कोणार्क सूर्य मंदिर : 3 – स्त्री पुरुष संयोग और स्थापत्य के कुछ पहलू
कोणार्क सूर्यमन्दिर
चेतावनी:
मन्दिर यात्रा अब उस क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है जहाँ गम्भीर और पूर्वग्रहमुक्त पाठन की माँग है। कुछ शब्द, सामग्री और चित्रादि सम्वेदनशील जन को लज्जास्पद लग सकते हैं। हालाँकि गणित, स्थापत्य, ज्यामिति, साहित्यादि के कारण इसके रोचक होते जाने की भी आशंका है 😉 स्वविवेक से निर्णय लें कि इस चेतावनी के पश्चात आप पढ़ना चाहते/ती हैं या नहीं।
गिरिजेश जी आपके द्वारा कोणार्क के सूर्य मंदिर का डिजिटल जीर्णोद्धार बहुत अच्छा लगा. अभी कुछ समय पूर्व मैं भी भुवनेश्वर गया था. वहां से कोणार्क सूर्य मंदिर, जगन्नाथ पुरी और चंद्रभागा तट पर जाने का मौका भी मिला. मेरी दृष्टि आपकी तरह तीक्ष्ण, गहरी और व्यापक तो नहीं है पर फिर भी पुरी और आस पास के मंदिरों में दो चीजों ने मेरा ध्यान खीचा.पहला तो गज का शिकार करते हुए सिंह की एक विशेष प्रतिमा के दर्शन प्रत्येक मंदिर के द्वार पर हुए. इस मूर्ति में में गज को एकदम तुच्छ निरीह प्राणी के रूप में और सिंह को पुरी भव्यता के साथ दर्शाया गया है. सिंह देवी का वाहन है और जहाँ तक मैं समझता हूँ गज भगवान विष्णो को प्रिय है. भगवान जगन्नाथ की भूमि पर इस प्रकार के सिंह द्वार बनवाने का क्या कारण रहा होगा ये बात जानने की उत्सुकता मेरे मन में तभी से है. दूसरी बात जिसने मेरा ध्यान खीचा वो सम्भोग रत युगल की मूर्ति थी जो मुझे सभी मंदिरों में दिखाई दी. कोणार्क के सूर्य मंदिर में तो खुजराहो की ही तरह की मूर्तियों की भरमार है. मेरे साथ यात्रा कर रहे मेरे एक मेवाती सहयोगी ने बार बार मुझसे पूछा की भाई पंडित जी आपके मंदिरों में इस प्रकार की मूर्तियाँ क्यों होती है. मैं उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया पर कभी ना कभी उसे जवाब देना जरुर चाहता हूँ. काश टाइम मशीन का अविष्कार हुआ होता.
जारी कोणार्क शृंखला की एक कड़ी में विचार शून्य ने मिथुन मूर्तियों से सम्बन्धित यह जिज्ञासा जताई थी:
… दूसरी बात जिसने मेरा ध्यान खीचा वो सम्भोग रत युगल की मूर्ति थी जो मुझे सभी मंदिरों में दिखाई दी. कोणार्क के सूर्य मंदिर में तो खुजराहो की ही तरह की मूर्तियों की भरमार है. मेरे साथ यात्रा कर रहे मेरे एक मेवाती सहयोगी ने बार बार मुझसे पूछा की भाई पंडित जी आपके मंदिरों में इस प्रकार की मूर्तियाँ क्यों होती है. मैं उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया पर कभी ना कभी उसे जवाब देना जरुर चाहता हूँ. काश टाइम मशीन का अविष्कार हुआ होता.
खजुराहो और कोणार्क में कामक्रीड़ा एकदम नग्न रूप में बहुलता से चित्रित हुई है तो इतर प्राचीन मन्दिरों में भी इक्का दुक्का दबे ढके रूप में। प्रश्न यह उठता है कि देवालयों में इन्हें प्रदर्शित करते का क्या औचित्य? क्या तुक?
देवालय या आराधना के स्थल रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं के बाद आते हैं। शिक्षा इन तीनों के लिये पूर्वशर्त है – शिक्षा का अर्थ बस शालीय शिक्षा से न लें। मनुष्य अपने परिवेश से सम्मिलन, संयोग और विलयन के दौरान ही किसी परा शक्ति की सम्भावना पर सोचने लगता है।
लाखों वर्षों के विकास ने उसके मस्तिष्क में इतने प्रज्ञा मोड़ सृजित कर दिये हैं कि वह बिना सोचे रह ही नहीं सकता। पेट भरा हो, वस्त्र हों, सिर पर छत हो तो आगे क्या? इनसे आगे आता है परिष्करण और विचारों के प्रथम पग पर ही यह प्रश्न आ खड़ा होता है – सृष्टि कैसे? सृष्टि का होना, इसका नैरंतर्य, जन्म, जीवन और मृत्यु की एक विधि व्यवस्था का दिखना और परा शक्ति के आभास उसे स्वयं भी कुछ अद्भुत सृजित करने के लिये तैयार करते हैं लेकिन वह सृजन कैसा हो? उसका आधार क्या हो? पुन: उसे सृष्टि दिखती है और उसके साथ ही दिखते हैं परस्पर विरोधी से दिखते पूरक तत्त्व और उनका अद्भुत आपसी रमण – दिन-रात, प्रकाश-अन्धकार, मौन-ध्वनि और इनके साथ ही सामने आते हैं सर्वसत्य युग्म : स्त्री-पुरुष जिनके संयोग से सृष्टि का उद्भव होता है, जिनके संयोग के कारण ही नैरंतर्य है और जिनमें क्रीड़ा की वही वृत्ति है जो अन्य भौतिक युग्मों में दिखती है – विपर्यय और उसे बनाये रखते हुये योग, कुछ इस तरह कि एक के बिना दूसरे का अस्तित्त्व ही न रहे। यह अद्भुत बाजीगरी ही परा शक्ति की परम अभिव्यक्ति लगती है।
स्त्री और पुरुष पदार्थ रूप में हैं लेकिन वातावरण के प्रभाव रूप भी वैसे ही हैं। यही प्रेक्षण अंतत: इस उद्घोष में अभिव्यक्त होता है – ईश्वर ने मनुष्य को निज रूप गढ़ा।
मनुष्य को लगता है कि वह उससे बिछड़ गया है और मृत्यु कुछ नहीं, उसके पास जाने का प्रस्थानबिन्दु भर है लेकिन मृत्यु होने तक वह उससे अलग क्यों रहे? परा शक्ति से जुड़ने और उसके आगे झुकने की चाह देवालयों का निर्माण करवाती है। ये निर्माता के अहंकार प्रतीक भी हो सकते हैं लेकिन मूल भाव वही रहते हैं और अभिमान की घोषणाओं में भी अनिवार्य रूप से अभिव्यक्त होते हैं।
तो अब जब मनुष्य को ईश्वर, उस परा शक्ति को गढ़ना है या उसके आगे झुकना है तो उसका रूप क्या हो? रूप को लेकर अनंत मान्यतायें और मार्ग हो सकते हैं लेकिन एक मार्ग सृजन के रूप से जुड़ता है – गर्भ में पलता पिंड धीरे धीरे बढ़ता है, निर्जीव से सजीव होता है और एक दिन जन्म भी लेता है। दिव्यता की ओर मनुष्य की यात्रा भी तो ऐसे ही होती है। यहीं मनुष्य का वह रूप सबसे श्रेष्ठ और पूजनीय हो जाता है जो जन्म के पहले और बाद में भी पोसता है – माँ।
आश्चर्य नहीं कि प्रथम उपासना प्रकृति के रूप में कल्पित आदिम माँ की हुई। सरस्वती सभ्यता (सीमित ज्ञान के कारण पहले इसे सिन्धु नदी घाटी में सीमित कर दिया जाता था) में मातृपूजा के चिह्न अनायास ही नहीं हैं। बहुधा विश्लेषण करते हम भूल जाते हैं कि पूर्वजों ने आराधना को समग्रता में लिया। माँ होने के पहले सम्भोग की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। प्राचीन सभ्यताओं में संभोग गोपनीय कृत्य तो था लेकिन आजकल 😉 की तरह अपवित्र और लज्जास्पद कर्म नहीं था। इसलिये योनि और लिंग की पूजा मिलती है और ब्रह्मांडीय सम्भोग मिलन के मिथकीय चित्रण भी।
सरस्वती सभ्यता में मातृदेवी के साथ साथ ही विराट पुरुष भी है जिसे पशुपति कहा जाता है। वस्तुत: वह पुरुष देव है। उत्थित लिंग प्रमाण है। यहीं मुद्राओं में सम्भोग की कथित मिशनरी मुद्रा अंकित मिलती है जिसमें विराट पुरुष को लेटी हुई मातृदेवी के ऊपर झुके हुये दर्शाया गया है।
प्राचीन मिस्र में नट नाम से आकाश की देवी मिलती है जो नीचे पड़ी पृथ्वी के ऊपर आच्छादित है। उसके स्तन और योनि पर हाथ लगा वायु देवता शू सँभाले हुये हैं। देवता का स्तन और योनि का स्पर्श करना पुन: ब्रह्मांडीय कामक्रीड़ा का संकेत है। सृष्टिकारक देवता सूर्य से सम्बन्धित है जिसके प्रतीक स्तम्भ और पिरामिड हैं। इस देवता को आनुपातिक रूप से बहुत बड़े उत्थित लिंग के साथ दिखाया जाता है जिसकी नोक पर आश्चर्यजनक रूप से यूरोपीय मूल और वर्तमान में प्रयुक्त स्त्री प्रतीक लगा दिखता है जो कि योनिद्वार और गर्भ का संयुक्त चित्रण है।
प्रतीक उपासना की ऐसी स्थूल विधियों से मनुष्य विरक्त हुआ और ऐसे प्रश्न पूछे जाने लगे जिनका आगे विकास दर्शन और दार्शनिक पद्धतियों में हुआ। एक सबसे पुराने प्रस्थान प्रश्न में भी उपासना के साथ गर्भ के सन्दर्भ हैं:
तम आसीत्तमसा गूळमग्रे अप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुछ्येनाभ्वपिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन हृदि परतीष्याकवयो मनीषा॥
सृजन के घटित होने का जो प्रथम रूप परिवेश में आभासित है, कवि उसी को विराटता, व्यापकता दे सृष्टि का प्रस्थान बिन्दु घोषित कर देता है।
अन्धकार ही था, अन्धकार से घिरा हुआ
जल तत्त्व था सब ओर अथाह।
जो था वह था शून्य और रूपहीन तब
महान तपरूप ऊष्मा से वह जन्मा हुआ।
तत्पश्चात उमगा कामभाव, आदि बीज आदि भाव
कवियों मनीषियों ने कर निज हृदय अनुसन्धान
अस्तित्त्व का सम्बन्ध ढूँढ़ा अनस्तित्त्व से।
गाढ़े अक्षरों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि पूरा बिम्ब गर्भ के भीतर के दृश्य से निर्मित है और ‘कामभाव’ को विराट रूप दे मनुष्य के अस्तित्त्व से ब्रह्मांड के अस्तित्त्व को जोड़ दिया गया है। कालांतर में प्रकृति के तत्त्वों में माता और पिता को ढूँढ़ लिया गया। भूमि माँ हो गई और वर्षारूप पर्जन्य पिता। अथर्वण संहिता का वह सूक्त इस लेखमाला की पहली कड़ी के प्रारम्भ में अनायास ही नहीं आ गया! J
स्त्री पुरुष के कामसम्बन्धों को समूचे संसार में मिथकों के रूप में दर्शाया गया या उन्हें दार्शनिक रूप दिये गये। उपासना स्थलों और भवनों के निर्माण भी स्त्री और पुरुष तत्त्वों और उनके आपसी सम्बन्धों को प्रदर्शित करते हुये किये गये। कारण वही था – आदिम कामभाव और जनित क्रीड़ा ब्रह्मांडीय सृजन और पराशक्ति को भी व्यक्त करते हैं इसलिये मन्दिर या स्मारक वैसे ही होने चाहिये।
यह बहुत ही वृहद विषय है। गूढ़ भारतीय तंत्रमार्ग के बजाय हम उन प्रतीकों से समझने के प्रयास करेंगे जो आधुनिक युग में भी प्रचलित हैं।
ताओ मार्ग का एक बहुत ही प्रदर्शित प्रतीक है – यिन याँग। प्रकाश और अन्धकार के परस्पर विरोधी प्रतीत होते तत्वों के आपसी सम्बन्ध, उनकी पारस्परिक निर्भरता और एक दूसरे को जन्म देते, आपसी पूर्णता देते तत्त्वों का यह प्रतीक चिह्न है। इनकी घूर्णित सममिति सनातन वैदिक ऋत की संकल्पना से जुड़ती है।
प्रकाश पुरुष है, अन्धकार स्त्री। पुरुष प्रकट है, स्त्री गोपन। पुरुष पिंड है, स्त्री प्राण। स्त्री संकल्पना है, पुरुष निर्माण। पुरुष विराट है, स्त्री सूक्ष्म। पुरुष भवन है, स्त्री साज सज्जा। … यह शृंखला अनंत है। आधुनिक वैचारिक कट्टरपंथी स्त्री के कुछ प्रतीकों पर नाक भौं सिकोड़ेंगे। उन्हें बस यही कहना है कि प्राचीन मनीषि अन्धकार को उतना ही मान देते थे जितना प्रकाश को। उनके लिये अन्धकार और प्रकाश दो आवश्यक तत्त्व भर थे जिनकी अपनी उपयोगितायें थीं। आश्चर्य नहीं कि विराट मन्दिरों के सम्मोहक स्थापत्य के बीच जो सबसे पवित्र स्थान था, वह लघु वर्ग भर होता था, जहाँ अन्धकार होता था, जहाँ देवालय के देव विराजते थे और उसे गर्भगृह कहा जाता था। मन्दिरों के स्थापत्य में स्त्री, पुरुष और उनके संयोग – इन तीनों का ध्यान रखा जाता है। यह भी ध्यातव्य है कि स्त्री पुरुष तत्त्वों के स्थूल रूप हैं स्त्री पुरुष जीवधारी और ये तत्त्व दोनों में पाये जाते हैं।
दूसरा प्रतीक है अपेक्षतया नये महायानी और वज्रयानी बौद्ध मतों में प्रयुक्त पवित्र मंत्र – ओं मणि पद्मे हूं ह्री:। संसार भर के लगभग समस्त बौद्ध मतावलम्बियों के लिये यह मंत्र पवित्र है। यह अपने आप में स्त्री, पुरुष और उनके संयोग का बीजाक्षर मंत्र है। मणि पुरुष तत्त्व है, पद्म स्त्री तत्त्व, ओं काम भाव है, हूं संयोग के समय की ध्वनि और ह्री: संयोग के पश्चात का मौन तृप्त भाव। ह्री: का उच्चारण मानसिक रूप से करने के निर्देश हैं। रक्त कमल स्त्री जननांग या गर्भ को प्रदर्शित करने के लिये भी प्रयुक्त होता है।
यह मंत्र सर्वप्रिय बोधिसत्त्व पद्मपाणि ‘अवलोकितस्वर’ का माना जाता है। संस्कृत परम्परा में यह अवलोकितेश्वर हो गये हैं यानि नीचे को देखते हुये ईश्वर। वास्तव में यह अवलोकितस्वर था यानि नीचे भूमि पर पीड़ित आर्तनाद करते जन पर करुणा दृष्टि डालते बुद्ध।
इसकी पुष्टि अवलोकितेश्वर के चीनी रूप ‘गुआनयीन’ से हो जाती है। मूलत: यह ममत्त्व और करुणा भाव स्त्री के प्रतीक थे और उन्हें इसी रूप में चित्रित किया जाता है। भारत में संस्कृत के ‘ईश्वर’ प्रभाव से यह पुरुष बोधिसत्त्व हो गये। गुआनयीन का एक रूप गोद में लिये शिशु की तरह चित्रित होता है जो कि ईसाई मत पर बौद्ध प्रभाव को भी दर्शाता है – जीसस और उनकी माँ के चित्र। उल्लेखनीय है कि ईसाई मत में मातृपूजक पुरानी पगान परम्परा की धारा भी है जिसका विस्तृत चित्रण डान ब्राउन ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास The Da Vinci Code में कुछ कल्पना और कुछ यथार्थ के सहारे किया है। Sacred feminine यानि पवित्र स्त्री भाव एक सनातन सार्वभौमिक विचारधारा रही है।
यह जानना रोचक होगा कि इस्लाम में पवित्र माने जाना वाला टूटा हुआ काला पत्थर चाँदी की योनिपीठ में जड़ा हुआ है और एक सूफी परम्परा नक़्शबन्दी ऐसी भी है जो ओं मणि पद्मे हूं का उद्भव अफगानिस्तान में मानती है और मंत्र को अपनाये हुये है।
ग्रीक और रोमन मिथक ऐसी कथाओं से भरे हुये हैं जहाँ गोपन स्त्री तत्त्व से प्रकट पुरुष भिन्न भिन्न रूपभाव ले मिलता है। ‘लेडा और हंस’ और ‘यूरोपा का हरण’’ दो ऐसे मिथक रहे हैं जिन्हें मध्यकाल में चित्रों और अन्य विधियों में उकेरा गया। इन चित्रों में स्त्री भाव और यिन यांग के नृत्य को सूक्ष्म सांकेतिक भाव से दर्शाया गया।
माइकल एंजिलो के बनाये लेडा और हंस के रमण के चित्र को देख लीजिएगा।
स्त्री लेडा की देहयष्टि में पुरुष विराटता है, साथ ही गर्भ धारण करने और पोषित करने योग्य भराव भी है। पुरुष प्रतीक हंस में स्त्रीसुलभ संकोच है। लेडा के चारो ओर जो लाल वस्त्र है, वह स्त्री जननांग को प्रदर्शित करता है और हंस की पूँछ का कालापन पुरुष जननांग को। यहाँ भी दोनो क्रमश: विराट और सूक्ष्म भाव लिये हुये हैं। लेडा का मिथक पश्चिम के आधुनिक भवनों पर भी प्रदर्शित है। नियॉन प्रकाश से बने इस प्रदर्श को देखिये और समझिये कि मिथुन मूर्तियों की मन्दिरों की दीवारों पर स्थापना से जुड़ा दैवी भाव या मिथक का सूक्ष्म सुहावन प्रतीक पूर्णत: दैहिक भड़कीलेपन में बदल गया है:
स्त्री में पुरुष तत्त्व और पुरुष में स्त्री तत्त्व का सुन्दर मूर्तिकरण अनासिनोमेरस की प्रतिमा में है।
‘यूरोपा का हरण’ मिथक पुरुष रूप साँड़ के आकर्षण में स्त्री का सुलभ लज्जा भाव तज मिलन के लिये प्रस्थान को दर्शाता है। यह चित्र वृषभ नक्षत्र पर वीनस के संक्रमण की खगोलीय घटना से जुड़ता है। ध्यान रहे कि वीनस यानि शुक्र सौन्दर्य, सृजन आदि स्त्री तत्त्वों की प्रतीक है।
आधुनिक पश्चिम ने पुरातन पगान भावों को जीवित रखा है। स्त्री पुरुष युग्म का जो पुराना देव भाव था वह आधुनिक वास्तुविद्या में किसी निर्माण के दर्शक पर समग्र प्रभाव के स्त्री या पुरुष रूप होने से जुड़ चला है।
भवनों के लिंग परखे जाने लगे हैं जो कि स्त्री, पुरुष या दोनों तत्त्वों को समाहित किये संतुलन से जुड़े उभयलिंगी भी हो सकते हैं। भद्दा निर्माण neuter माना जाता है।
इस दृष्टि से विशाल लिंगरूप एम्पायर स्टेट बिल्डिंग पुल्लिंग मानी जाती है।
आकार, अनुपात और पिंड के भार से परुषता, शक्ति और प्रभाव की विराटता दर्शाता हरबर्ट जॉनसन कला संग्रहालय भवन भी पुल्लिंग है।
रंग, रूप, आकार और संरचना की दृष्टि से स्त्री तत्त्व को समेटे है एडोब प्यूब्लो भवन। यह भूमि से हाथों द्वारा निर्मित प्रतीत होता है, शुभ्र श्वेत धूसर रंग इसे स्त्री गरिमा देता है।
स्त्री देह के उभारों और वक्राकृतियों से प्रेरणा लेते भवन या गर्भ और स्तन के आकार का प्रतीक लिये आमंत्रित करते भवन भी स्त्रीलिंग माने जाते हैं। सिडनी का ओपेरा हाउस स्त्री की विराटता और बोल्ड ऊर्जा को समेटे है तो सिंगापुर का एस्प्लांडे भवन ममत्त्व भाव को।
आधुनिक बाथरूमों की कतिपय डिजाइनें भी मध्यकालीन कला से प्रेरित हैं। इस बाथरूम की तुलना लेडा और हंस के चित्र से की जा सकती है – बस नहाने वाले होने चाहिये!
उभयलिंगी भवनों में रूप, विन्यास, रंग, आकारादि के संयोजन, प्रकटीकरण और गोपन से अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। दुर्भाग्य से इनके सबसे अच्छे उदाहरण इस्लाम के भंजक इतिहास से जुड़ते हैं।
पहला है – तुर्की का आय्सोफिया या हेगिया सोफिया। पहले यह केथेड्रल था, बाद में इस्लामी हमलावरों ने इसे मस्ज़िद में बदल दिया। चारो कोनों पर चार मिनारें बनवाई गईं। इनके पहले आदर्शित स्तन आकार के दबे गुम्बद, गर्भाकार प्रवेश और क्षैतिज प्रसार के कारण यह भवन स्त्रीलिंग श्रेणी में आता था। इनके जुड़ने से समग्र प्रभाव में उभयलिंगी हो गया। मस्ज़िद बनने से पहले इसके गर्भगृह में पुरातन वस्तुयें संग्रहीत थीं। उन्हीं की स्मृति में आधुनिक सेकुलर तुर्की ने इसे संग्रहालय में बदल दिया।
भारत का प्रसिद्ध तेजोमहालय भी उभयलिंगी श्रेणी में आता है। मकबरा बनने से पहले यह निर्माण पुल्लिंग श्रेणी में आता था जिसके तत्त्व थे – विराट योजना और चार लघु सुमेरुओं से घिरा भव्य ऊँचा शिखर। शुभ्र संगमरमर की अधिकता, गोलाकार कम ऊँचाई का मुख्य गुंबद जो कि चार लघु गम्बदों से घिरा है, वक्र रेखाओं के प्राचुर्य आदि के कारण इसके प्रभाव में स्त्री तत्त्व आया जो कि पुरुष प्रतीक चार मिनारों के तामीर किये जाने के बाद भी बना रहा। (ताजमहल को तेजोमहालय कहने पर आप को संघ या कुख्यात साहित्यकार ओक का प्रभाव लग सकता है। ऐसा नहीं है। इसे मन्दिर मानने के वास्तुगत कारण हैं। कभी यहाँ गया तो अवश्य विस्तार से लिखूँगा। आगे की शृंखला में जब वास्तुपुरुष और वास्तुमंडल पर चर्चा होगी, तब सम्भवत: आप कुछ समझ पायें।)
इस कड़ी का उद्देश्य कला, आराधना स्थल और अन्य संरचनाओं में स्त्री पुरुष तत्त्वों और उनके सम्भोग के सूक्ष्म या स्थूल चित्रण और उनमें अंतर्निहित कारणों पर थोड़ा सा प्रकाश डालना था। विषय तो बहुत ही वृहद है। खजुराहो या कोणार्क के हिन्दू मन्दिर इस दृष्टि से विशिष्ट हो जाते हैं कि सूक्ष्म और स्थूल दोनों भाव उकेरे गये हैं। लोगों के मानसिक स्तर परस्पर भिन्न होते हैं। विचारों को स्फुल्लिंग मिलें, मन्दिर ऐसे होने चाहिये। आगे तो यह कथन है ही:
जिन्ह कें रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।