शिकार होकर वापस नहीं लौटीं। केंद्र में वाजपेयी सरकार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी पद से हटाए जाने का यह एक प्रमुख कारण बना। हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर के विरुद्ध ऐसी शिकायतें विधानसभा चुनाव के पूर्व आती रहीं। परिणाम यह हुआ कि बीजेपी वहां बहुमत नहीं पा सकी। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विरुद्ध तो मुख्य शिकायत ही यही रही है।
योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता को लेकर संघ और बीजेपी नेतृत्व को किसी तरह का संदेह न था, न है। वह केवल पार्टी में नहीं, दूसरी पार्टियों के प्रमुख नेताओं से भी लोकप्रियता के मामले में आगे हैं। इसलिए बीजेपी के असंतुष्ट विधायकों और नेताओं को स्पष्ट संदेश दे दिया गया है कि वे मिलकर काम करें। इसके साथ योगी आदित्यनाथ से भी कहा गया है कि कार्यकर्ताओं और नेताओं का असंतोष दूर करें। मोदी और शाह के नेतृत्व में बीजेपी जल्दी किसी नेता को हाशिए पर ढकेलने का कदम नहीं उठाती। योगी तो वैसे भी उनकी नजर में लंबी रेस के घोड़े हैं। उत्तर प्रदेश में ही कल्याण सिंह को किनारे करने और उनकी छवि कमजोर करने का दुष्परिणाम पार्टी भुगत चुकी है। इसलिए दोबारा वह ऐसी गलती नहीं कर सकती। किंतु इसके साथ यह भी आवश्यक है कि जाने-अनजाने या निजी स्वभाव के कारण जो कुछ भूलें हुई हैं या गलत संदेश गया है, उन्हें दूर किया जाए और चुनाव आते-आते सरकार पार्टी और समर्थकों के बीच सामंजस्य का स्तर सामान्य हो।
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