इतिहास में ऐसे नायक कम ही हैं, जिन्हें विनायक दामोदर सावरकर की तरह तीखे और धूर्ततापूर्ण दुष्प्रचार अभियानों का सामना करना पड़ा हो। ये वही सावरकर हैं, जिन्होंने एम.एन. रॉय, हीरेंद्रनाथ मुखर्जी और एस.ए. डांगे जैसे भारत के शुरुआती कम्युनिस्ट नेताओं समेत अनेक राजनीतिक नेताओं और राष्ट्रभक्तों को प्रेरित किया था। लेकिन, अपने पूर्ववर्तियों के उलट नए कम्युनिस्टों ने अपनी आड़ी-तिरछी इतिहास दृष्टि के साथ इस महान क्रांतिकारी की छवि को इस हद तक खराब करने की कोशिश की है कि वे स्वतंत्रता आंदोलन के ‘गद्दार’ और ‘उसे क्षति पहुंचाने वाले’ लगने लगे।
हम जानते हैं कि सावरकर के विरुद्ध मुख्य आरोप यह है कि उन्होंने अंदमान जेल में रहने के दौरान अंग्रेजी शासन से क्षमादान पाने के लिए अनेक पत्र लिखे थे। यह ऐसी बात है, जो आपातकाल के बाद के दौर में शुरू हुई थी, जब राष्ट्रवाद का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। इन स्थितियों से बौखलाए नव वामपंथियों ने सावरकर को ‘हिंदुत्व के विचार का जनक’ बताते हुए उनको निशाना बनाना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने गहराई में जाकर आज की बहु-प्रचारित ‘नई खोजें’ कीं और उनके बारे में आधारहीन बातों तथा तथ्यों एवं सामाजिक विश्वासों को उलटते हुए वैकल्पिक इतिहास गढ़ना शुरू किया।
दिलचस्प है कि एम.एन. रॉय और ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद जैसे सावरकर के समकालीन कम्युनिस्ट दिग्गज ‘हिंदुत्व’ के मुद्दे पर कठोर आलोचना के बावजूद उनका अत्यंत सम्मान करते थे। इसके विपरीत, सत्य को पीछे छोड़कर नए वामपंथी बुद्धिजीवी अपने राजनीतिक आकाओं के दिशा-निर्देशों के अनुसार जी-जान से साक्ष्य के छोटे-छोटे टुकड़ों के सहारे इतिहास का नवलेखन करने में जुटे हैं।
सावरकर की आत्मकथा तथा अनेक जीवनियों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका जीवन ऐसे बलिदानों और वीरता से भरा हुआ था, जो भारतीय कम्युनिस्टों के लिए अकल्पनीय है और उनके लिए उसके अनुकरण के बारे में बात ही व्यर्थ है। उनका अतुलनीय क्रांतिकारी जीवन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में से है।
अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में 26 मई, 1920 को प्रकाशित लेख ‘सावरकर ब्रदर्स’ (देखें, कम्प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 20; पृ. 368) में गांधी जी ने लिखा है, ”भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों की कार्रवाई के चलते कारावास काट रहे बहुत से लोगों को शाही क्षमादान का लाभ मिला है। लेकिन कुछ उल्लेखनीय ‘राजनीतिक अपराधी’ हैं, जिन्हें अभी तक नहीं छोड़ा गया है। इनमें मैं सावरकर बंधुओं को गिनता हूं। वे उन्हीं संदर्भों में ‘राजनीतिक अपराधी’ हैं, जिनमें पंजाब के बहुत से लोगों को कैद से छोड़ा जा चुका है। इस बीच क्षमादान घोषणा के पांच महीने बीत चुके हैं फिर भी इन दोनों भाइयों को स्वतंत्र नहीं किया गया है।”
राजनीतिक कैदियों के लिए निर्धारित प्रारूप में सशर्त क्षमादान की अपील करना उन दिनों एक सामान्य प्रक्रिया थी। महात्मा गांधी के लेखन से यह असंदिग्ध है कि उन्हें तत्कालीन प्रचलन के अनुसार लिखे गए सावरकर के क्षमादान पत्रों के बारे में पता था। उन दिनों अधिकांश राजनीतिक कैदी क्षमादान के लिए आवेदन करते और सम्राट से क्षमादान पाते थे, जिसे बाद में वामपंथियों ने अक्षम्य और अभूतपूर्व अपराध के रूप में प्रचारित किया था।
लेख में गांधी जी ने जी.डी. सावरकर के जीवन के बारे में संक्षेप में लिखा, ”दोनों भाइयों में बड़े, श्री गणेश दामोदर सावरकर का जन्म 1879 में हुआ था, और उन्होंने सामान्य शिक्षा प्राप्त की थी। 1908 में उन्होंने नासिक में स्वदेशी आंदोलन में प्रमुखता से हिस्सा लिया था। इसके लिए उन्हें 9 जून, 1909 को धारा 121, 121ए, 124ए और 153ए के तहत उनकी संपत्ति जब्त करने तथा काला पानी भेजे जाने की सजा दी गई थी और अब वह अंदमान में अपनी सजा काट रहे हैं। इस तरह वह 11 साल जेल में बिता चुके हैं। धारा 121 वह प्रसिद्ध धारा है जिसका संबंध राजद्रोह से है और जिसका उपयोग पंजाब से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान किया गया था। इसमें न्यूनतम सजा अपराधी की संपत्ति की जब्ती के साथ जीवनभर के लिए काला पानी भेजा जाना शामिल है। 121ए भी ऐसी ही धारा है। 124ए का संबंध देशद्रोह से है। 153ए का संबंध लिखे, बोले या अन्य प्रकार से व्यक्त शब्दों द्वारा विभिन्न वर्गों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने से है। इससे यह स्पष्ट है कि श्री गणेश सावरकर के खिलाफ लगाए गए सभी अपराध सार्वजनिक प्रकृति के थे। उन्होंने कोई हिंसा नहीं की थी। वे शादीशुदा थे, उनकी दो बेटियां थीं, जो मर चुकी हैं और लगभग 18 महीने पहले उनकी पत्नी की भी मृत्यु हो चुकी है।”
जी.डी. सावरकर के बारे में संक्षिप्त विवरण देने के बाद, महात्मा गांधी ने विनायक दामोदर सावरकर का परिचय दिया, ”दूसरे भाई का जन्म 1884 में हुआ था। उनकी ख्याति लंदन में अपने कामकाज के लिए है। पुलिस हिरासत से बचने की सनसनीखेज कोशिश में पोर्टहोल के रास्ते फ्रांसीसी तट पर जहाज से कूद जाने की घटना अभी भी लोगों के दिमाग में ताजा है। उन्होंने फर्ग्यूसन कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने के बाद लंदन में पढ़ाई पूरी की और बैरिस्टर बने। वह 1857 के सिपाही विद्रोह के इतिहास पर एक प्रतिबंधित पुस्तक के लेखक भी हैं। उनके ऊपर 1910 में मुकदमा चलाया गया था, और 24 दिसंबर, 1910 को उन्हें भी उनके भाई के समान सजा मिली। उन पर 1911 में हत्या के लिए उकसाने का आरोप भी लगाया गया था। उनके खिलाफ भी किसी तरह की हिंसा साबित नहीं हुई है। वह भी शादीशुदा हैं और 1909 में उनका एक बेटा हुआ था। उनकी पत्नी अभी जीवित है।” सावरकर के पत्रों के कथ्य का वर्णन करते हुए महात्मा गांधी कहते हैं, ”इन दोनों भाइयों ने अपने राजनीतिक विचारों की घोषणा की है और दोनों ने कहा है कि वे कोई क्रांतिकारी विचार नहीं रखते हैं और यदि वे स्वतंत्र किए जाते हैं तो वे सुधार अधिनियम (भारत सरकार अधिनियम, 1919) के तहत काम करना चाहेंगे, क्योंकि वे मानते हैं कि सुधार अधिनियम भारत के लिए राजनीतिक जि़म्मेदारी हासिल करने की दिशा में काम करने का अवसर देता है।”
गांधीजी आगे लिखते हैं, ”इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मुझे लगता है कि यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में भारत में कोई हिंसा की संस्कृति के अनुयायी नहीं रह गए हैं। ऐसे में दोनों भाइयों की स्वतंत्रता बाधित करने का एकमात्र कारण यह हो सकता है कि वे ‘सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा हों’ क्योंकि सम्राट ने वायसराय को जिम्मेदारी दी है कि उनकी निगाह में जिन राजनीतिक कैदियों से सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा न हो, उनके मामले में सभी प्रकार से शाही क्षमादान की कार्रवाई की जाए।”
”इसलिए मेरी राय है कि जब तक कि इस बात का कोई पुख्ता सबूत न हो कि पहले ही लंबा कारावास भुगत चुके और शारीरिक रूप से अशक्त हो चुके तथा अपनी राजनीतिक विचारधारा घोषित कर चुके दोनों भाई राज्य के लिए कोई खतरा साबित हो सकते हैं, तब तक वायसराय उन्हें स्वतंत्र करने के लिए बाध्य हैं। वायसराय की राजनीतिक क्षमता में सार्वजनिक सुरक्षा की शर्त पूरी करने पर उन्हें मुक्त करने की बाध्यता ठीक वैसे ही है, जैसे कि न्यायिक क्षमता में न्यायाधीशों द्वारा दोनों भाइयों को कानून के तहत न्यूनतम सजा देनी अनिवार्य थी।” उन्होंने आगे यह तर्क भी दिया कि अगर उन्हें किसी भी कारण से कैद में रखा जाना है, तो इसका औचित्य स्थापित करने वाला पूरा बयान जनता के सामने रखा जाना चाहिए।
गांधी जी ने अपने लेख में आगे लिखा, ”यह मामला पंजाब सरकार के प्रयासों से लंबे कारावास के बाद मुक्त हुए भाई परमानंद के मामले की तुलना में न बेहतर है और न ही बुरा। न ही उनके मामले को सावरकर बंधुओं से इस मायने में अलग देखा जाना चाहिए कि भाई परमानंद ने पूरी तरह से निर्दोषिता का तर्क दिया था। जहां तक सरकार का सवाल है, उसके लिए सभी एक जैसे दोषी हैं क्योंकि सभी को सजा सुनाई गई थी। और, शाही क्षमादान केवल संदिग्ध मामलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन सभी मामलों में लागू है जिनमें अपराध पूरी तरह से सिद्ध हुए हैं। क्षमादान लागू करने की स्थितियां यह हैं कि अपराध राजनीतिक होना चाहिए और वायसराय की दृष्टि में क्षमादान पाने वाले व्यक्ति से सार्वजनिक सुरक्षा को कोई खतरा नहीं होना चाहिए। दोनों भाइयों के राजनीतिक अपराधी होने के बारे में कोई सवाल ही नहीं है। और अभी तक जनता जानती है कि वे सार्वजनिक सुरक्षा के लिए कोई खतरा नहीं हैं। ऐसे मामलों के संबंध में वाइसरीगल काउंसिल में एक सवाल के जवाब में कहा गया था कि वे विचाराधीन थे। लेकिन उनके भाई को बॉम्बे सरकार से इस आशय का जवाब मिला है कि उनके संबंध में कोई और स्मरण-पत्र स्वीकार नहीं किए जाएंगे तथा श्री मोंटेगू ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा है कि भारत सरकार की राय में उन्हें मुक्त नहीं किया जा सकता। हालांकि, इस मामले को इतनी आसानी से दबाया नहीं जा सकता। जनता को उन सटीक आधारों को जानने का अधिकार है, जिनके आधार पर शाही उद्घोषणा के बावजूद दोनों भाइयों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा रही है, जबकि यह उनके लिए वैसी ही है जैसे शाही घोषणा में निहित कानूनी शक्ति।”
– जे. नंदकुमार (28 मई 2021) के लेख का एक अंश