अपने देश में किसी और क्षेत्र में काम तेजी से हों या न हों, राजनीति के क्षेत्र में बहुत तेजी से होते हैं। इसी परंपरा की रक्षा के उद्देश्य से केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप में प्रस्तावित प्रशासनिक सुधारों पर राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हुई। इस बात पर भी किसी को आश्चर्य नहीं कि यह राजनीति मात्र लक्षद्वीप तक सीमित नहीं रही। वह उसके बाहर भी दिखाई दे रही है। दिल्ली से लेकर चेन्नई और कोच्चि से लेकर मैसूर तक, अचानक लोग व्यस्त दिखाई दे रहे हैं।प्रस्तावित प्रशासनिक सुधारों की व्याख्या राजनीतिक विपक्ष और तथाकथित रूप से उसके अराजनीतिक सहयोगियों की विरोध नीति के अनुसार की जा रही है। सुधारों के विरोध में दिए जा रहे तर्क संस्कृति से लेकर धर्म और कला से लेकर व्यापार तक सब कुछ समेटे हुए हैं।
भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से लक्षद्वीप एक आम राज्य नहीं है। यही कारण है कि वह केंद्र शासित प्रदेश है। देश की सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी उसका एक अलग महत्व है। प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए निर्णय करने का संवैधानिक अधिकार केंद्र सरकार के पास है। ऐसे में केंद्र द्वारा नियुक्त प्रशासक यदि प्रशासनिक सुधारों को लेकर नए नियम लागू करना चाहते हैं तो उसके पीछे कारण होंगे। ये नियम दो दिन में नहीं बनाए गए होंगे। कोई नहीं कह सकता कि अचानक एक दिन केंद्र नींद से जागा होगा और दोपहर तक नियम तय कर लिए गए होंगे।
प्रशासनिक सुधारों को लागू करने का सरकार का तरीका संवैधानिक होता है। प्रस्तावों पर बहस होती है। उनके हर पहलू पर विचार होता है। प्रस्तावित विचार और बहस का एक पूरा पेपर ट्रेल होता है और तब जाकर सुधारों को लागू करने के लिए आगे बढ़ाया जाता है। ऐसे में इस तर्क के लिए स्थान नहीं है कि ये सुधार किसी विचारधारा या किसी गुप्त उद्देश्यों को साधने के लिए किए जा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि प्रस्तावित सुधारों का विरोध करने वाले उन्हें लागू करने की सरकारी प्रक्रिया से अनभिज्ञ है। उन्हें पता है कि केंद्र या राज्य सरकारें जब किसी सुधार को लागू करना चाहती है तो क्या प्रक्रिया अपनाती हैं पर पिछले सात वर्षों में विपक्ष अपने ही इस राजनीतिक दर्शन से निकल नहीं पा रहा है कि केंद्र सरकार जो भी कहेगी, करेगी, करना चाहेगी, विपक्ष को उसे जनता के विरुद्ध उठाया गया कदम ही साबित करना है। इस कोशिश में विपक्ष को यह परवाह नहीं करना है कि उसे तर्क देना पड़ेगा या कुतर्क। उसे तो बस यह कहना है कि नरेंद्र मोदी या अमित शाह जो भी कदम उठाएँगे वे हमेशा संस्कृति, इतिहास, भूगोल, जनता और देश के विरुद्ध होंगे।
लक्षद्वीप के कुल छत्तीस द्वीपों में से केवल दस द्वीप आबाद हैं। जो आबाद हैं यदि वहाँ के लिए सरकार सुधार लाना चाहती है तो क्या समस्या है? सुधार कहाँ नहीं होते? कोई प्रदेश यदि देश का हिस्सा है तो सरकार समय और आवश्यकता के अनुसार उसमें प्रशासनिक सुधार लाएगी। इसमें कौन सा तर्क है कि आप मेरे प्रदेश में सुधार नहीं ला सकते क्योंकि हम नहीं चाहते? सुधारों की बात करें उनमें एक प्रस्ताव है पंचायत चुनाव लड़ने वालों के लिए दो बच्चों का अभिभावक होना अनिवार्य होगा। इसका विरोध किस आधार पर हो रहा है? प्रश्न यह है कि ऐसा प्रस्ताव क्या देश में पहली बार आया है?
प्रश्न यह भी है कि ऐसे नियम देश के अन्य राज्यों में हैं? यदि इसका जवाब हाँ है तो फिर ये नियम लक्षद्वीप में क्यों लागू नहीं किया जा सकता? एक प्रस्ताव है कि बिना लाइसेंस के बीफ का उत्पादन नहीं किया जा सकेगा। इसमें किसी को क्या आपत्ति है? यदि बीफ के उत्पादन को उद्योग का दर्जा दिया जाता है तो प्रश्न यह है कि देश के किस राज्य में उद्योग को लेकर नियम नहीं बने हैं? क्या केवल यह तर्क पर्याप्त है कि मजहबी कारणों से चूँकि बीफ वहाँ का भोजन है, इसलिए ऐसा नियम नहीं लाया जा सकता? इसलिए इस पर प्रतिबन्ध न लगे कि कोई भी कहीं भी बीफ का उत्पादन कर सकता है।
कानून-व्यवस्था की समस्या से निपटने के लिए यदि प्रशासनिक सुधार किए जाने का प्रस्ताव है तो उसे लेकर आपत्ति क्यों? कानून-व्यवस्था किस सरकार की प्राथमिकता नहीं होती? ऐसे प्रस्ताव का विरोध क्या केवल यह कह कर किया जा सकता है कि हमारे यहाँ के लोग शांतिप्रिय हैं, इसलिए ऐसे सुधार की आवश्यकता नहीं है? हाल की रपटों की मानें तो द्वीप पर ड्रग्स और हथियार बरामद हुए थे। यदि द्वीपों पर सभी शांतिप्रिय ही हैं तो ये ड्रग्स और हथियार शांति के हितार्थ लाए गए होंगे?
विरोध इस बात का भी हो रहा है कि रिसॉर्ट में शराब की बिक्री का प्रस्ताव वापस लिया जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ निषेध है। प्रश्न है है कि जहाँ शराब निषेध है, वहाँ चोरी-छिपे ड्रग्स बिके पर नियम और लाइसेंस के तहत केवल रिसॉर्ट्स में शराब न बिके? पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ऐसे प्रस्ताव आम हैं पर उनका विरोध यह कहकर किया जाना उचित है कि यह लोगों की मजहबी भावनाओं के विरुद्ध है?
प्रशासन का एक प्रस्तावित सुधार यह है कि द्वीपों पर निर्माण कार्य अब से नियम के तहत हो। इस प्रस्ताव का यह कहते हुए विरोध किया जा रहा है कि चूँकि निर्माण अब नियम के तहत होगा इसलिए वहाँ बड़े-बड़े प्रोजेक्ट बनेंगे जो द्वीपों की इकोलॉजी के लिए खतरा होंगे। प्रोजेक्ट बड़े हों या छोटे, निर्माण कार्य नियम के तहत होने ही चाहिए। क्या लोगों को कहीं भी किसी भी निर्माण का अधिकार दिया जा सकता है? फिर यह कैसा तर्क है कि इकोलॉजी की चिंता सरकार को नहीं है? इकोलॉजी की चिंता केवल स्थानीय लोगों को ही है?
वर्तमान में लक्षद्वीप के आबाद दस द्वीप में से एक पर पर्यटन के लिए रिसॉर्ट है। पर क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि कल जब और द्वीप आबाद होंगे तो एक अर्थव्यवस्था विकसित होगी जिसके लिए अभी से तैयारी की आवश्यकता है? एक आरोप यह लग रहा है कि सरकार इसे मालदीव की तरह विकसित करना चाहती है। प्रश्न यह है कि सरकार यदि मालदीव की तर्ज पर पर्यटन का विकास चाहती भी है तो इसमें बुराई क्या है? कौन सी जिम्मेदार सरकार अपने किसी इलाके का विकास नहीं चाहती?
यदि इकोलॉजी की चिंता सच में है तो क्या उसकी रक्षा के लिए कोई योजना न बने? क्या सुधार की योजनाएँ केवल इसलिए खारिज कर दी जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने में कुछ स्थानीय या राजनीतिक लोगों के निहित स्वार्थ हैं?
दरअसल पहले की सरकारों की राजनीति, उनकी निष्क्रियता, कम्युनिकेशन की सुविधाओं का अभाव और कार्यशैली ने दशकों पुराने इस सिद्धांत को जाने-अनजाने पुख्ता कर रखा है कि दिल्ली में बैठे लोगों को भारत के अन्य प्रदेशों, जिलों या शहरों की जानकारी नहीं है। एक समय तक यह बात कुछ हद तक सही भी थी पर क्या यह आज भी कहा जा सकता है? यही बात आज भी कहते हुए लोग यह भूल जाते हैं कि यह उन दिनों की बात है जब दूर के प्रदेशों, खासकर द्वीपों से संवाद बहुत बड़ी समस्या थी। आज ऐसी समस्याएँ न के बराबर हैं। ऐसे में हर बात का विरोध यह कह कर नहीं किया जा सकता।
जिन बातों को आगे रखकर केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित सुधारों का विरोध किया जा रहा है वे छिछली हैं। जिन कारणों के सहारे विरोध किया जा रहा है वे तर्कसंगत नहीं जान पड़ते। कॉलम लिख कर विरोध करने वाले बुद्धिजीवी अपने इस तर्क से आगे नहीं बढ़ पा रहे कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह को कुछ पता नहीं। यही कारण है कि वे अपने कॉलम की शुरुआत पंडित नेहरू के 1956 के फैसले से करते हैं। उन्हें यह लगता है कि यदि पंडित नेहरू, उनकी दूरदृष्टि और संस्कृति की उनकी समझ को कॉलम के शुरू में ही बैठा दिया जाए तो यह साबित किया जा सकता है कि मोदी और शाह को संस्कृति की समझ नहीं है। इन बुद्धिजीवियों को लगता है कि बाकी भारत भले ही 2021 हो पर लक्षद्वीप आज भी 1956 में ही है और उसे किसी प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता नहीं है।
लक्षद्वीप और कश्मीर में समानता आगे रखी जा रही है। बताया जा रहा है कि दोनों प्रदेशों की संस्कृति की समझ केंद्र सरकार को नहीं है। बुद्धिजीवी गण कश्मीर के बारे में भी मान कर चल रहे हैं कि कश्मीर आज भी 1947 में ही है। दरअसल जब ऐसे प्रदेशों की बात होती है तब मजहब को आगे कर दिया जाता है। इसके साथ पिछले पचास साठ-वर्षों के बदलाव से उपजे प्रश्नों के आगे आँखें मूँद ली जाती हैं, क्योंकि प्रश्नों के आगे आँखें मूँद लेना हमारे बुद्धिजीवियों का प्रिय शगल है। दरअसल, दोनों प्रदेशों के बीच समानता है। समानता स्थानीय लोगों की सोच में है। और वह सोच यह है कि हमारे अलावा यहाँ कोई और न रहे। कश्मीर के स्थानीय लोगों ने हिन्दुओं को वहाँ से निकाला और लक्षद्वीप के स्थानीय लोग चाहते हैं कि वहाँ कोई और न आए। दोनों सोच का परिणाम एक ही है।
प्रस्तावित सुधारों को लेकर किए जा रहे विरोध के पीछे कारण एक ही है और वह है कि केंद्र सरकार के हर उस कदम का विरोध किया जाए जिसे वो सुधार मानकर चल रही है। इसमें आश्चर्य नहीं है पर ऐसे विरोध के लिए स्पेस बहुत कम है। इस विरोध के पीछे का दर्शन यह है कि चूँकि संविधान के अनुसार सुधार करने का अधिकार केंद्र सरकार का है इसलिए विरोध यह कह कर किया जाए कि ये प्रस्तावित सुधार दरअसल सुधार नहीं, बल्कि स्थानीय संस्कृति पर हमला है। राज्य के प्रशासक के ऊपर हिंदुत्ववादी होने के आरोप लगाए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि वे हिन्दुत्व के किसी तथाकथित एजेंडा के लिए काम कर रहे हैं। यह बात अलग है कि ये कुतर्क के अलावा और कुछ नहीं है। राजनीतिक विरोध अपनी जगह, पर इससे इनकार करना मुश्किल है कि ये सुधार संविधान की रक्षा के हेतु अनिवार्य हैं और उन्हें लागू करना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है।