एलोपैथी के मुकाबले आयुर्वेद की क्यों की जाती रही है उपेक्षा
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“आयुर्वेद को हर कदम पर अग्नि परीक्षा देने के लिए कहा जाता है। लेकिन एलोपैथी को सौ गलतियाँ माफ।” ये एक तथ्य है या सिर्फ मेरे दिमाग का भ्रम, कहना मुश्किल है।
ताज़ा चीनी वायरस के मामले में,पहले हाईड्रॉक्सिक्लोरोक्विन को अचूक माना, दुनिया में भगदड़ मची उसको लेने की।फिर उसका नाम हटा लिया, शकहा कि वो प्रभावी नहीं। सैनिटाइजर को हर वक़्त जेब में रखने की सलाह के बाद उसके ज़्यादा उपयोग के खतरे भी चुपके से बता दिए गए।
फिर बारी आई प्लाज़्मा थैरेपी की। पूरा माहौल बनाया,रिसर्च रिपोर्ट्स आईं,लोग फिर उसमें जी जान से जुट गए।लेने,अरेंज और मैनेज करने और प्लाज़्मा डोनेट करने में भी। और फिर बहुत सफाई से हाथ झाड़ लिया, ये कहते हुए कि भाई ये इफेक्टिव नहीं है।
स्टेरॉयड थैरेपी, वो तो क्या कमाल थी भाई साहब! कोई और विकल्प ही नहीं था।कई अवतार मार्केट में पैदा हुए। कालाबाज़ारी हो गई,बेचारी जनता ने भाग दौड़ करते हुए,मुंहमांगे पैसे दे कर किसी तरह उनका इंतज़ाम किया।अब कहा गया कि ब्लैक फंगस तो स्टेरॉयड के मनमाने प्रयोग का नतीजा है।
रेमडेसीवीर इंजेक्शन- ये ‘जीवनरक्षक’ अलंकार के साथ मार्केट में अवतरित हुआ।इसको ले कर जो मानसिक, शारीरिक और आर्थिक फ्रंट पर युद्ध लड़े जाते उनकी महिमा मीडिया में लगभग हर दिन गायी जाती लेकिन अरबों-खरबों बेचने के बाद अब उसको भी ‘अप्रभावी’ कह कर चुपचाप साइड में बैठा दिया।
दूसरी तरफ ४०० रुपये के मासिक खर्च वाले कोरोनिल,२० रुपए के काढ़े और १० रुपए की अमृतधारा को हर दिन कठघरे में जा कर अपने सच्चे और काम की वस्तु होने का प्रमाण देना पड़ता है।
क्लीनिकल रिसर्च ही अगर आधार है तो फिर इतने यू टर्न क्यों ? टेस्ट अगर जनता पर ही करने हैं तो फिर काढ़ा, कोरोनिल या तो ऐसी जड़ी बूटी क्या बुरी है ?
जनता का फॉर्मूला शायद बहुत सीधा है: “महंगा है,अंग्रेज़ी नाम है… तो असर ज़रूर करेगा।साइड इफ़ेक्ट, वो तो हर चीज़ में होते हैं।”
आयुर्वेद: आपको अभी पी०आर० के फ्रंट पर बहुत सीखना है।अपना हिंदू तंत्र तैयार करो।नहीं तो किसी दिन संजीवनी बूटी आई तो उसको भी लोग नकार देंगे।समझे ना…?
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