राकेश सैन
यह बात ठीक है कि शताब्दी-डेढ़ शताब्दी पूर्व एलोपैथी के आने से पहले भी देश में युगों से रुग्णों का इलाज होता रहा है परन्तु आधुनिक समय में एलोपैथी के बिना चिकित्सा व्यवस्था के बारे में सोचा भी तो नहीं जा सकता।
योग गुरु बाबा रामदेव जी द्वारा एलोपैथी चिकित्सा पद्धति को लेकर की गई टिप्पणी के बाद पैदा हुआ विवाद अब आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच लड़ाई बनता दिख रहा है। चाहे बाबा जी ने बड़ा दिल दिखाते हुए एलोपैथी के चिकित्सकों से माफी मांगी और अपने शब्द वापिस ले लिए परन्तु टकराव की आंच पर स्वार्थ के मालपुए तलने वाले इसमें अलाव डालने का काम कर रहे हैं। ऐसा करते हुए वे शायद अटल बिहारी वाजपेयी जी की चेतावनी भूल जाते हैं कि ‘चिंगारी का खेल बुरा होता है।’ देश में अनावश्यक रूप से चल रहा आयुर्वेदिक व एलोपैथी के बीच का टकराव न तो स्वयं इन पद्धतियों के लिए लाभदायक है और देश के लिए भी नुक्सानदेह है। वर्तमान समय में भारत विश्व स्तर पर आयुर्वेद के साथ-साथ एलोपैथी चिकित्सा पद्धतियों का वैश्विक केन्द्र बन रहा है और ऐसे विवाद नई सम्भावनाओं के मार्ग में बाधा ही पैदा करते हैं।
एलोपैथी और आयुर्वेद के बीच श्रेष्ठता की बहस न केवल अन्तहीन बल्कि बेतुकी भी है, क्योंकि कोई भी विधा पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकती। कमजोरियां व विशेषताएं हर प्रणाली में रहती हैं, चाहे वह आयुर्वेदिक हो, एलोपैथी, युनानी, प्राकृतिक, होम्योपैथी या दुनिया की कोई और भी चिकित्सा पद्धति। आवश्यकता परस्पर कमियों को गिनाने की नहीं बल्कि इन्हें दूर करते हुए एक दूसरे की विशेषताओं का लाभ उठा कर सम्पूर्ण स्वास्थ्य का लक्ष्य प्राप्त करने की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी मानना है कि किसी एक पद्धति का अनुसरण करते हुए हम स्वास्थ्य का शत प्रतिशत लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते, इसीलिए हमें सभी चिकित्सा प्रणालियों का सहयोग लेना होगा।
यह बात ठीक है कि शताब्दी-डेढ़ शताब्दी पूर्व एलोपैथी के आने से पहले भी देश में युगों से रुग्णों का इलाज होता रहा है परन्तु आधुनिक समय में एलोपैथी के बिना चिकित्सा व्यवस्था के बारे में सोचा भी तो नहीं जा सकता। यह हमारी परम्परा रही है कि हमने सदा से नए विचारों व ज्ञान का स्वागत किया है। अपने शास्त्र भी कहते हैं कि ज्ञान का दशों दिशाएं खोल कर स्वागत करो, चाहे वह ज्ञान कहीं से भी क्यों न आया हो। इसी सिद्धान्त पर चलते हुए देश में जब नई पद्धति आई तो इसका भरपूर स्वागत हुआ और लोगों ने इसे स्वीकारा। इसी का ही परिणाम है कि आज एलोपैथी चिकित्सा पर्यटन में भारत दुनिया का केन्द्र बन रहा है। पर्यटन के बाद अब बाहर से आने वाले मरीजों की पहली पसन्द बन रहा है। भारत में तकनीकी रूप से उन्नत अस्पताल, विशेषज्ञ चिकित्सक, सस्ता उपचार और ई-मेडिकल वीजा जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं, जो इसे एशिया में सबसे तेजी से बढ़ रहे चिकित्सा पर्यटन स्थलों में से एक बनने में मदद कर रहे हैं। साल 2018 में फिक्की-आइएमएस की रिपोर्ट के अनुसार, पांच लाख से अधिक विदेशी मरीज हर साल भारत में इलाज के लिए आते हैं। मरीज ज्यादातर दिल की शल्य चिकित्सा, घुटनों का प्रत्यारोपण, कॉस्मेटिक सर्जरी और दन्त चिकित्सा के लिए आते हैं, क्योंकि एशिया में उपचार की लागत सबसे कम भारत में आती है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि दुनिया में जहां एनएचए प्रकार का मॉडल है, जैसे ब्रिटेन में, वहां इलाज के लिए मरीजों को लम्बा इन्तजार करना पड़ता है। जो लोग वहां लम्बा इन्तजार कर चुके हैं, या जिनके पास कम समय है, वह भारत का रुख कर रहे हैं। वर्तमान में वैश्विक चिकित्सा पर्यटन बाजार में भारत का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है। भारत में बड़ी संख्या में मरीज दक्षिण एशिया, अफ्रीकी देशों, पड़ोसी देशों और युरोप से आते हैं।
रही बात आयुर्वेद व योग की तो वह तो भारत की अपनी चिकित्सा पद्धति है और आज पूरी दुनिया इसको लेकर अभिभूत है। संयुक्त राष्ट्र 2015 से हर साल दुनिया भर में 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस मना रहा है। पूरी दुनिया में योग व आयुर्वेद का अरबों-खरबों का बाजार खड़ा हो चुका है। भारत का दक्षिणी हिस्सा विशेषकर केरल आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का केन्द्र बन चुका है। यहां केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के रोगी आयुर्वेदिक व प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से उपचार करवाने को आते हैं। पूरे देश में केरल ही ऐसा राज्य है जहां आयुर्वेद को पूर्ण व्यवसायिक तौर पर लिया जाता है। केन्द्र में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में आने के बाद इसको गम्भीरता से लेना शुरू कर दिया गया है। केन्द्रीय श्रम एवं रोजगार मन्त्रालय देश में इएसआई केन्द्र खोल रहा है। हैल्थ सप्लीमेण्ट के रूप में आयुर्वेदिक उत्पाद लगभग हर देश में निर्यात किए जा रहे हैं। दुनिया में जहां केरल की नर्सें छाई हुई हैं वहीं यहां का आयुर्वेद भी पैर पसार रहा है। कोरोना ने आयुर्वेद को दुनिया के ज्यादातर मुल्कों में पहुंचा कर भारतीय चिकित्सा पद्धति का डंका बजवा दिया। आज हालात यह है कि पूरी दुनिया में आयुर्वेद के चिकित्सकों से लेकर आयुर्वेदिक औषधियों और आयुर्वेद टेक्नोलॉजी की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। सरकार ने पूरी दुनिया से मिल रहे आयुर्वेद के जबरदस्त प्रतिसाद को देखते हुए इस विधा से जुड़े हुए लोगों से आगे आकर अपने व्यवसाय को आयुर्वेद के माध्यम से बढ़ाने के लिए कहा है। केन्द्रीय आयुष मन्त्रालय ने आयुर्वेदिक पद्धति को आगे बढ़ाने के लिए आगे आने वाले उद्यमियों के लिए सब्सिडी भी उपलब्ध कराने की बात कही है। भारत द्वारा खोजी गई कोरोना की दवाई और कोरोनाकाल में भारत के वैश्विक दवा बाजार के रूप में उभरने आदि की घटनाओं ने चुनौती में अवसर पैदा किया है। ऐसे में इन दो पद्धतियों के नाम पर चिकित्सक बिरादरी को यूं आमने सामने टकराव की मुद्रा में खड़ा करना न केवल खुद इनके बल्कि देश के लिए भी नुक्सानदेह होगा।
आयुर्वेद व एलोपैथी दोनों क्षेत्रों में भारत के लिए अपार सम्भावनाएं व नए अवसर पैदा हो सकते हैं। दोनों पद्धतियों के चिकित्सकों, चिकित्सा कर्मियों, उपकरणों, उपचार केन्द्रों की मांग बढऩे से रोजगार व सम्पन्नता के द्वार खुल सकते हैं। आवश्यकता है चुनौती से उपजे अवसर का समूचित लाभ उठाने की और यह लाभ केवल भारत का ही नहीं बल्कि समूची मानवता को मिलने वाला है। इसके विपरीत टकराव से हर पक्ष को नुक्सान ही नुक्सान है।
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