कोणार्क सूर्य मंदिर – 2 , जिहादी इस्लाम पर विजय का स्मारक

The Temple of the Sun complex at Konarak, Dedicated to the sun god Surya. India. Hindu. mid 13th century. Orissa. (Photo by Werner Forman/Universal Images Group/Getty Images)

 

… अपने जन्म के कुछ ही वर्षों के भीतर फारस सहित भारत पर ज़िहादी आक्रमण करने वाला इस्लाम 500 वर्षों से भी अधिक पुराना हो चला है किन्तु उसमें सहिष्णुता के चिह्न लेश भर नहीं हैं। भारत को दारुल इस्लाम बनाने के लिये एक ओर असि अत्याचार है तो दूसरी ओर आक्रान्ता ग़ोरी के साथ आये छ्द्म सहिष्णु सूफी मत का। पश्चिम से लेकर पूरब तक इस्लाम अपनी तेग की चमक दिखा चुका है। पश्चिमी तट का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग सोमनाथ मन्दिर अब तक दो बार ध्वस्त किया जा चुका है।

The Temple of the Sun complex at Konarak, Dedicated to the sun god Surya. India. Hindu. mid 13th century. Orissa. (Photo by Werner Forman/Universal Images Group/Getty Images)

… एक और लौटता आक्रान्ता मुहम्मद ग़ोरी अजमेर मार्ग के भव्य मन्दिर को नहीं सह पाता। आदेश देता है कि साठ घंटों के भीतर मन्दिर को मिसमार कर मस्ज़िद तामीर की जाय जहाँ मैं नमाज़ अदा कर सकूँ। भारत के भूपटल पर अपने भीतर मन्दिर की विविध सुन्दरताओं को सहेजे एक और कुरूप मस्जिद जन्म लेती है – अढ़ाई दिन का झोपड़ा। इससे उल्लसित हो कर उसके साथ आया सूफी ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती इसी समय 1192 में अजमेर पहुँच कर हिन्दुओं को मूर्ख बना धर्मांतरित करने का अभियान प्रारम्भ करता है…
… 27 हिन्दू और जैन मन्दिरों को तोड़ कर उन्हीं पत्थरों से इस्लाम की क़ुव्वत कही जाने वाली निहायत ही बेहूदी क़ुव्वत अल-इस्लाम मस्ज़िद तामीर की जा चुकी है। प्रांगण में ज्योतिष निरीक्षण के लिये उपयोग में लाया जाने वाला विष्णु स्तम्भ क़ुतुब मिनार के नाम से जाना जाने लगा है जिसकी भित्तियों पर अरबी नक्काशियाँ उकेर दी गई हैं…
इस प्रकार जाने कितने मन्दिर ध्वस्त कर दिये गये हैं। दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा क़ुतुबुद्दीन ऐबक काशी के मूल भव्य विश्वनाथ मन्दिर को ध्वस्त करा चुका है और उसके ऊपर रज़िया सुल्तान अपने मात्र चार-पाँच वर्षों के शासन काल में ही मस्ज़िद तामीर कराना नहीं भूली है – काफिरों के लिये मक्का समान पवित्र काशी की धरती पर इस्लाम का परचम! अल्ला हो अकबर!! अल्लाह सर्वश्रेष्ठ है…
ऐसे में रज़िया की मृत्यु के पश्चात बिहार का प्रशासक तुगन खान अब स्वतंत्र शासक है। इस्लामी परचम लहराने की ज़िहादी ललक नया नया राज पाये शासक में उठती है और अछूते रह गये वर्तमान बंगलादेश(पूर्वी बंगाल) यानि तब के गौड़ प्रदेश की ओर इस्लामी तलवारें उठ जाती हैं। कायर शासक लक्ष्मणसेन बिना संघर्ष ही समर्पण कर देता है और उसके पश्चात राजधानी लखनावती सहित पूरे पूर्वी बंगाल में इस्लामी लूट, हत्या, बलात्कार और बलात मतपरिवर्तन का जो भयानक अभियान चलता है, उसकी परिणति आज के पूर्वी बंगाल में इस्लामी बहुसंख्या में दिखती है।
तुगन खान अति उत्साहित है। उसकी दृष्टि प्राचीन सनातन धर्म की पवित्र उत्कृष्ट कलाओं वाली भूमि उत्कल यानि उड़ीसा पर पड़ती है जहाँ पुरी के पुरुषोत्तम का प्रभाव है, एक ओर लहराते समुद्र और दूसरी ओर हिंसक वन्य पशुओं से भरे विशाल घने वन प्रांतर के कारण यह प्रदेश अभी तक ज़िहादी इस्लाम से अछूता है – यदि मैं यहाँ अल्लाह की अजान लगवा सकूँ तो गाजी के रूप में मेरा भी वैसे ही नाम हो जाय जैसे काशी के विश्वनाथ को ध्वस्त करने और वहाँ मस्ज़िद तामीर करने पर कुतुबुद्दीन और रज़िया रानी का हुआ है!
किन्तु न तो उसे ज्ञात है, न जनसामान्य को कि मगध बिहार भले सूर्योपासक मग ब्राह्मणों की संतान चाणक्य की कूटनीति को भूल चुका हो, उत्कल की राजधानी जाजपुर से शासन करते राजा नरसिंहदेव प्रथम के महल में जो राजमाता जीवित है उसे पुरनियों की स्मृति है।
तुगन खान को नहीं ज्ञात है कि कभी कलिंग ने दिग्विजयी अशोक के दाँत खट्टे कर दिये थे! उसे नहीं पता कि कभी यहाँ के राजा खारवेल ने यवनों को धूल चाटने को बाध्य किया था!
उसे नहीं पता है कि जिस पुरी के पुरुषोत्तम को वह पददलित करना चाहता है उसमें केवल शैव मत के ज्योतिर्लिंग की शक्ति नहीं, शाक्त और वैष्णव मतों की शक्ति भी सम्मिलित है। उसके प्रांगण में त्रिशूल है, सुदर्शन है और रक्तपिपासु भवानी का खप्पर भी है। उस पुरुषोत्तम ने बौद्ध और जैन मतों की करुणा से अपने को संस्कारित कर समूची जनता को भक्त बना रखा है।
उसे नहीं पता है कि अलग विलग से रहने के कारण उड़िया जन में प्रतिरोध की शक्ति कहीं अधिक ही है…
… ईस्वी संवत 1248।
राजा नरसिंहदेव के पास तुगन खान के दुस्साहस भरे प्रस्ताव आये:
पवित्र पुरी को दीन के हाथ सौंप दो जिससे कि उसे इस्लामी केन्द्र बनाया जा सके।
सारे शस्त्रास्त्र इस्लामी आक्रमणकारियों को समर्पित करो।
पुरी के पुरुषोत्तम (वर्तमान जगन्नाथ) मन्दिर के समक्ष प्रांगण में वहाँ की समस्त जनता सामूहिक रूप से इस्लाम कुबूल करे या जजिया देना स्वीकार करे।
समर्पण के स्मारक रूप में मन्दिर को हमारे हवाले करो जिससे कि उसे ढहा कर वहाँ अल्लाह की शान में मस्ज़िद तामीर की जा सके।
अंत:पुर के मन्त्र और राजसभा की सम्मति के पश्चात राजा ने छलयुद्ध का निर्णय लिया। तुगन खान को सारे प्रस्ताव मान लेने का सन्देश दे दिया गया। राजा ने कहलाया कि वह इस्लाम की शक्ति से भयभीत है और गौड़ के राजा लक्ष्मणसेन की भाँति ही समर्पण करना चाहता है।
समर्पण हेतु दिन और समय नियत कर दिये गये। स्थान निश्चित हुआ, पुरी के जगन्नाथ मन्दिर का प्रांगण। राजा के आदेश से पुरी को श्रद्धालुओं से खाली करा उन्हें गुप्त स्थान पर भेज दिया गया। पूरे मन्दिर में सशस्त्र योद्धा छिप कर सन्नद्ध हो गये और बाहर नगर की सँकरी वीथियों में सुदृढ़ गुप्त व्यूहजाल लगा दिया गया।
बिना युद्ध के ही विजय का हर्ष मनाती इस्लामी सेना वीथियों में बिखरती हुई मन्दिर के प्रांगण में पहुँची और सहसा ही नियत समय पर मन्दिर के घंटे घड़ियाल बज उठे। यह आक्रमण का संकेत था। उड़िया योद्धा ज़िहादियों पर टूट पड़े। ज़िहादी जैसे चूहेदानी में फँस गये। पूरे दिन और रात युद्ध होता रहा जिसमें सनातनी विजयी हुये और कुछ इस्लामी ही जीवित बचे।
पहली बार इस्लामियों को उन्हीं की भाषा में उत्तर मिला था। पहली बार उनके विरुद्ध किसी हिन्दू राजा ने धर्म आधारित युद्ध के स्थान पर कूटनीति आधारित छलयुद्ध लड़ा था। अब तक छल छ्द्म से जीतते आ रहे इस्लामियों को यह पाठ सदियों तक भयभीत रखने वाला था।
प्राय: तीन सदियों के बाद काला पहाड़ पुन: दुस्साहस कर सका और उसे भी बहुत कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। परिणामत: आज भी उड़ीसा प्रांत में इस्लामी जनसंख्या अत्यल्प है।
एक ही समय के दो राजाओं की भिन्न नीतियों के इतने भिन्न परिणाम यह दर्शाते हैं कि यदि नेतृत्त्व ठीक हो तो जनता बहुत कुछ कर सकती है और किताबी मजहबों के विपरीत समस्त मानवीय मूल्यों और मत मतांतरों को समाहित किया हुआ सनातन धर्म अफीम नहीं, जनजीवन की प्राणशक्ति है। पुरी के पुरुषोत्तम का समन्वयी जगन्नाथ रूप उसका प्रमाण है। अंतिम किताब और अंतिम दूत में विश्वास करने वाले ज़िहादी जाहिल तो ऐसे समन्वय की कल्पना भी नहीं कर सकते!
राजा नरसिंहदेव ने विजय के स्मारक स्वरूप प्राचीन अर्कक्षेत्र और मग ब्राह्मणों की मित्रभूमि पर वहीं विराट सूर्यमन्दिर के निर्माण का निर्णय लिया जहाँ कभी पहली बार सकलदीपियों ने चमत्कार दिखाया था। ज्योतिर्विद्या के साधक राजा ने मन्दिर स्थान को नाम दिया – कोणार्क अर्थात शिल्प और ज्यामिती का निचोड़ सूर्य विरंचि नारायण। कोणार्क किसी अभिशाप से सम्बन्धित नहीं है, यह तो पुरखों के साहसी कल्याणमय आशीर्वाद का पुण्य स्मारक है।
राजा ने निर्माण की अनूठी योजना प्रस्तावित करने के लिये सदाशिव समन्तराय महापात्र और बीसू महराना को बुलावा भेजा जो आगे क्रमश: स्थापत्यकार सूत्रधार और प्रधान शिल्पी नियुक्त हुये।
(जारी)
(अगले अंक में कोणार्क सूर्यमन्दिर का स्थापत्य और योजना)


सन्दर्भ:
(1) History of Orissa, Vol I, R D Banerji, Prabasi Press, Calcutta
(2) http://www.indiadivine.org/content/topic/1492252-great-hindu-heroes-who-saved-india/
(3) Konark Sun Temple – The Gigantic Chariot of the Sun God, CE&CR AUGUST 2012
(4) http://asi.nic.in/asi_monu_whs_konark_intro.asp
(5) http://research.omicsgroup.org/index.php/Tughral_Tughan_Khan
(6) http://research.omicsgroup.org/index.php/Narasimhadeva_I
✍🏻सनातन कालयात्री अप्रतिरथ ऐन्द्र श्री गिरिजेश राव का यात्रावृत गतिमान है…….

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