कोणार्क सूर्य मंदिर की गौरवमयी कहानी
कोणार्क सूर्यमन्दिर – : अपरा इतिहास
परा इतिहास से अब हम अपरा इतिहास की ओर चलते हैं। नरसिंह से मिलते जुलते रूप में सूर्य का उकेरण मेक्सिको की एज़्टेक सभ्यता में भी मिलता है। अपनी तीखी ताप के कारण वहाँ भी सूर्य उग्र रूप में चित्रित है और उसका एक प्रकार सिंह जाति का प्राणी जगुआर है।
इन्द्रद्युम्न का अभिजान दसवीं-ग्यारहवीं सदी के राजा इन्द्ररथ से किया गया है। उड़ीसा में यह समय आदिम सूर्यपूजा, बौद्ध, जैन, शैव, शाक्त, वैष्णव आदि के समन्वय का था। इन्द्ररथ से पहले के सैलोद्भव राजाओं ने माधव आराधना को प्रसार दिया था और नियाली माधव, कंटिलो आदि की स्थापना उनके समय में हुई थी।
सैलोद्भवों के पश्चात आये शाक्त भौम शासकों ने पुरी में नीलमाधव की आराधना बाधित कर शक्ति पूजा केन्द्रों की स्थापना की। पुरी में देवी के विमला रूप की पूजा होने लगी, ककटपुर में मंगला की और भुबनेश्वर में भुवनेश्वरी की। उल्लेखनीय है कि पुरी का वर्तमान मन्दिर एक बहुत ही प्राचीन मन्दिर के ध्वंस पर बना हुआ है और उसके घेरे में शक्तिरूपा देवी का वह लघु मन्दिर भी है, ‘महाप्रसाद’ होने के लिये जहाँ जगन्नाथ का प्रसाद चढ़ाया जाना अनिवार्य है। कहते हैं कि शक्ति ने जगन्नाथ को स्थापित होने की अनुमति इसी पूर्व अभिसंधि के साथ दी थी। स्पष्ट है कि सूर्य पूजा के अतिरिक्त शक्ति पूजा भी जगन्नाथ से पहले के हैं और राजा इन्द्ररथ द्वारा दारुब्रह्म यानि लकड़ी के शाबर देव नरसिंह की पुरुषोत्तम रूप में स्थापना इसी समय के निकट हुई।
शाक्तों के समान तंत्र की एक परम्परा में नरसिंह को पुरुषोत्तम कहा गया है जो अपनी संगिनी विमला के साथ विराजते हैं। उल्लेखनीय है कि उड़िया शैव परम्परा में नरसिंह शिव को व्यक्त करते हैं। वैष्णव नरसिंह और शैव नरसिंह का यह समन्वय राजसत्ता के संरक्षण के कारण सूर्य पूजा और ब्रह्मा की परम्परा पर भारी पड़ा। भौम शासकों के समय ही तंत्र से समानता के कारण महायानी बौद्धों के त्रिरत्नों की उपासना प्रारम्भ हुई। भौम शासकों के पश्चात आये सोमवंशियों ने आराधना पद्धति को पुनर्संस्कारित किया और पुरी के वर्तमान मन्दिर का निर्माण प्रसार किया।
जिस समय गंग वंश के राजा नरसिंहदेव प्रथम ने कोणार्क में सूर्यमन्दिर का निर्माण कराया उस समय भी पुरुषोत्तम जगन्नाथ के वर्तमान रूप में नहीं आ पाये थे। इसके दो प्रमाण हैं।
सन् 1313 के आसपास के एक दान अभिलेख में पहली बार पुरी के पुरुषोत्तम के लिये ‘जगन्नाथ’ शब्द का प्रयोग हुआ है जो कि कोणार्क मन्दिर बनने के लगभग 60 वर्ष पश्चात की बात है।
दूसरा प्रमाण स्वयं कोणार्क मन्दिर की प्रतिमायें दे देती हैं। इनमें राजा नरसिंहदेव शिवलिंग, पुरुषोत्तम (कालान्तर के जगन्नाथ) और शक्तिस्वरूपा दुर्गा की उपासना करते दर्शाये गये हैं।
उल्लेखनीय है कि किसी भी प्राचीन स्रोत में बलभद्र और सुभद्रा की चर्चा पुरुषोत्तम के साथ नहीं मिलती है।
कोणार्क सूर्यमन्दिर बनने के समय तक शैव, वैष्णव और शाक्त मतों के समन्वय का एक महत्त्वपूर्ण चरण पूर्ण हो चुका था जिनके क्रमश: तीन प्रतीक भैरवरूप शिव, पुरुषोत्तम और शक्ति पुरी के गर्भगृह में बौद्धों के त्रिरत्न को चुनौती देते विराजमान थे।
ऐसे में छलयुद्ध द्वारा इस्लामी आक्रांता को परास्त कर विजय स्मारक के रूप में राजा नरसिंहदेव ने सूर्यमन्दिर की एक बहुत ही महत्त्वाकांक्षी संकल्पना की, एक तीर से कई आखेट – माँ के श्रद्धा भगवान सूर्य की उपासना को राजकीय प्रश्रय, इस्लाम को पराजित कर अपने सर्वश्रेष्ठ सनातनी शासक होने का प्रतिपादन, पुरी के पुरुषोत्तम के समांतर प्राचीन सूर्य और तंत्र पद्धतियों का समन्वय कर इतिहास में वैकल्पिक व्यवस्था के प्रदाता राजा के रूप में स्थान आदि।
तंत्र मार्ग के मिथुन प्रतीक मन्दिर की भित्तियों पर प्रचुरता और प्रमुखता से अंकित किये जाने थे जिनके लिये वास्तुशास्त्र के विधान की आड़ भी थी। राजा नरसिंहदेव के शिल्पियों ने पुरुषोत्तम से भिन्नता दर्शाने के लिये शिव और शक्ति को क्रमश: लिंग और दुर्गा रूप में उकेरा। तीनों जिस पीठ पर विराजमान दर्शाये गये हैं, वह पुरी मन्दिर के गर्भगृह की पीठ ही है।
मन्दिर का कितने योजनाबद्ध ढंग से निर्माण हुआ था, इसका प्रमाण उन ताड़पत्र अभिलेखों से मिलता है जिनमें समूचा ‘प्रोजेक्ट प्लान’ वर्णित है। सम्भवत: कोणार्क का मन्दिर भारत का एकमात्र प्राचीन मन्दिर है जिसके सभी वास्तुकारों, शिल्पियों और प्रमुख कार्मिकों के नाम तक पता हैं!
सुदृढ़ रूप से स्थापित पुरी की पुरुषोत्तम परम्परा ने इसे बहुत उदारता से नहीं स्वीकार किया। कालांतर में प्राचीन सूर्य के पुरुषोत्तम रूप के स्थान पर वैष्णव परम्परा के कृष्णरूपी जगन्नाथ, भैरव के स्थान पर उड़ीसा में लोकप्रिय देवता बलभद्र और शक्ति के स्थान पर उनकी बहन सुभद्रा स्थापित कर दिये गये। कृष्ण की किसी पत्नी या राधा के स्थान पर बहन सुभद्रा की स्थापना कर अनुज वधू की जेठ से परदा की उड़िया लोक रीति का सम्मान भी किया गया। और तो और सुदर्शन चक्र के रूप में सूर्यरथ के चक्र की स्थापना और सेवामंडल में सूर्यपूजक प्राचीन शाबर जाति का स्थान सुव्यवस्थित और सुनिश्चित कर उन्हें भी अपनी ओर मिला लिया गया।
इस्लाम विजयी राजा नरसिंहदेव, पुरी की पुरातन परम्परा के समांतर उससे भी पुरानी सूर्य शाक्त परम्परा की स्थापना की लड़ाई में पराजित हुये – एक व्यक्ति तो बस अपने जीवन भर ही ध्यान रख सकता है! परवर्ती वंशजों में उतना उत्साह नहीं था।
ऐसे में जगन्नाथ समर्थकों ने धर्मग्रंथों में ब्राह्मणपुत्री चन्द्रभागा के साथ सूर्यदेवता द्वारा किये दुर्व्यवहार और उसके कारण घटित आत्महत्या का मिथक जोड़ ब्रह्मा की तरह ही सूर्य की परिणति सुनिश्चित कर दी। इस्लामी आक्रमण के पश्चात मूलविग्रह और उपासना आचार हीन उपेक्षित कोणार्क मन्दिर के कई भागों को उखाड़ उखाड़ कर पुरी का मन्दिर समृद्ध किया जाता रहा। यह काम उन्नीसवीं सदी तक अंग्रेजों की दृष्टि पड़ने तक होता रहा। जगन्नाथ की भक्ति में लीन आम जन तो कोणार्क को भूल ही चुके थे – जिस मन्दिर में देवता ही न हों, वहाँ कैसी पूजा?
काला पहाड़ के आक्रमण के कालखण्ड में पुरी के गर्भगृह से भी विग्रह हटा कर छिपा दिये गये थे। बहुत दिनों तक वहाँ भी उपासना खण्डित रही किंतु आपदा टल जाने पर वहाँ की काष्ठ प्रतिमायें पुन: स्थापित कर दी गईं।कोणार्क में ऐसा नहीं हो पाया। अब तो वहाँ के गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा का अभिजान ही विवादास्पद है। कुछ कहते हैं कि बालू में तोप दी गई प्रतिमा वैसे ही विलुप्त हो गई जैसे कभी नीलमाधव हुये थे, कुछ कहते हैं कि पुरी के प्रांगण में स्थित इन्द्र के मन्दिर में वह प्रतिमा लगी है तो कुछ कहते हैं कि दिल्ली संग्रहालय में रखी गई यह प्रतिमा ही वह प्रतिमा है
(कोणार्क ध्वंस की दीवारों पर बाहर स्थापित सूर्य की तीन प्रतिमाओं से तुलना करें तो साम्यता तो दिखती है किंतु तुलनात्मक रूप से सौष्ठव बहुत ही हीन है और शारीरिक अनुपात भी ठीक नहीं हैं, अत: इस दृढ़कथन का सच होना सम्भव नहीं लगता।)
तेरहवीं सदी में पुरी के इस्लामी आक्रांताओं पर विजय के स्मारक स्वरूप सूर्यमन्दिर की स्थापना से लेकर सोलहवीं सदी में इस्लामी आक्रांता काला पहाड़ के उस पर आक्रमण से पूर्व गर्भगृह से विग्रह के हटाये जाने तक के बीच लगभग ढाई सौ वर्षों तक वहाँ उपासना होती रही किंतु नरसिंहदेव के पश्चात न तो राज्य संरक्षण मिला और न ही मन्दिर के रखरखाव के लिये पर्याप्त राजकीय सहायता, जब कि उसी कालखण्ड में पुरी का मन्दिर दिन दूनीरात चौगुनी की गति से समृद्ध एवं व्यवस्थित होता रहा।
यह जानना रोचक होगा कि पुरी की रथयात्रा सूर्य के उस रथयात्रा की प्रतिकृति है जिसका वर्णन वेदों से लेकर प्राचीन अभिलेखों तक में मिलता है। पाँचवी सदी के अभिलेखों में मथुरा और साम्बपुर में इस प्रथा के होने के वर्णन हैं। दक्षिण भारत में भी यह प्रथा प्रचलित थी। यह भी कि आज भी जब पुरी की मूर्तियाँ रथ पर सवार होती हैं तो उनसे पहले नरसिंह भगवान सवार होते हैं। उनके विधिवत स्तुति पूजन के पश्चात ही जगन्नाथ रथारूढ़ होते हैं। कोणार्क मन्दिर तो विशालकाय सूर्यरथ के रूप में बना ही था।
जाने कितनी ही उपासना पद्धतियों का समन्वय कर जगन्नाथ दशावतार से भी ऊपर की कोटि में गिने जाने लगे जिनसे सारे अवतार निकसते थे। अब ऐसे विराट देव के आगे ‘विरंचि नारायण’ के नाम से जाने जाने वाले कोणार्क के सूर्य देव कहाँ ठहर सकते थे!
विडम्बना ही है कि आस्था केन्द्र पुरी को बचाने के विजय अभियान का स्मारक उसी के अनुयायियों की उपेक्षा एवं तिरस्कार के कारण अंतत: खंडहर में बदल गया। धार के विरुद्ध नाव खेने में असफल होने की सम्भावनायें कुछ अधिक ही अधिक होती हैं। इतिहास, धर्म और राजनीति की वीथियाँ विचित्र भूलभुलइया हैं।
अगली कड़ी में यह बताऊँगा कि इस्लामी हमलावरों का दुस्साहस किस स्तर का था, उनकी दुर्गति कैसे की गई!
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