मेरा जन्म सन् १९०२ में हुआ था। भाई रामप्रसाद बिस्मिल के चार साल बाद मैं पैदा हुई थी। भाई जी मुझ पर बहुत स्नेह रखते थे। मेरे पिता के खानदान में लड़कियों को होते ही मार डालते थे। मेरे मारने के लिये बाबा और दादी ने मेरी माताजी को कहा, मगर माताजी ने नहीं मारा। भाई बहुत रोते थे कि बिटिया को मत मारो। मैं तीन महीने की हो गई थी, तब दादी ने माता जी से फिर ताना मार कर कहा कि क्या लड़का है, जो इसकी इतनी हिफाजत करती है।
एक महीने बाद मैं कोसमा फिर आ गई। फिर माताजी से फुसला कर कुछ रोजगार करना चाहता हूं पिताजी से न कहना, रुपये लेकर फिर हथियार लाना शुरू कर दिया। मैं शाहजहांपुर तक पहुंचा देती थी। एक दिन अचानक पुलिस ने घर पर छापा मारा। भाई खाना खाने बैठे ही थे कि राजाराम को गिरफ्तार करके मेरे दरवाजे को जो आए, सो मैंने भागकर कहा कि पुलिस आ गई। भाई बोले कि कुण्डी बन्द करके मेरी सन्दूक में जितनी किताबें हों, सब मिट्टी का तेल डालकर जल्दी जला दो। मैं तो जाता हूं। आप छतों-छतों सड़क पर कूद गए, सीधे स्टेशन से गाड़ी में बैठकर आगरा आ गए। फिर पिनाहट पहुंच गए। वहां कौन पकड़ सकता था? पुलिसवालों ने किवाड़ तोड़ डाले। कुण्डी खोल दी। “यह क्या जला दिया?” घुड़की दी। “रामप्रसाद कहां है? जल्दी बताओ।” हम लोगों ने कहा कि पता नहीं ढूंढ़ लो। सारे सन्दूक खोल डाले। जो मिला ले गए, साइकिल उठा ले गए। पिताजी कचहरी में थे, दादी भी नहीं थीं। अकेली माताजी और लड़कियां रोती रह गईं। छोटा भाई सुशीलचन्द्र गोदी में था। हम चार बहन दो भाई थे। तीन बहनों की शादी हो गईं, एक दस बरस की मर गईं, दो बहन विवाह के बाद मर गईं, एक छोटी बहन तो जहर खाकर मर गई। भाई को फांसी का हुक्म हुआ, सुनकर उसने जहर खा लिया। उसकी शादी भाई ने एक जमींदार के साथ की थी। वह हम से छह मील की दूरी पर थी; कुचेला के मौज में। छोटा भाई बीमार हो गया, तपेदिक हो गई थी। पिता जी अस्पताल में भर्ती कर आए, डाक्टर ने कहा कि दो सौ रुपये दो, तो हम ठीक कर सकते हैं। पिताजी ने कहा कि मेरे पास अगर रुपये होते तो यहां क्यों आता? मुझे तो गवर्नमेंट ने भेंट दिया; लड़का भी गया, पैसा भी गया। अब तो बहुत दिन हो गये। गणेशशंकर विद्यार्थी पन्द्रह रुपये मासिक देते हैं, उससे गुजर करता हूं। एक हफ्ता अस्पताल में रहा, उसे खून के दस्त हुए, चौबीस घण्टे में खतम हो गया। दसवां दर्जा पास था। वह भी बोलने में अच्छा था। लोग कहते थे कि यह भी रामप्रसाद की तरह काम करेगा। अब इस समय मायके के सारे खानदान में मैं ही अकेली अभागिनी रह गई हूं। फिर भाई तो कुछ दिन कोसमा, कुछ दिन रूहर बरबाई रहे। उनके साथी बहुत पकड़े गये। मैनपुरी षड्यन्त्र केस चला। आपके साथी मैनपुरी में भी थे। जो हथियार आप लाते थे मेरे यहां रखे रहते थे। मैं इसी तरह पहुंचा देती थी। साथियों को भी लाया करते थे। फिर माता-पिता बहुत दुःखी होकर वह भी पिनाहट में रहने लगे। आप भी दो साल गायब रहे। वहां खेती भी की और वहीं आप कविता भी करते थे। आपने छह किताबें छपाई- मन की लहर, वोलशेविकों की करतूत, कैथोरायन, स्वदेशी रंग एवं दो बंगला से अनुवादित कीं। बंगला में बहुत निपुण थे। कुछ दिनों आगरे में डाक्टरी भी की। अपना नाम यहां बदल दिया था, रूपसिंह रखा था। विरोधी लोगों को नहीं ज्ञात हुआ कि यह फरार हैं, नहीं तो पकड़वा देते। वारंट में दो हजारा रुपये का इनाम था। एक दिन माता जी को क्रोध आ गया कि हम सब तेरे ही पीछे बरबाद हो गये। सो घर-बार से भी भेंट दिया, तेरे होने का क्या सुख, मुसीबत ही है। उसी समय आप चल पड़े। न कुछ कहा, खाली धोती आधी ओढ़े आधी पहने। सर्दी का मौसम था। शाहजहांपुर तीसरे दिन रात को पहुंचे। एक पैसा भी पास न था। अठारह कोस आगरा पैदल गये। रास्ते में शेर मिला। आप एक बबूल के पेड़ के साथ खड़े होकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि मेरा कोई कसूर है तो काल आ गया। ईश्वर की कृपा से शेर उलटा ही लौट गया। आप खड़े-खड़े देखते रहे कि वह फिर न लौट पड़े, मगर वह चला गया। आप कुछ देर बाद वहां से फिर चल दिये। आगरा पहुंच कर बिना टिकट छिपकर गाड़ी में बैठ गए। रात के बारह बज रहे थे। दादी ने समझा कि कोई पुलिस का आदमी है। बोलीं, ‘क्यों मुझे सताते हो?’ आपने कहा कि मैं रामप्रसाद हूं। खोल दो, मैं पिनाहट से आया हूं। दादी ने कूंडी खोली। बोले- “दादी आआग जला दो, कुछ खाने को रख हो तो दे दो, भूख के मारे दम निकल रहा है, तब बात कहूंगा।”
दादी ने कहा कि एक रोटी छीके पर रखी है, वह सूख गई होगी। बोले मुझे जल्दी दे दो, वह खाकर पानी पी लिया, तब बात निकली। कहा- माता जी नाराज हुई इससे चला आया। दादी ने कहा- तेरा तो वारण्ट जारी है। उन्होंने कहा कि मैं हाजिर हो जाऊंगा, जो कुछ ईश्वर की इच्छा होगी वह होगा। दूसरे दिन कप्तान साहब के सामने हाजिर हुए। कप्तान बोला कि आप तो खतम थे, अब जिन्दा कहाँ से आ गए। कहाँ रहे? तब जवाब दिया कि मैं आगरा रहा। क्या काम करते रहे? कहा कि कुछ दिन इलाज करते रहे। अस्पताल में डाक्टर को ऐवजी में रहे थे। डाक्टर का मेल था, वह छुट्टी पर चला गया था, कुछ दिनों कविता करते रहे, वह किताबें भी दिखाईं। कप्तान ने छह महीने को नजरानी बोल दी। इतने में आपने एक रेशम के कारखाने में 60 रुपये की नौकरी कर ली। पहली तनखा पिताजी के नाम भेज दी। लिख दिया कि माता जी मेरे अपराध को क्षमा कीजिये। यह रुपये रख लीजिये। अब मैं आपके ऋण को ही चुकता करूँगा। माता जी को बहुत दुःख हुआ कि रामप्रसाद को मेरा कहना बुरा मालूम हुआ। इसलिये नंगा-भूखा चला गया। कुछ दिनों पता नहीं दिया। माता जी बहुत दुखित रहती थीं। पत्र तथा रुपये आने पर शान्ति आई। आपने छह महीने नौकरी की। बाद को आधे के हिस्सेदार बन गये। — के साझे में कारखाना था। उस समय हम तीनों बहन मौजूद थीं। बढ़िया तीन साड़ी बनारसी कामदार बनाई। कातिक दौज को बहनों को दूंगा। बड़े बहनोई को साफा बनवाया। काफी पैसा पैदा किया, फिर मां-बाप को भी बुलवा लिया क्रान्तिकारियों का काम बराबर करते रहे। फिर दो पिस्तौल बढ़िया, दो तमंचे एवं दो बंदूकें लश्कर से ले गए। शाहजहांपुर तक मैं पहुंचा आई। दो बार मैं पहुंचा सकी। एक वकील के यहां रखीं और रकम भी उन्हीं के यहां रखते थे। घर खर्चे को ही देते थे। वकील साहब से पिता जी और उनकी पत्नी से माता जी कहते थे। उनके दो लड़के थे। वह भाई के समान थे। बहुत ही विश्वास था। कारखाने का नाम छोटे भाई सुशीलचन्द्र के नाम से रखा और सुशील माला भी छपवाई थी। भाई रामप्रसाद दयावान् भी अधिक थे। कोई गरीब भिक्षा मांगे तो पांच रुपये से लगाकर दस रुपये तक दे देते थे। किसी को जाड़े से ठिठुरता देखते, तो अपने तन से कपड़ा उतार देते थे, चाहे कितना ही कीमती क्यों न हो। एक दिन दादी नाराज हुईं कि क्या अपनी बहन का भी ख्याल है, जो गरीब है? इतनी कीमत की लोई तू क्यों फकीरों को दे आया? कोई हलके मोल का कपड़ा दे देता। लोई बहन को ही दे आता। वैसे तो हथियारों के लाने को बड़ी बिटिया है। औरों को दुशाले। अगर वह पकड़ जाए, तो जेल ही में तो सड़े। इतना पैसा भी नहीं, जो छूट सके। आप बोले कि बिटिया का मुझे बहुत खयाल है। मैं दिवाली पर जाऊंगा, तब उसका सारा कर्जा निबटा दूंगा और जो साड़ी बनी रखी हैं वह तीनों को दे आऊंगा। बड़ी बिटिया से हिसाब पूछ आया हूँ कि कुल कितना दर्जा है। 400 रुपये बताए हैं। उसे तो मैं रेशम ही पहनाऊंगा। उसने मेरे बहुत काम निकाले, हथियार लाना, उनकी हिफाजत करना, मेरे न होने से भी संभाल रखना। जब मैं शाहाजहांपुर रहती थी, तब एक चौड़ा गड्ढा था, उसमें सारे सामान रखे रहते थे। ऊपर एक तख्ता डाल दिया और मिट्टी डाल दी। 8 वें दिन सफाई, तेल लगाना, सुखाना पड़ता था। जब कहीं ले गये तो निकाल लिए, कुछ सामान बंब का भी रखते थे। एक दिन बारूद में रगड़ से जोर से आवाज हुई। आप बच गए, निकल कर भाग गए। हम लोग बहुत ही डरे, मगर मिट्टी से सब ढक दिया। एक छोटा-सा मकान अलग था। उसी में सब रहता था। उसी में उनके साथी भी छिपे रहते थे। मैं सबको खाना खिलाती थी। दूसरा कोई उस घर में नहीं जाता था। कुछ लोग आवाज सुनकर जग पड़े। बंदूकें कहां चलीं, हम लोग भी कहने लगे, देखो कहां से आवाज हुई। हम लोग तो सोते से जग पड़े। रामप्रसाद कहां है मालूम नहीं, वह तो कल से ही नहीं आया, गांव गया है, आप खडहर गांव में पहुंचे गए। पांच दिन बाद आए। थाना नजदीक था। सिपाही भी आ गए। फिर मोती चौक में एक खाली मकान था, उसमें अपना काम करने लगे। बनारसीलाल बढ़ई तथा विष्णु शर्मा, चौदह साल की जेल भुगत आ गए- काकोरी केस में। फिर रामप्रसाद सावन में मुझे लेने आए। यहां से मुझे नहीं भेजा। आप कार्तिक की कह गए कि हम आवेंगे तब तक आप कुंआर की नौदुर्गा में गिरफ्तार हो गए। नौमी का दिन था। प्रातः समय आप दातून कर रहे थे कि पुलिस ने छापा मारा। रामप्रसाद जल्दी निकले। आपने किवाड़ खोल दिये। एक पर्चा दे दिया, उसे आप पढ़ कर बोले अभी चलता हूं! माता जी से कुछ बातें करनी हैं। अच्छी यहीं जो कुछ कहना हो कह दीजिए। माता-पिता दोनों खड़े ही थे। पिताजी के पैर छूकर कहा माफी दीजिए। माता जी के पैरों पर सर रखकर बोले, “मैंने आपकी सेवा कुछ न कर पाई, माता धीरज रखना, छोटे भाई सुशीलचन्द्र को हृदय लगाया, मैं तो जाता हूं, न जाने फिर आया या न आया। देश-सेवा पर चाहे मेरा बलिदान ही क्यों न हो, मगर काम यही करूंगा। मरने से मुझे कोई डर नहीं। जेल से डर नहीं, शेर ही कटहरे में फांसे जाते हैं न कि गीदड़। सब को प्रणाम करते हुए आप हंसते हुए चल दिए। सन् 1924 में गिरफ्तार हुए। ढाई साल मुकदमा चला। सन् 25 में छोटी बहन खतम हो गई। मेरे पुत्र पैदा हुआ। आप लखनऊ ही जेल में थे, भानजे का जन्म सुनकर उत्सव मनाया। बहन की जहर खाकर आत्म-हत्या की बात सुन कर शोक भी किया। अपनी जीवनी में उन्होंने सारी बातें लिखी हैं, जो उनके हाथ की लिखी हुई है। उसमें से कुछ बात छोड़ दी हैं, हां मुख्य, मुख्य बातें आत्मकथा में है। आपके मुकदमे में जो कुछ था पिता जी ने लगा दिया, फिर पिता जी बहुत दुखित हुए। रामप्रसाद जी ने कहा कि अब तो बिलकुल ही रोटी को भी तबाह हो चुके, मैं परवश हूं। तब आपने — को पत्र लिखा कि जो कुछ पैसा मेरे हिस्से का हो यह मेरे पिता जी को देना, कुल सब कारखाने का हिसाब 20,000 रुपये का था, आधा दस हजार चाहिए, उसमें 1700 रुपये का कपड़ा कलकत्ता, 1200 रुपये का मद्रास, 1500 रुपये का लाहोर, 2000 रुपये का शाहजहांपुर में उधार बंटा हुआ था। उन्होंने लिखा कि लाहोर से जो पैसा मिले वह हमारी बहन को देना। मैंने उसको देने को कहा था, बाकी थोड़ा-थोड़ा करके मेरे पिता जी को देते रहना। मगर — ने एक पैसा नहीं किया। कारखाने का सामान उनके पकड़े जाने के बाद सब अपने घर को लदवा ले गये। मेरी माता जी ने कहा कि एक चरखा मेरी पुत्री को दे दो। वह अपने हाथ से ही कात कर कपड़ा बुनती है, उसी को पहनती है, मगर कुछ भी ध्यान न दिया। पछता कर बैठना पड़ा। फिर भी रामप्रसाद जी ने कई बार लिखा; कुछ भी न दिया, बल्कि अकड़ कर पिता जी से लड़े। फिर वकील को लिखा कि अब मैं तो जेल में हूं, मेरे जो कुछ रुपये आप के यहां है, वह मेरे पिता जी को दे दीजिए। पांच हजार जमा थे। दो हजार अभी दे देना। फिर मैं लिखूं तब देना। उन्होंने एक पाई भी न दी। कहते रहे कि दे देंगे। अब पिताजी बहुत दुखित हुए। माताजी बिलकुल दुःख से कमजोर हो गईं। गणेशशंकर जी विद्यार्थी ने कानपुर में 2000 रुपये चन्दा करके मुकदमे में सहायता की। फिर भी मेरे भाई को फांसी की सजा मिली। वकील साहब को अन्तिम पत्र में लिखा “पिताजी, माताजी आप लोगों ने मुझसे अच्छा प्यार किया। अब एक अन्तिम निवेदन है कि एक बन्दूक मेरी बहन को दे देना। बाकी छह हथियार आपके यहां रह जायेंगे। मेरे लिये आपने एक पत्र में लिखा, माताजी को दिया कि बड़ी बिटिया को दे देना और उसे धीरज बंधाती रहना। वह पत्र माताजी से कहीं किसी ने ले लिया। फिर न दिया। माताजी से मालूम होने पर मुझे बहुत ही दुःख हुआ, पिता जी की हालत दुःख से खराब हुई। तब विद्यार्थी जी 15 रुपये मासिक खर्च देने लगे। उससे कुछ गुजर चलती रही। फिर विद्यार्थी जी भी शहीद हो गये। मुझे भी बहन से ज्यादा समझते थे। समय-समय खर्चा भेजते थे। माता-पिता दादी भाई दो गाय थीं। रहने की जगह हरगोबिन्द ने एक टूटा-फूटा मकान बता दिया था। उसमें गुजर करने लगे। वर्षा में बहुत मुसीबत उठानी पड़ी। फिर पांच सौ रुपये पं० जवाहरलाल जी ने भेजे। तब माताजी ने कहा कि कुछ जगह ले लो इस तरह के दुःख से तो बचें। नई बस्ती में जमीन अस्सी वर्ग गज ले ली। एक छप्पर एक कोठरी थी। उसमें गुजर की। पिताजी भी चल बसे। माताजी बहुत दुखित हुई। एक महीने के बाद मैं भी विधवा हो गई। अब दोनों मां-बेटी दुखित थीं। मेरे पास एक पुत्र तीन साल का था, माता जी बोलीं कि मैं तो शरीर से कमजोर हूं किस तरह दूसरे की मजदूरी करूं। बिटिया अब क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि जहाँ तक मुझसे होगा, माताजी आपकी सेवा करूंगी, आप धीरज बांधो। ईश्वर की यही इच्छा थी। माताजी के पास रामप्रसादजी के बटन सोने के तीन तोले के थे। उन्होंने किसी को नहीं बताए, छिपाए रहीं, जाने कैसा समय हो, इसलिए कुछ तो पास रखना चाहिए। पिताजी के स्टाम्प खजाने में दाखिल किए, दो सौ रुपये वह मिले, फिर बटन बेच दिए। फिर मैंने ईंट-लकड़ी लगाकर एक तिवारा तथा उसके ऊपर एक अटारी बनवाई। ऊपर माताजी ने गुजर की। नीचे आठ रुपये में किराए पर उठा दिए। आठ रुपये में मैं, माताजी तथा बच्चे रहते थे बहुत ही मुसीबत से। एक समय कभी-कभी खाना प्राप्त होता था, मैंने एक डाक्टर के यहां खाना बनाने का काम छह रुपये में कर लिया। कपड़े की कमी से बहुत ही दुखित रहे। बच्चा स्याना हुआ। माताजी ने सबसे फरियाद की कि कोई इस बच्चे को पढ़ा दो। कुछ कर खाएगा। मगर शाहजहांपुर में किसी ने ध्यान नहीं दिया। मैंने अपनी मेहनत में पांचवां दर्जा पास करा दिया, फिर तो पैसे का काम था। मजबूर होकर मजदूरी से गुजर की। कोसमा में तीन बीघा खेत था, वह भी कर्जे में रखा, कभी-कभी कोसमा मैं भी रह जाती थी। बिना पैसे कौन किसका होता है? यहां के लोगों में कोई भी मुंह से नहीं बोलता था। मैं अपनी मुसीबतों को लिख नहीं सकती। बहुत ही दुःख उठाए। मेरी माताजी भी बहुत दुखित रहीं। मेरा दुःख उनको सताता था। विष्णु शर्मा चौदह साल जेल काटकर छुटकर आए तो माताजी के दर्शन को आए। माताजी जाड़े के मारे ठिठुर रही थीं। उनका दुःख देखकर चकित रह गए, पूछा आप को किसी भाई ने भी मदद नहीं दी। माताजी रोकर बोलीं कि मदद देने वाला तो परमात्मा है। आंसुओं की धारा लग गई। बोलना बड़ी देर में निकला कि मेरी पुकार ईश्वर भी नहीं सुनते, जो इस शरीर से छुटकारा दे। विष्णु शर्मा ने अपना कम्बल उतार कर उन्हें उढ़ा दिया। बोले माताजी मैं आपकी सेवा जो होगी करूंगा। फिर उन्होंने बहुत कोशिश की। स्वराज होने और माताजी की पेंशन 60 रुपये हो गई। फिर माता जी के साथ मेरी भी गुजर होने लगी। मोटा खाना-पहनना चलता रहा। पर माताजी के स्वर्गवास के बाद पेंशन बन्द हो गई और मुझ पर आफत का पहाड़ टूट पड़ा। लड़के को पढ़ाने को पैसा न हो सका। फिर मैंने मैनपुरी के नेता लोगों से भी फरियाद की कि आप लोग मेरे लड़के को पढ़ा दें, तो इसका जीवन सम्हल जाय। मगर अपने सुख के सामने गरीबों की कौन सुनता है? यह तो कोई नहीं सोचता कि कितने भाई कुर्बान हो गये, कितने जेलों में सड़े, तब आप आज एम.एल.ए. और मिनिस्टर बने बैठे हैं। जिन्होंने अपने को बलिवेदी पर चढ़ा दिया, उनके खानदान वाले भूखे मर रहे हैं, आज दिन जो मैं अनाथ दुखिता हूं। मेरे भाई रामप्रसाद जी होते तो अपने भानजे को कितना पढ़ाते। मेरी सहायता करते। स्वराज्य में आज मैं हर तरह की मुसीबत उठा रही हूं। पर मेरी बात किसी ने भी न सुनी। मगर ईश्वर की महिमा कोई नहीं जानता। मैं बहुत दुःखी फाके कर रही थी। मेरा लड़का कुसंग में फंस गया था। वह घर से निकल गया था। एक महीने तक पता न मिला। मैं और मेरी बहू दोनों अपने मन में सलाह कर रहे थे कि चलो दोनों गंगाजी में डूब जाएं, कहां तक भूखों मरें? कपड़े से नंगे, एक दिन तो है नहीं जो काट लें। इतने में किसी ने आवाज दी कि माताजी आपको कोई मिलने आया है। मैं फटी धोती पहने थी। शर्म से ढक कर उठी और बोली, भाई साहब! कैसे तकलीफ उठाई? उन्होंने कहा- चतुर्वेदी ओंकारनाथ पाण्डे मेरा नाम है। बहनजी, मैं आपके ही दर्शन को आया हूं। फिर मैंने बार-बार धन्यवाद दिया। फिर पाण्डेजी ने कहा कि मेरे पास भाई बनारसीदास चतुर्वेदी जी का पत्र आया है कि कोसमा में शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी की बहिनजी हैं। उनके यहां आप खुद जाकर देखो कि वह किस तरह गुजर करती हैं? कितनी जमीन हैं? वह सब देखकर मेरे लिये लिखे। मैंने अपना घर दिखाया कि आप भीतर जाकर देख सकते हैं कि मेरे पास तो पांच सेर दाने भी न होंगे, ज्यादा क्या कहूँ। मेरी हालत देखकर पाण्डेजी ने पांच रुपये दिये। मैंने चार रुपये की धोती ले ली, एक रुपया और खर्च में किया। उन्होंने चतुर्वेदी जी को सारा हाल लिखा, जो कुछ खुद देख गये थे। फिर चतुर्वेदीजी ने मेरे लिए पत्र लिखा कि अपना कुछ हाल लिखो। मैंने पत्र में थोड़ा-सा समाचार अपना दिया। भाई बनारसीदास चतुर्वेदीजी ने मुझ दीन की पुकार सुनी। आपने अपील निकाली, तो अनेक भाइयों को दया आ गई। सहायता भी मिलने लगी। राष्ट्रपति महोदय और श्री कृष्णकुमार बिड़ला से लगाकर छोटे-बड़े सबने मुझपर दया की। पर मैं संकोच से उसमें से पैसा न खर्च कर सकी। चतुर्वेदीजी ने लिखा कि आप संकोच न करें, यह पैसा आपका ही है। आप कपड़ा बनवा लीजिए। अन्न भी लेकर रख लीजिए। अब आप मुसीबत न उठाइये। बहुत दुःख आपने सहे। मैं आप को दुःख न होने दूंगा। फिर चतुर्वेदीजी ने बहुत कोशिश करके मेरी पेंशन चालीस रुपया करवा दी है। उनको मैं कहां तक धन्यवाद दूं। उसी से हम तीनों प्राणियों की जैसे-तैसे गुजर बसर हो रही है। (यह घटना 1960 ई० तक की है)
[स्रोत- सुधारक: गुरुकुल झज्जर का लोकप्रिय मासिक पत्र का दिसम्बर २०१८ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ, डॉ विवेक आर्य]
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