दिनेश चमोला ‘शैलेश’
उपदेश देना जितना सरल है, आचरण करना उतना ही कठिन है। कोई भी बात कहने व सुनने में जितनी सहज दिखाई व सुनाई देती है, वह भी व्यवहार के धरातल पर उतनी सहज नहीं होती। प्रायः बड़े-बुजुर्ग तथा तथाकथित श्रेष्ठजन को, अपने से छोटों को, यह कहते हुए सुना जाता है कि अमुक कार्य करना चाहिए व अमुक कार्य नहीं करना चाहिए; सदैव अपने खून-पसीने की कमाई में से अधिकाधिक दान देना चाहिए; त्याग व निष्काम भावना के कार्य करने चाहिए; सत्याचरण करना चाहिए; संसार व भौतिकता के प्रति अनासक्ति का भाव रखना चाहिए; सदा सच बोलना चाहिए; कड़वे वचन बोलकर किसी का हृदय नहीं दुखाना चाहिए; किसी की निंदा-चुगली नहीं करनी चाहिए; पद, प्रतिष्ठा व कृत्रिम आकर्षणों की ओर नाहक नहीं भागना चाहिए; जो कुछ ईश्वर या प्रारब्ध ने आपको दे दिया है, उसी से संतोष करना चाहिए; भली-भांति विचार मंथन कर ही वाणी का प्रयोग करना चाहिए; दूसरे का हक नहीं मारना चाहिए; किसी के साथ छल नहीं करना चाहिए; अपने से बड़ों का सम्मान करना चाहिए… आदि ऐसे उक्तिपरक उपदेशों की अनंत शृंखला है।
किंतु यदि श्रेष्ठ व गुणी संतों की बात को छोड़ दें तो व्यवहार के धरातल पर इनमें से पचीस से तीस प्रतिशत या उससे भी कम बातें उनके आचरण में मुश्किल से दिखाई देती हैं। फिर नाहक उपदेशों का भला महत्व क्या है? संत कवि तुलसीदास आचरण की कसौटी पर खरे न उतरने वाले उन उपदेशों की प्रयोजनीयता पर अपना स्पष्ट प्रश्नचिह्नित अभिमत यूं व्यक्त करते हैं :-
पर उपदेश कुशल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥
(रामचरितमानस, 6/78/2)
किसी के श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्धारण कथनी व करनी के व्यावहारिक धरातल की साम्यता पर ही निर्भर करता है। कर्मशील व्यक्ति का आचरण ही उपदेशों से कई गुणा श्रेष्ठता लिए होता है। गरजने वाले बादल कम बरसते हैं। किंतु जिन्हें बरसना होता है,उसकी तुलना में वे कम गरजते हैं। उनका चुपचाप बरसना ही उनकी कृपा, दया, औदार्य व करुणा तथा विशाल-हृदयी होने का परिचायक है। अज्ञानी शिष्य को अज्ञानता के गहन अंधकार से बाहर निकालने में वही गुरु सक्षम हो सकते हैं जो ज्ञान, कर्म, आचरण, आदर्श, चरित्र आदि में शिष्य से कई गुणा अधिक क्षमता व गुणाें के स्वामी हों। कबीरदास के शब्दों में :-
जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा, अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त॥
उपदेशक होना, गुरु होना है… और गुरु होना, ज्ञान, अनुभव, आचरण, व्यावहारिकता में श्रेष्ठतर होना है। अपने शिष्यों को पूर्ण कौशल से वही गुरु योगाभ्यास कराने में सक्षम हो सकते हैं, जिन्होंने स्वयं व्यावहारिक रूप में उन्हें किया व जिया हो। अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के उजास भरे प्रकाश की ओर ले जाने में कोई सक्षम व ज्ञानवान गुरु ही समर्थ हो सकते हैं।
आज समाज में ऐसे लोगों की संख्या बहुतायत में है, जिनकी कथनी और करनी में पर्याप्त अंतर दिखाई देता है। यह बात दीगर है कि प्रायः राजनीति से जुड़े हुए लोगों को इन सब बातों का श्रेय मढ़ा जाता है किंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। जो लोग शब्द की उपासना करते हैं, वे ही प्रायः शब्द का अपव्यय भी करते हैं। उनके लिए शब्द साधना नहीं, बल्कि इनकैशमेंट सदृश है। वह जब चाहें तब इनके प्रयोग से अपने स्वार्थों की पूर्ति कर बड़े-बड़े पद, पुरस्कार, समितियों की सदस्यता से लेकर अपने लिए कई प्रकार के हितलाभ के विकल्प ढूंढ़ सकते हैं व दूसरों को शब्द की मितव्ययता का पाठ पढ़ा सकते हैं। ऐसे आचरणहीन पाठ का भला क्या औचित्य? ऐसे तथाकथित उपदेशक जिन-जिन व्यावहारिक गुणों की अपेक्षा दूसरों से करते हैं, उन्हीं का उल्लंघन वे प्रायः अपने दैनंदिन जीवन में आए दिन करते रहते हैं।
सार रूप में, कथनी व करनी की कसौटी में खरे उतरने वाले गुरु ही असली उपदेशक हो सकते हैं तथा उन्हीं से जगत का कल्याण संभव है। कोरी उपदेशात्मकता केवल अपनी ही महत्वाकांक्षाओं, उदर व स्वार्थ-पूर्ति तो कर सकती है, लेकिन किसी भी रूप में मूल्य व आदर्श का निर्माण नहीं।
अतः आज सत्याचरण की दीक्षा देने वाले ऐसे ही उपदेशक गुरु की आवश्यकता है :-
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
अर्थात् खंडमंडलाकार स्वरूप जिस चराचर जगत, जिस सत्ता से व्याप्त है या जो ईश्वर इस चराचर जगत में सर्वत्र समाया है, उस ईश्वर के चरण कमलों के दर्शन कराने वाले श्री गुरु चरणों में मैं नमन करता हूं।
पवित्र, गुणधर्मी व तपस्वी गुरु ही सदैव वंदनीय व पूजनीय हैं।
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