डॉ राकेश कुमार आर्य
1674 तक छत्रपति शिवाजी महाराज अपने लिए पर्याप्त क्षेत्र को जीत चुके थे । जिसके आधार पर वह अपने आप को राजा घोषित कर सकते थे ,और अब उन्होंने इसी दिशा में सोचना आरंभ भी कर दिया था । उधर मुगल सत्ता उन्हें राजा मानने को तैयार नहीं थी। अतः उनका राज्याभिषेक न होने पाए , इस दिशा में मुगल सत्ता के लोग भी सक्रिय हो गए । वे नहीं चाहते थे कि कोई शिवाजी जैसा सामान्य सा व्यक्ति उनके बीच से उठकर आगे बढ़े और अपने आपको भारत का शासक घोषित कर दे ।
सन 1674 तक शिवाजी अधिकांश प्रांतों या क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित कर चुके थे जो उन्हें पुरंदर की संधि के अंतर्गत मुगलों को देने पड़े थे । अतः अब वह अपने आपको राजा घोषित कराने की तैयारी करने लगे थे । उधर मुगलों ने जब शिवाजी महाराज के उद्देश्यों को समझा तो उन्होंने शिवाजी को रोकने के लिए अपनी ओर से प्रयास करने आरंभ कर दिए । मुगलों ने यह घोषित करा दिया कि यदि उनके राज्य का कोई ब्राह्मण शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा तो उसका वध कर दिया जाएगा । मुगलों की ऐसी सोच शिवाजी ने अपने लिए एक चुनौती के रूप में स्वीकार की । अतः उन्होंने भी यह निश्चय कर लिया कि यदि वह अपना राज्याभिषेक कराएंगे तो किसी ऐसे ब्राह्मण से कराएंगे जो मुगलों के राज्य का निवासी हो।
शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक से पूर्व षड्यंत्रकारियों में कई प्रकार के प्रश्न उठाने का प्रयास किया । उनमें से सबसे पहला प्रश्न यह था कि शिवाजी किस वर्ण के हैं ? – कवि भूषण को उद्धृत करते हुए डॉक्टर कमल गोखले ने लिखा है कि कवि भूषण ने अपनी प्रख्यात कृति ” शिवराज भूषण ” में भोसले घराने को सिसोदिया राजपूत क्षत्रिय लिखा है। इसी प्रकार साह जी महाराज ने कर्नाटक से बीजापुर दरबार को एक पत्र में यह सम्मान पूर्वक लिखा बताते हैं — ” आम्हे तो राजपूत ” – हम तो राजपूत हैं । उनका पराक्रम , उनका शौर्य ,उनके गुण ,कर्म ,स्वभाव – सब क्षत्रिय वाले थे । वह क्षत्रिय ही थे – यह निर्विवाद है , पर राज्याभिषेक के समय यह प्रश्न उठाया गया कि उनका उपनयन यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ था । फिर उसका भी हल निकाला गया कि राज्याभिषेक से पूर्व यदि उनका यज्ञोपवीत किया जाए तो यह कठिनाई भी दूर हो जाएगी और वह छत्र सिंहासन के अधिकारी भी होंगे । यह निर्णय दिया था तत्कालीन विद्वान गागा भट्ट तथा अनंत देव भट्ट ने , जो उस धार्मिक संस्कार संस्कार के प्रमुख पुरोहित थे । इसलिए शिवाजी ने धर्म और परंपरा को मानते हुए पंडितों को चर्चा का अवसर प्रदान किया और उन्हीं की राय को स्वीकार किया। “
शिवाजी का राज्यारोहण
डॉक्टर कमल गोखले ने लिखा है — ” यह दिन शिवाजी महाराज के जीवन को ही नहीं , उनके चरित्र महाराष्ट्र तथा जनमानस के लिए भी एक अभूतपूर्व घटना थी । शिवाजी ने राज्याभिषेक से 20 वर्ष पूर्व अपने शौर्य एवं धैर्य से अपने पिताश्री द्वारा अर्जित जागीर को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित किया था । यवनों तथा विदेशों से आए पश्चिमी व्यापारियों पर शिवाजी के पराक्रम की पूरी तरह से धाक जम चुकी थी। उन्होंने गढ़ और किले जीते थे । थलसेना और नौसेना का गठन किया था । इस कार्य के पीछे शिवाजी का प्रमुख उद्देश्य था – अपनी प्रजा में विश्वास जगाना। वह अपनी प्रजा के प्रिय नेता थे । उन्हें अपने रक्षक से स्थायित्व की भावना प्राप्त हुई थी । — यद्यपि शिवाजी अपने प्रांत में सत्ताधारी थे , लेकिन जब तक वे राजा की पदवी प्राप्त नहीं कर लेते , सामान्य नागरिक ही माने जाते । वह एक नागरिक की हैसियत से प्रजा की निष्ठा एवं भक्ति पर कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते थे , और जब तक प्रमाणिक अधिकारों की पवित्रता एवं सत्यता प्राप्त नहीं कर सकते थे , तब तक वैध रूप से किसी भूमि पर अधिकार नहीं कर सकते थे। वैसे महाराष्ट्र में एक राज्य की स्थापना तो हो चुकी थी ,लेकिन वह राज्य राजाविहीन था । शिवाजी महाराज को राज्यपद की एवं अधिकार की कभी कोई अभिलाषा नहीं रही , लेकिन इन सब कठिनाइयों को देखते हुए शास्त्रोक्त रूप से राज्याभिषेक करा लेना ही एक युक्तिपूर्ण उपाय था । —– जब शिवाजी की जय जयकार और राज्याभिषेक की चर्चा हो रही थी तो मोहिते जाधव तथा निबालकर आदि सरदार घराने में शिवाजी के प्रति ईर्ष्या होने लगी । शिवाजी इन लोगों की आंखें खोलना चाहते थे कि अपनों की चाटुकारिता की अपेक्षा गर्व से रहना ही श्रेयस्कर है । शिवाजी चाहते थे कि यह सरदार घराने भी आगे आएं और देश को विदेशियों के शिकंजे से मुक्त करा कर स्वतंत्र राज्य की स्थापना में सहयोग करें ।
शिवाजी ने जिस पराक्रम का प्रदर्शन किया , जो ख्याति अर्जित की , जो राज्य अर्जित किया ,राज्याभिषेक और राजा का पद भी उसी का एक परिणाम है । जो लोग सोचते हैं कि शिवाजी ने संत महंतों को विशेष महत्व देकर धर्म की रूढिगत कल्पनाओं को नया रूप दिया तो वह यह भूल जाते हैं कि प्रबल सत्ताधारियों से विरोध करने के लिए जनता का साथ लेकर उनमें उत्तेजना भरना भी जरूरी है ,और जनता जो धर्म ,परंपरा , निष्ठा में अटूट श्रद्धा रखती है उसे उसी दृष्टि में उत्साहित किया जा सकता है । शिवाजी महाराज अभिषिक्त राजा बने । लेकिन उनका उद्देश्य व ध्येय समाज एवं देश कल्याण ही रहा। राजपद को लेकर उन्होंने समाज को कभी लूटा नहीं , जो दुखी व निरीह थे , उन्हें शिवाजी ने सांत्वना दी — स्वराज की प्रतिष्ठा पाने की। “
अपने राज्यारोहण से पूर्व शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतों को भेजा । काशी उन दिनों मुगल साम्राज्य के अधीन था ।काशी पहुंचकर शिवाजी के दूतों ने वहां के ब्राह्मणों को यह संदेश दिया कि वह शिवाजी महाराज के राजतिलक के लिए यहां से ब्राह्मणों को लेने के लिए आए हैं , तो ऐसा समाचार सुनकर काशी के ब्राह्मणों में बहुत ही प्रसन्नता व्यक्त की । जब मुग़ल सत्ताधीशों और उनके सैनिकों को इस बात का पता चला कि शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के लिए काशी से ब्राह्मण आ सकते हैं तो उन लोगों ने काशी के ब्राह्मणों पर अत्याचार करना आरंभ कर दिया । यद्यपि यह ब्राह्मण लोग अपने बौद्धिक चातुर्य से इन मुगल सैनिकों के चंगुल से बच निकलने में सफल हो गए ।
जिन ब्राह्मणों को मुगलों के सैनिकों ने बलात रोककर रखा था , वही उनकी आंखों में धूल झोंककर दो दिन पश्चात ही अचानक रायगढ़ में पहुंचने में सफल हो गए। वहां जाकर उन्होंने वह महान कार्य संपादित किया जिसे शिवाजी के राज्याभिषेक के नाम से इतिहास में जाना जाता है । इन ब्राह्मणों का वास्तव में यह बहुत ही बड़ा और सराहनीय कार्य था । जिसमें उन्होंने अपने साहस का भी परिचय दिया था।
शिवाजी ने विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अतिरिक्त विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया था । यद्यपि उनके राज्याभिषेक अर्थात 6 जून 1674 के 12 दिन पश्चात ही उनकी माता का देहांत हो गया था । यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि शिवाजी ने अपने राज्यारोहण के साथ ही हिंदवी स्वराज्य या हिंदू पद पातशाही की स्थापना की थी । माता जीजाबाई का इस प्रकार बिछुड़ना शिवाजी के लिए बहुत बड़ा आघात था। क्योंकि शिवाजी के निर्माण में माता जीजाबाई का महत्वपूर्ण योगदान रहा था । यदि माता जीजाबाई उनके जीवन में मां के रूप में ना रही होती तो निश्चय ही शिवाजी जिस रूप में हमें इतिहास में दिखाई देते हैं , उस वंदनीय स्वरूप में वह ना होते । तब बहुत संभव था कि वह एक सामान्य व्यक्ति का जीवन जीकर संसार से चले गए होते ।
माता जीजाबाई के इस प्रकार देहांत होने के पश्चात 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में उस समय लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुएथे ।
इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। शिवाजी का हिंदू स्वराज्य का उद्घोष करना यह बताता है कि वह संपूर्ण भारत को एक ईकाई के रूप में देखते थे और मराठा ,सिक्ख ,जाट, गुर्जर आदि की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर वह सारे बहुसंख्यक समाज को हिंदू नाम से अभिहित करना अधिक श्रेयस्कर और उपयुक्त समझते थे । उनके इस दृष्टिकोण को इतिहासकारों के एक वर्ग ने चाहे समझने का प्रयास न किया हो , लेकिन अन्य इतिहासलेखकों को उनके इस प्रयास को समझना ही पड़ेगा। तभी हम शिवाजी के समग्र चिंतन और समग्र व्यक्तित्व का निरूपण करने में सक्षम हो सकेंगे।
जितना ही हम शिवाजी को मराठा नाम की किसी जाति विशेष से बांधने का प्रयास करेंगे या उनको वर्तमान की सबसे मूर्खतापूर्ण अवधारणा अर्थात धर्मनिरपेक्षता के छद्मवादी सिद्धांत के साथ बांधने का प्रयास करेंगे , उतना ही हम उनके महान व्यक्तित्व के साथ न्याय करने में असफल सिद्ध होंगे । वर्तमान में धर्मनिरपेक्षता का अभिप्राय भारत विरोध से है और स्पष्ट कहें तो इस देश के बहुसंख्यक समाज की मान्यताओं , सिद्धांतों और इस राष्ट्र के प्रति निष्ठा का उपहास उड़ाना ही धर्मनिरपेक्षता मान लिया गया है। जबकि शिवाजी इस देश की मान्यताओं ,सिद्धांतों और के इसके मूल्यों के प्रति निष्ठा का एक वंदनीय उदाहरण हैं।
जिस समय शिवाजी का उत्थान हो रहा था , उसी समय हमारे देश के एक महान हिंदू राज्य वंश अर्थात विजयनगर साम्राज्य का पतन हो रहा था। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 में हरिहर और बुक्का नाम के दो हिंदू योद्धाओं ने की थी । उनका यह साम्राज्य पूरे 310 वर्ष तक चलता रहा अर्थात 1646 तक यह साम्राज्य स्थापित रहा। इतने काल में बड़े गौरव के साथ यह हिंदू राजवंश दक्षिण में शासन करता रहा । यह मात्र एक संयोग नहीं है कि जिस समय इस राज्य का पतन हो रहा था उसी समय शिवाजी का उत्थान हो रहा था । हम इसे भारत के ‘पुनरुज्जीवी पराक्रम ‘ का प्रतीक मानते हैं । जब – जब कहीं हम पतन की ओर जा रहे होते थे , तब – तब ही हम फिर से अपने पुनरुज्जीवी पराक्रम का परिचय देते हुए यह सिद्ध करने में भी सफल होते रहे कि हम जीना जानते हैं और गर्व के साथ आगे बढ़ना भी जानते हैं । यह एक अद्भुत संयोग है कि जब हमारे एक राजवंश का पतन हो रहा होता था तो उसी समय कहीं दूसरे स्थान पर हिंदू जनमानस अंगड़ाई ले रहा होता था । हिंदू राज्य वंश की अंगड़ाई का यह केंद्र इस बार विजयनगर से हटकर रायगढ़ पहुंच गया था। समझो रानी मक्खी ने अब विजयनगर से उड़कर रायगढ़ में अपना छत्ता रख लिया था । इस घटनाक्रम को इस दृष्टिकोण से देखने से पता चलता है कि हमारे भीतर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रबल भावना निरंतर बनी रही । यही वह तथ्य है और यही वह सत्य है जो यहां पर कभी विजयनगर साम्राज्य के निर्माताओं का तो कभी मराठा राज्य के निर्माताओं का निर्माण करता रहा।
विजयनगर के पतन के मात्र 28 वर्ष पश्चात ही दक्षिण भारत में एक ऐसी हिंदू शक्ति का उदय हो गया जिसने अपने नाम का सिक्का चलाने का स्तुत्य प्रयास किया । कुछ लोगों ने इसे शिवाजी के सत्ता विरोधी स्वभाव से इस प्रकार जोड़ने का प्रयास किया है कि उन्होंने तत्कालीन मुगल सत्ता के विरोध में जाकर जो कार्य किया वह उचित नहीं था , परंतु वास्तव में शिवाजी जब अपने नाम का सिक्का चला रहे थे तो वह यह डिंडिम घोष कर रहे थे कि भारत की अंतश्चेतना आज भी जीवित है और वह किसी की पराधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है । शिवाजी के नाम का सिक्का चलना उससे पहले विजयनगर के शासकों के नाम का सिक्का चलना यह बताता है कि पराभव के उस काल में भी हमारी अंतश्चेतना जीवित , जागृत ,सचेत और सतर्क रही । छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु 3 अप्रैल 1680 को हुई।
शिवाजी को इतिहास में एक जनसेवी और हृदयसम्राट शासक के रूप में जाना जाता है । द्वेषभाव रखने वाले कुछ इतिहासकारों ने चाहे उन पर जितना कीचड़ उछाला हो ,परंतु उनका यह कीचड़ उछालना शिवाजी के व्यक्तित्व को किसी भी प्रकार से क्षतिग्रस्त करने में सफल नहीं हो पाया है। शिवाजी न केवल महाराष्ट्र के लोगों के ह्रदय पर आज भी शासन करते हैं ,अपितु संपूर्ण भारतवर्ष के प्रत्येक राष्ट्रवादी व्यक्ति के हृदय में भी उनके प्रति अतीव सम्मान का भाव है । उनके प्रति श्रद्धा का यह भाव यह दर्शाता है कि देश के जनमानस में शिवाजी आज भी कितने समादरणीय , श्रद्धेय और वंदनीय महापुरुष के रूप में स्थान प्राप्त किए हुए हैं । शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है।
शिवाजी महाराज के विषय में यह भी एक रोचक तथ्य है कि उन्हें अपने बचपन में कोई विशेष शिक्षा नहीं मिल पाई थी , परंतु इसके उपरांत भी उन्होंने भारतीय राजनीति शास्त्र को समझने के लिए प्राचीन ग्रंथों का गंभीरता से अनुशीलन कर लिया था । जिनके आधार पर वह अपने राजनीति के धर्म को समझने में सफल हो गए थे । वे भारतीय इतिहास और राजनीति से सुपरिचित थे। उन्होंने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति को बड़ी गहराई से समझ लिया था और यह जान लिया था कि कब किस परिस्थिति में कौन सी कूटनीति से काम ले कर अपने लक्ष्य को साध लेना है ? – राजनीति में इसी तथ्य को समझ लेना राजनीतिशास्त्र का मर्मज्ञ हो जाना है । शिवाजी की नीतियों , व्यवहार और राजनीतिक बौद्धिक चातुर्य की जितनी भर भी कहानियां आज महाराष्ट्र में या देश के अन्य भागों में सुनने व समझने को मिलती हैं , उनको यदि देखा व समझा जाए तो पता चलता है कि उन जैसा कूटनीतिज्ञ उनके समय में अन्य दूसरा कोई शासक नहीं था ।
अपने समकालीन मुगलों की भांति वह भी निरंकुश शासक थे, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी। परंतु शिवाजी की निरंकुशता और मुगलों की निरंकुशता में आकाश पाताल का अंतर था । मुगल से स्वेच्छाचारी थे , और साथ ही साथ अत्याचारी भी थे । जबकि शिवाजी स्वयं को सदा नैतिकता और मर्यादाओं की सीमाओं में ही रखते थे । इस प्रकार उनका निरंकुश शासन जनहितकारी था ।
उनके प्रशासकीय कार्यों में सहायता के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी । जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे। जो राजा के पश्चात सबसे प्रमुख व्यक्ति होता था।
अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था । जबकि मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का ध्यान रखता था। सचिव राजकीय कार्यालयों के कार्य करते थे । जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना भी सम्मिलित था। सुमन्त उस समय का विदेशमंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक विषयों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक विषयों का प्रधान था।
मराठा राज्य को अपनी सुविधा के अनुसार शिवाजी महाराज ने चार भागों में विभक्त किया था। उसी के अनुसार वह प्रशासनिक कार्य चलाते थे ।प्रत्येक प्रांत में प्रांतपति नियुक्त किया गया था। सारी की सारी व्यवस्था शुक्राचार्य और कौटिल्य के राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर थी । जिसका हम अगले अध्याय में अलग से विस्तृत विवेचन करेंगे । प्रत्येक प्रांतपति के पास अपना उसी प्रकार का एक मंत्रिमंडल होता था , जिस प्रकार आज के प्रांतप्रति अर्थात मुख्यमंत्री के पास अपना एक मंत्रिमंडल होता है। प्रांत पति के इस मंत्रिमंडल को अष्टप्रधान समिति कहा जाता था ।कुछ प्रान्त प्रशासनिक विषयों में स्वतंत्र थे , परंतु उनको कर देना पड़ता था।
न्यायव्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी। शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्मशास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था। शिवाजी की इस प्रकार की न्याय व्यवस्था से स्पष्ट पता चलता है कि वह भारतीय परंपराओं के प्रति अति श्रद्धालु थे । वह चाहते थे कि भारत की प्राचीन राज्यव्यवस्था और न्यायव्यवस्था से ही देश को चलाया जाए । क्योंकि उसी में ऐसे सूत्र उपलब्ध थे जो व्यक्ति व्यक्ति के मध्य वास्तव में न्याय कर सकने में सक्षम और समर्थ थे । गाँव के पटेल फौजदारी वादों की जाँच करते थे। राज्य की आय का साधन भूमिकर था। पर चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था। ‘चौथ’ पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिए वसूले जाने वाला कर था। शिवाजी अपने को मराठों का सरदेशमुख कहते थे और सरदेशमुख के रूप में ही वह सरदेशमुखी कर वसूल करते थे ।
शिवाजी के समय तक मुगलों और तुर्कों के शासन को चलते लंबा समय हो चुका था । फलस्वरूप हमारी प्रशासनिक शब्दावली में उनके अरबी व फारसी के शब्द प्रविष्ट हो गए थे । जिससे राज्य व्यवस्था और न्याय व्यवस्था दोनों में ही भाषायी अस्त-व्यस्तता देखने को मिल रही थी । इस प्रकार की भाषायी अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था को दूर करने के लिए राज्याभिषेक के पश्चात शिवाजी महाराज ने अपने एक मंत्री (रामचन्द्र अमात्य) को शासकीय उपयोग में आने वाले फारसी शब्दों के लिये उपयुक्त संस्कृत शब्द निर्मित करने का कार्य सौंपा। यह कार्य बहुत ही गौरवपूर्ण था । इससे पता चलता है कि उनको अपनी भाषायी संस्कृति और संस्कृत के शब्दों के प्रति असीम लगाव था । उनका यह संस्कृति प्रेम हमें बताता है कि वह भारत की प्राचीन राज्यव्यवस्था और न्यायव्यवस्था में अटूट विश्वास रखते थे । कुछ लोगों की दृष्टि में उनका यह संस्कृति प्रेम उनकी सांप्रदायिकता हो सकती हैं , परंतु अपने गौरवपूर्ण अतीत के प्रति श्रद्धालु होना प्रत्येक देशभक्त और राष्ट्रवादी व्यक्ति का पहला कार्य होता है । शिवाजी ने यहीं से अपने शासन का शुभारंभ किया तो यह उनकी उत्कृष्ट संस्कृति प्रेमी भावना का एक शानदार उदाहरण है । शिवाजी महाराज के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए रामचन्द्र अमात्य ने धुन्धिराज नामक विद्वान की सहायता से ‘राज्यव्यवहारकोश’ नामक ग्रन्थ निर्मित किया। इस कोश में १३८० फारसी के प्रशासनिक शब्दों के तुल्य संस्कृत शब्द थे। इसमें रामचन्द्र ने लिखा है-
कृते म्लेच्छोच्छेदे भुवि निरवशेषं रविकुला-वतंसेनात्यर्थं यवनवचनैर्लुप्तसरणीम्।नृपव्याहारार्थं स तु विबुधभाषां वितनितुम्।नियुक्तोऽभूद्विद्वान्नृपवर शिवच्छत्रपतिना ॥८१॥
जब शिवाजी ने यह कार्य किया था तो उस समय की थोड़ी कल्पना करिए और सोचिए कि जिस समय मुगलों का शासन अपने चरमोत्कर्ष पर था तब शिवाजी किस कल्पना लोक में रहकर अपने भारत के सुनहरे भविष्य की नींव रखने का कार्य कर रहे थे ? – यदि इस पर हम थोड़ा सा गंभीरता से विचार करें तो जिस दिन शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ था वह भारत के समकालीन स्वाधीनता संग्राम की उस समय की बहुत बड़ी उपलब्धि थी ।मानो शिवाजी ने 6 जून 1674 को अपने राज्याभिषेक के समय हिंदू राष्ट्र की घोषणा कर दी थी और उस समय देश स्वतंत्र हो गया था।
धार्मिक नीति
शिवाजी एक समर्पित हिन्दु थे तथा वह धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में मुसलमान सैनिक भी थे। शिवाजी हिन्दू संस्कृति को बढ़ावा देते थे। पारम्परिक हिन्दूमूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था। अपने अभियानोंका आरम्भ वे प्रायः दशहरा के अवसर पर करते थे।
किसी को लगता है हिंदू खतरे में है
किसी को लगता है मुसलमान खतरे में है
धर्म का चश्मा उतार कर देखो यारों
पता चलेगा हमारा हिंदुस्तान खतरे में है।
शिवाजी का चरित्र
शिवाजी के भीतर भारतीय संस्कृति के महान संस्कार कूट-कूट कर भरे थे । वह सदैव अपने माता – पिता और गुरु के प्रति श्रद्धालु और सेवाभावी बने रहे । उन्होंने कभी भी अपनी माता की किसी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया और पिता के विरुद्ध पर्याप्त विपरीत परिस्थितियों के होने के उपरांत भी कभी विद्रोही स्वभाव का परिचय नहीं दिया । वह उनके प्रति सदैव एक कृतज्ञ पुत्र की भांति ही उपस्थित हुए । यही स्थिति उनकी अपने गुरु के प्रति थी । गुरु के प्रति भी वह अत्यंत श्रद्धालु थे । शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज की शिक्षा मिली। जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की भांति उन्होंने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को मुक्त करा लिया। इससे उनके चरित्र की उदारता का बोध हमें होता है और हमें पता चलता है कि वह हृदय से कृतज्ञ रहने वाले महान शासक थे। उस समय की राजनीति में पिता की हत्या कराकर स्वयं को शासक घोषित करना एक साधारण सी बात थी । यदि शिवाजी चारित्रिक रूप से महान नहीं होते तो वह अपने पिता की हत्या तक भी करा सकते थे , परंतु उन्होंने ऐसा कोई विकल्प नहीं चुना । शाहजी राजे के निधन के उपरांत ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया । यद्यपि वह उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे। कहने का अभिप्राय है कि उनकी अधिपति होने की यह स्थिति उनके भीतर अहंकार का भाव उत्पन्न कर सकती थी , परंतु शिवाजी सत्ता को पाकर भी मद में चूर नहीं हुए । उनके नेतृत्व को उस समय सब लोग स्वीकार करते थे । यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी। इसका कारण यह था कि वह अपने लोगों के साथ और अपने प्रशासनिक तंत्र के अधिकारियों प्रांतपतियों और अधीनस्थ राजाओं के साथ सदा न्यायपूर्ण व्यवहार करते थे और उनके अधिकारों का पूरा सम्मान करते थे। जिससे यह लोग स्वाभाविक रूप से उनके प्रति स्वामीभक्ति का प्रदर्शन करते थे । यह भी एक विचारणीय तथ्य है कि जिस समय शिवाजी शासन कर रहे थे , उस समय इस प्रकार की स्वाभाविक स्वामीभक्ति सचमुच हर किसी शासक को उपलब्ध नहीं थी । इस दृष्टिकोण से शिवाजी सचमुच एक महान शासक थे।
राजा के बारे में भारतीय राजनीतिकशास्त्री और मनीषियों का चिंतन है कि राजा दार्शनिक और दार्शनिक राजा होना चाहिए । शिवाजी यद्यपि अधिक शिक्षित नहीं थे , परंतु उन्होंने राजा के लिए इस आदर्श को अपने सम्मुख रखा और उन्होंने ऐसी हर व्यवस्था बनाने का प्रयास किया जिससे उनके निर्णयों में दार्शनिकता का पुट स्पष्ट झलकता था । शिवाजी शत्रु के प्रति दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करने की नीति में विश्वास रखते थे ,अर्थात जैसे के साथ तैसा करना वह उचित समझते थे । यहीं उस समय की राजनीति का तकाजा भी था। तुर्की व तुर्की प्रत्युत्तर देना राजनीति का धर्म होता है । हमने ‘सद्गुण विकृति ‘ के कारण कई बार अपनी उदारता का परिचय देते हुए शत्रु पर अधिक विश्वास किया और अंत में उससे हानि ही उठाई । परंतु शिवाजी ऐसा करने को कभी भी तत्पर नहीं होते थे । वह शत्रु के प्रति सदैव सावधान रहते थे और शत्रु को उसी की भाषा में प्रत्युत्तर देना अपना धर्म मानते थे। शिवाजी शत्रु को परास्त करने की नीति में विश्वास रखते थे । इसके लिए चाहे उन्हें शत्रु से सीधा युद्ध करना हो चाहे छद्म युद्ध करना हो , जिस प्रकार से भी परिस्थिति उनको अनुमति देती थी उसी के अनुसार निर्णय लेकर अपने शत्रु को परास्त करना वह अपनी प्राथमिकता में रखते थे।
” चलो फिर से आज वह नजारा याद कर लें
शहीदों के दिल थी जो ज्वाला वह याद कर लें
जिसमें बहकर आजादी पहुंची थी किनारे पर
देश भक्तों के खून की वह धारा याद कर लें। “