रवींद्र श्रीवास्तव
मेरी उंगली पकड़ के चलते थे
अब मुझे रास्ता दिखाते हैं
मुझे किस तरह से जीना है
मेरे बच्चे मुझे सिखाते हैं…
दिल्ली हाईकोर्ट ने जब ब्लैक फंगस की दवा की किल्लत के संदर्भ में कहा कि बुजुर्गों ने अपना जीवन जी लिया। युवा देश के भविष्य हैं, उन्हें प्राथमिकता से बचाया जाना चाहिए तो अनायास ही सुंदरगढ़ के राजा की कहानी याद आ गई। कहानी आपने भी जरूर सुनी होगी। सुंदरगढ़ के बुजुर्ग राजा के मन में उसके सलाहकारों ने यह बात भर दी कि उसके राज्य में बूढ़े हो चुके लोग राज्य पर बोझ बन गए हैं। ये करते-धरते तो कुछ हैं नहीं, उलटे उनके खान-पान और दवा-दारू पर जो धन खर्च होता है वह भी बेकार ही जाता है।
70 साल के सनकी राजा सुमंत देव ने एक दिन फरमान जारी कर दिया कि साठ साल से ऊपर के जो भी बुजुर्ग हैं उन्हें राज्य की सीमा से बाहर जाना होगा। कुछ संतानों की तो बांछें खिल गईं। उन्हें अपने मां-बाप वैसे भी बोझ ही लगते थे। सोचा , इनसे छुटकारा पाने का इससे अच्छा अवसर और कब मिलेगा। जिन्हें यह फरमान नागवार गुजरा वे भी क्या करते। राजाज्ञा का पालन तो करना ही था। ऐसा ही एक युवक था दुर्जन। दुर्जन अपनी नई नवेली पत्नी और बूढ़ी मां के साथ रहता था। मां से प्यार भी बहुत करता था। तीनों ने बैठकर मंत्रणा की, लेकिन कोई हल समझ नहीं आया। आखिर में मां ने ही कहा कि बेटा राजा की आज्ञा माने बिना गुजारा नहीं। तू मुझे जंगल में कहीं छोड़ दे। मैं वहीं कुटिया बनाकर बाकी जीवन काट लूंगी।
बेटा भरे मन से मां को कंधों पर बैठाकर जंगल की ओर ले चला। दोनों रो रहे थे। मां अपनी साड़ी को फाड़-फाड़कर रास्ते में उसकी चिंदियां डालती जा रही थी। बेटे ने पूछा, यह क्या कर रही हो। मां बोली- तू पहली बार घने जंगल में जा रहा है। वापसी में रास्ता न भटक जाए इसलिए ये चिंदिया डाल रही हूं। बेटा फफक पड़ा। बोला, जो होगा देखा जाएगा। तू तो वापस चल। रात के अंधेरे में दुर्जन अपनी मां को लेकर घर पहुंचा। पत्नी के साथ मिलकर घर में छोटा सा तलघर बनाकर मां को उसमें पहुंचा दिया। कुछ दिन बाद पड़ोसी राजा ने सुंदरगढ़ पर हमला बोल दिया। राजा सुमंत तो अपने भोग-विलास में मस्त था। राज-काज की तरफ उसका ध्यान ही कब था। यही हाल प्रधानमंत्री और सेनापति का था।
हमलावर राजा को राज पर कब्जा करने और सुमंत को बंदी बनाने में बिलकुल भी समय नहीं लगा। लेकिन विजयी राजा को अब विनोद सूझा। उसने दरबार लगाया और एलान किया कि अगर इस राज का कोई भी आदमी मेरे दो सवालों को हल कर देगा तो मैं जीता हुआ राज वापस करके सुमंत को भी मुक्त कर दूंगा। उसने एक छोटे मुंह वाली बोतल दिखाकर कहा कि कोई इसमें साबुत कद्दू डालकर दिखाए। सुमंत को समझ आ गया कि विजेता को मसखरी सूझ रही है। उसका बचना संभव नहीं।
रात में दुर्जन अपनी मां के साथ भोजन करने बैठा तो यह बात चल निकली। मां ने दुर्जन को कद्दू के बीज दिए और कहा कि बेटा, तू बोतल में मिट्टी के साथ यह बीज डाल दे और थोड़ा सा पानी भी डालकर बोतल को हवा और प्रकाश में रख दे। कुछ ही दिन में ये बीज फल का आकार लेने लगेंगे। बेटे ने ऐसा ही किया और अगले दिन में दरबार में हमलावर राजा से कहा कि महाराज आपके आदेश का पालन होगा लेकिन इसके लिए 15 दिन का समय देना होगा। राजा ने हंसते हुए उसे यह मोहलत दे दी। 15 दिन बाद दुर्जन बोतल लेकर दरबार में हाजिर हुआ तो बोतल में कद्दू देखकर सब चकित रह गए। हमलावर राजा भी प्रसन्न हुआ।
उसने कहा, अब एक काम और करके दिखाओ तो सुमंत को राज-पाट वापस मिल जाएगा। उसने कहा कि कल हूबहू एक जैसी दो गायें दरबार में खड़ी की जाएंगी। तुम्हें या राज्य के किसी भी नागरिक को एक ही बार में यह बताना होगा कि उनमें मां कौन है और बेटी कौन है। नहीं बता पाए तो सिर कलम कर दिया जाएगा। चिंतित दुर्जन ने घर जाकर मां को यह बात बताई। मां हंस पड़ी। बोली यह कौन सा मुश्किल काम है। कल जब दोनों गायें एक साथ खड़ी की जाएं तो उनके सामने चारा डालना। जो गाय पहले खाना शुरू कर दे वह बेटी और दूसरी उसकी मां। अगले दिन यही हुआ और सुमंत को हारा हुआ राजपाट वापस मिल गया। सुमंत ने राजगद्दी संभालते ही पहला फरमान अपने प्रधानमंत्री और सेनापति की बर्खास्तगी का जारी किया और दुर्जन को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। उसने दुर्जन से जब उसकी कुशाग्र बुद्धि का राज पूछा तो उसने जान की अमान मांगते हुए पूरा सच बयान कर दिया। सुमंत को अपनी बेवकूफी पर बेहद पछतावा हुआ। राज्य में बुजुर्गों के सम्मान के लिए कई योजनाएं शुरू हो गईं।
दोस्तों यह एक कहानी भर नहीं है। ऐसी अनेक मिसालें हैं जब हमारे बुजुर्गों ने देश या समाज पर आई मुश्किलों को अपनी सूझ-बूझ से चलता कर दिया। बागवान तो याद होगी। अमिताभ का यह सवाल बिलकुल वाजिब था कि जिन बच्चों को बुजुर्ग उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, जीना सिखाते हैं वही बच्चे अपने बुजुर्गों का हाथ पकड़ने से कतरा क्यों जाते हैं। ये कैसे दिन आ गए जिनमें अदालतें यह कहने को मजबूर हैं कि बुजुर्गों ने तो अपनी जिंदगी जी ली, युवाओं को बचाओ।
आपने वह कहानी भी सुनी होगी जिसमें एक शादी के समय संपन्न लड़की वालों ने यह शर्त रख दी थी कि खान-पान, सम्मान और दान-दहेज आला दर्जे का होगा, लेकिन बारात में एक भी बुजुर्ग नहीं आएगा। गांव के युवक तो यह सोचकर ही खुश हो गए कि बारात में कोई रोकने-टोकने वाला नहीं होगा, लेकिन गांव के बुजुर्ग समझ गए कि यह बारातियों को परेशान करने की चाल है। एक बुजुर्ग को बड़े से संदूक में छिपाकर बारात के साथ ले जाया गया। बारात गांव के बाहर नदी के तट पर पहुंची तो कन्या पक्ष के लोगों ने कहा कि इस नदी को दूध से भर दो तभी बारात आगे बढ़ेगी, नहीं तो वापस लौट जाओ। बाराती चक्कर में । यह तो ही नहीं सकता। दूल्हा चुपके से बुजुर्गवार के पास पहुंचा। बुजुर्ग ने कहा कि चिंता मत करो। कन्या पक्ष वालों से कहो कि हमारे यहां दूध में पानी मिलाने की परंपरा नहीं है। तुम नदी का पानी अलग कर दो फिर हम नदी को दूध से भर देंगे। यह शर्त सुनते ही लड़की वाले समझ गए कि बारात में जरूर कोई बुजुर्ग है। उन्होंने बुजुर्ग से क्षमा मांगी और बारात की खूब आवभगत हुई।
लगे हाथ उस युवक का जिक्र भी जरूरी है जो कार्पोरेट कल्चर की जानी-मानी मल्टीनेशनल कंपनी का सीईओ था। एक दिन पिता अपने बेटे से मिलने उसके दफ्तर पहुंचा तो उसकी शानो शौकत और रुतबा देखकर बाप का सीना फख्र से चौड़ा हो गया।
उसने बेटे के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा- बेटा, सबसे ताकतवर कौन है?
बेटे ने सहजता से जवाब दिया – मैं।
पिता को इस जवाब से ठेस तो पहुंची, लेकिन उसने कहा कुछ नहीं।
कुछ देर रुककर वह वापस जाने लगा। न जाने क्या सोचकर दरवाजे के पास से अपना सवाल फिर दोहराया- बेटा, सबसे ताकतवर कौन है?
बेटे ने पहले सी सहजता के साथ ही जवाब दिया- आप।
पिता अचकचा गया। पूछा- कुछ देर पहले तो तुमने स्वयं को सबसे शक्तिशाली बताया था?
पुत्र – तब सवाल पूछते समय आपका हाथ मेरे सिर पर था। जिसके सिर पर पिता का हाथ हो, दुनिया में उससे शक्तिशाली कोई हो ही नहीं सकता।
पिता की आंखें छलछला आईं।
तो दोस्तों, बुजुर्गों की जिंदगी तो शुरू ही साठ साल के बाद होती है। इससे पहले तो वे अपना सारा जीवन, सारा समय और सारी ऊर्जा हमारे निर्माण में खर्च कर देते हैं। अब जब हमारी बारी है तो हम यह नहीं कह सकते कि तुमने तो अपना जीवन जी लिया, अब हमें जीने दो। इतिहास ऐसे बुजुर्गों से भरा पड़ा है जिन्होंने वक्त की धारा बदल दी।
अकबर इलाहाबादी ने बिलकुल सही कहा है-
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़कर के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं
आलोक श्रीवास्तव ने तभी तो कहा है –
मुझे मालूम है मां की दुआएं साथ चलती हैं,
सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है
याद रहे दोस्तो , बुजुर्गों से हम हैं, हम से बुजुर्ग नहीं।