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आतंकवाद

2500 ‘हिंदू’ गांवों का नाम बदलकर किया गया इस्लामीकरण : ‘दुर्गा’ इंदिरा थीं तब प्रधानमंत्री, सीएम के लिए हिंदू थे भारत सरकार के मुखबिर

                                      आतंकी गोली से पहले इस्लामीकरण का खेल नेता खेलने लगे थे, अफसोस!
तीन दशकों से कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार होता रहा है। हाल ही में तीन आंतकियों द्वारा दक्षिणी कश्मीर के त्राल में नगर पार्षद बीजेपी नेता राकेश पंडिता की हत्या कर दी गई। राकेश पंडिता की हत्या कर आतंकी संगठनों ने इशारा किया है कि उन्हें आज भी कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापिसी खटकती है। यही कारण है कि वे फिर आतंकवाद की जड़ें मजबूत करने की नाकाम कोशिश में जुटे हुए हैं। दरअसल, घाटी में आतंकवाद के चलते राकेश पंडिता का परिवार 1990 में पलायन के बाद जम्मू आ गया था। 2020 में यानी 30 साल बाद राकेश पंडिता फिर से त्राल लौटे, जहाँ उन्होंने और उनकी पत्नी ने बीजेपी की टिकट पर स्थानीय निकाय का चुनाव लड़ा और दोनों जीत भी गए थे। 

कश्मीरी पंडित समुदाय के कई लोग राजनीतिक दलों से जुड़कर घाटी में सक्रिय

इसी तरह कश्मीरी पंडित समुदाय के कई लोग विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़कर घाटी में सक्रिय हैं। यही कारण है कि आतंकवादियों के गढ़ में हिंदुओं की मौजूदगी उन्हें नागवार गुजरती आई है। इससे पूर्व भी ये आतंकी कई कश्मीरी पंडित नेताओं को मौत के घाट उतार चुके हैं। पिछले वर्ष जून में इसी तरह सरपंच अजय पंडिता की अनंतनाग में हत्या की गई थी। अजय पंडिता और राकेश पंडिता दोनों ही जाने-माने चेहरे थे, जो कश्मीरियों को ​वापस लाने के कार्य में लगे हुए थे। वहीं, सरकार की तरफ से भी पुरजोर प्रयास किए जा रहे हैं कि किसी भी तरह कश्मीरियों को वापस लाया जा सके। इसी बीच राकेश पंडिता की मौत के बाद एक बार फिर कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा संदेह के घेरे में है। आखिर कब तक ‘कश्मीरी पंडित’ इसी तरह अपनी जान गँवाते रहेंगे? आखिर कब तक वह आतंकियों की गोलियों का निशाना बनते रहेंगे।

31 वर्ष पूर्व कश्मीरी पंडितों पर हुए नरसंहार की यादें ताजा

इस घटना ने कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों पर हुए नरसंहार की यादें ताजा कर दी हैं। कश्मीरी पंडित, जिन्हें कश्मीरी ब्राह्मण और कश्मीरी हिंदू भी कहा जाता है, उन्होंने घाटी में 31 वर्ष पूर्व हुए नरसंहार में अपने परिजनों को खोया है, उनके जख्म अभी भी नहीं भरे हैं। वह सालों से न्याय के लिए बाट जोह रहे हैं। मानवाधिकार संगठन जो जम्मू-कश्मीर में कुछ दिनों के लिए इंटरनेट बंद होने पर छाती पीटने लगता है, वह भी 31 सालों से विस्थापन का दर्द झेल रहे कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर चुप ही रहा है।

कश्मीरी पंडितों कश्मीर छोड़ो या फिर इस्लाम अपनाओ

19 जनवरी 1990 – कश्मीर के लिए यह तारीख बेहद महत्वपूर्ण है। इसी दिन कश्मीरी पंडितों पर नरसंहार कर उन्हें उनकी ही सरजमीं छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। 19 जनवरी शुक्रवार की सुबह डल झील पर शिकारा का संगीत नहीं, मुस्लिम कट्टरपंथियों का शोर सुनाई पड़ रहा था। हिंदुओं के घरों की दीवारों पर धमकी भरे पोस्टर लगा दिए गए थे। कश्मीर के कोने-कोने में मस्जिदों से फरमान जारी किए जा रहे थे। फरमान कश्मीर में रहने वाले गैर-मुस्लिमों के खिलाफ था। फरमान था कश्मीरी पंडितों कश्मीर छोड़ो या अंजाम भुगतो या फिर इस्लाम अपनाओ।

भारत के इतिहास में सबसे बड़ा नरसंहार और पलायन

वो रात कश्मीरी पं​ड़ितों के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं थी। रात को हजारों कश्मीरी पंडितों का कत्ल कर दिया गया था। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, कट्टरपंथी इस्लामवादी और उग्रवादी विद्रोह के बीच घाटी में अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय कश्मीरी पंडितों का यह भारत के इतिहास में सबसे बड़ा नरसंहार और पलायन था। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, हथियार लहराती हुई भीड़ अल्लाहु अकबर के नारे लगाते हुए अचानक कश्मीरी पंडितों के घरों में दाखिल हो जाती और उन्हें धमकाती थी। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने गैर-मुस्लिमों के लिए ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी, जिसमें उनके पास दो ही विकल्प थे – या तो कश्मीर छोड़ो या फिर दुनिया।

कश्मीरी पंडित नीरजा साधु का कहना है, ”19 जनवरी को मैंने या मेरे परिवार ने ये नहीं सोचा कि हमेशा के लिए हम यहाँ से चले जाएँगे, क्योंकि उससे पहले दिसंबर में मेरे पिताजी को धमकी भरे फोन आ रहे थे। उनसे ये बोला गया था कि आप जॉब छोड़कर चले जाएँ यहाँ से, नहीं तो आपका घर जलाएँगे। आपकी बेटी को घर से ले जाएँगे। आपके पूरे परिवार को जला देंगे।”

103 मंदिरों, धर्मशालाओं और आश्रमों को तोड़ दिया गया

एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 19 जनवरी 1990 को ही लाखों कश्मीरी पंडितों ने मजबूरन घाटी छोड़ दी। घाटी में उस वक्त कश्मीरी पंडितों की आबादी लगभग 5 लाख के करीब थी, लेकिन कश्मीर को इस्लामिक स्टेट बनाने की मजहबी सोच की वजह से साल 1990 के अंत तक 95 प्रतिशत कश्मीरी पंडित अपना घर-बार छोड़ कर वहाँ से चले गए। इसी दौरान कश्मीरी पंडितों से जुड़े 150 शैक्षिक संस्थानों को आग लगा दी गई थी। 103 मंदिरों, धर्मशालाओं और आश्रमों को तोड़ दिया गया था। कश्मीरी पंडितों की हजारों दुकानों और फैक्ट्रियों को लूट लिया गया था। हजारों कश्मीरी पंडितों की खेती योग्य जमीन छीनकर उन्हें भगा दिया गया था। कश्मीरी पंडितों के घर जलाने की 20 हजार से ज्यादा घटनाएँ सामने आईं और 1100 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों को बेहद निर्मम तरीके से मार डाला गया।

गौरतलब है कि कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला और भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के बीच 1975 में एक समझौता हुआ था। कश्मीरियों की युवा पीढ़ी में कम ही लोगों यह बात जानते होंगे कि 1975 के समझौते के बाद शेख कॉन्ग्रेस के समर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। हालाँकि, उस समय राज्य विधानसभा में उनकी पार्टी का एक भी विधायक नहीं था। उस दौरान पाकिस्तान समर्थक जमात-ए-इस्लामी और जम्मू एवं कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) अब्दुल्ला के इस समझौते के विरोध में थे। बस यहीं से विद्रोह की चिंगारी उठी, जिसने भविष्य की आग में कई मासूमों का आशियाना तबाह कर डाला।

2500 गाँवों के नाम बदलकर इस्लामीकरण की नींव

1980 में अब्दुल्ला ने खुद कश्मीर का इस्लामीकरण करना शुरू कर दिया था। उनकी सरकार ने लगभग 2500 गाँवों के नाम (जो हिंदी या संस्कृत शब्दों से प्रेरित थे) बदलकर इस्लामी नामकरण की शुरुआत की थी। इसके अलावा अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार (Atish-e-Chinar) में उन्होंने कश्मीरी पंडितों को ‘मुखबिर’ के रूप में इंगित किया, जिसका अर्थ है ‘भारत सरकार के मुखबिर’।

1987 के राज्य विधानसभा चुनाव में कथित धांधली के बाद कश्मीर में भय का माहौल पैदा हो गया था, जिसने जमात-ए-इस्लामी के फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (MUF) को जन्म दिया। उन्होंने अपने इस्लामिक आंदोलनों में इस्लाम धर्म का प्रचार किया, जिसमें पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) सक्रिय रूप से शामिल हो गई। बाद में हिजबुल-मुजाहिदीन नाम के एक आतंकवादी समूह को प्रायोजित किया जाने लगा।

तभी जेकेएलएफ ने आईएसआई के समर्थन से हथियारों के साथ विद्रोह करना शुरू कर दिया। उसी समय उन्होंने कलाश्निकोव राइफल (AK-47) का इस्तेमाल करना शुरू कर किया। इसके अलावा उन्होंने कश्मीरी पंडितों के खिलाफ बड़े स्तर पर दुष्प्रचार किया और देशद्रोह का अभियान चलाया।

यह सर्वविदित है कि 14 सितंबर 1989 को बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष टिका लाल टप्पू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ-साथ और वीभत्स होता गया। टप्पू की हत्या के तीन हफ्ते बाद जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट की मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी को श्रीनगर दूरदर्शन केन्द्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुँच गया था। उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ और सिर्फ कश्मीरी पंडित ही थे। इसके चलते 19 जनवरी, 1990 को लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडितों को अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से बाहर जाने को विवश होना पड़ा।

बहरहाल, आतंकवादियों की नई पौध को भी कश्मीरी पंडित खटकते हैं। कश्मीर में अन्य जगहों के मुकाबले त्राल में आतंकियों का कहीं बड़ा गढ़ है। 31 साल पहले कश्मीरी पंडितों पर जो अत्याचार हुआ, उस समय की सरकार कट्टरपंथियों के आगे तमाशबीन बनी रही। आखिर क्यों और ​कब त​क अपने ही घरों से कश्मीरी पंडितों को भागने के लिए मजबूर होना पड़ेगा?

कश्मीर में अब कोई और कश्मीरी पंडित न मारा जाए, इसके लिए घाटी को आतंकवाद की जंजीरों से मुक्त कराना बेहद जरूरी हो गया है। मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और उसकी धारा 35 ए को समाप्त करके उससे विशेष राज्य का दर्जा छीनकर आतंकवादियों के साथ वहाँ के उग्रवादी संगठनों की कमर पहले ही तोड़ दी है। ऐसे में अब वक्त आ गया है, जब आतंकवाद को एक और ऐसी डोज दी जाए, जिससे उनकी आने वाली नई पीढ़ियाँ भी इस रास्ते पर जाने से पहले तौबा-तौबा करने लगें।(साभार)

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