वैदिक साहित्य के प्रमुख प्राचीन ग्रंथ मनुस्मृति का महत्व
ओ३म्
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समस्त वैदिक साहित्य में मनुस्मृति का गौरवपूर्ण स्थान है। मनुस्मृति के विषय में महर्षि दयानन्द जी ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में कहा है कि यह मनुस्मृति सृष्टि की आदि मे उत्पन्न हुई है। मनुस्मृति से अधिकांश वैदिक मान्यताओं का प्रकाश होता है। प्राचीन काल में विद्यमान मनुस्मृति वेदानुकूल ग्रन्थ था जो समाज के प्रत्येक मनुष्य व वर्ग के लिए समान रूप से हितकर व उपयोगी था।
मध्यकाल में वेदविरुद्ध मत के आचार्यों ने इसमें वैदिक मान्यताओं के विपरीत प्रक्षेप कर इसके स्वरूप को बदल दिया जिससे समाज को महती हानि हुई। ऋषि दयानन्द की दृष्टि इस ओर गई और उन्होंने इस ग्रन्थ के महत्व को बताते हुए इसमें किये गये अहितकर प्रक्षेपों की ओर भी ध्यान दिलाया। ऋषि दयानन्द के अनन्य भक्त वैदिक विद्वान महात्मा दीपचन्द आर्य जी, संस्थपक आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट की स्थापना कर मनुस्मृति पर अनुसंधान कराया। मनुस्मृति में जो अवैदिक मान्यताओं का प्रक्षेप किया गया था उसकी वेदानुकूलता की परीक्षा कर उसे पृथक किया गया तथा ‘विशुद्ध-मनुस्मृति’ के नाम से एक ग्रन्थ का प्रकाशन 26 दिसम्बर सन् 1981 को किया। इस ग्रन्थ का प्रकाशन आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की ओर से महात्मा दीपचन्द आर्य जी ने किया। इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘विशुद्ध मनुस्मृति’ के व्याख्याता, समीक्षक एवं सम्पादक वैदिक साहित्य के उच्च कोटि के विद्वान ऋषि तुल्य पं. राजवीर शास्त्री जी थे। मनुस्मृति के इस संस्करण से सभी अवैदिक प्रक्षेपों को हटा कर विशुद्ध मनुस्मृति का प्रकाशन किया गया जो इतर प्रमुख वैदिक साहित्य उपनिषद एवं दर्शनों के समान ही उपयोगी एवं लाभप्रद है। इसी ग्रन्थ से हम पं. राजवीर शास्त्री जी द्वारा दिये गये ‘मनुस्मृति का महत्व’ विषयक विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। इससे पूर्व शास्त्री जी ने प्राक्कथन में विशुद्ध मनुस्मृति के प्रकाशन के सम्बन्ध में कुछ पंक्तियां लिखी हैं, उसे भी महत्वपूर्ण होने के कारण यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्राक्कथन में पं. राजवीर शास्त्री लिखते हैं ’‘पाठकों के हाथों में मनुस्मृति (विशुद्ध मनुस्मृति) का संस्करण समर्पित करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। क्योंकि भारतीय संस्कृति तथा वैदिक वांग्मय में मनुस्मृति का स्थान अत्युत्कृष्ट है और समस्त भारतीय सम्प्रदायों ने इसे प्रामाणिक माना है। परन्तु इसके उज्जवल एवं पवित्र ज्ञान-स्रोत को परवर्ती काल्पनिक मत-मतान्तरों के मलीन अज्ञान स्रोतों ने ऐसा कलुषित एवं दुर्गन्धमय कर दिया था जिससे इस परम प्रमाणिक ग्रन्थ का उज्जवल स्वरूप धूलिसात् ही होने लगा और इसी मलीनता के मिश्रण को देखकर इस ग्रन्थ का अपयश ही नहीं प्रत्युत इस अमूल्य ज्ञान-राशि के प्रति घृणा-भाव भी उत्पन्न होने लगा था। आर्ष-साहित्य-प्रचार-ट्रस्ट के नाम के अनुरूप ही जैसे (यह ट्रस्ट) अन्य आर्ष साहित्य का प्रकाशन करने में सतत निरत हैं, वैसे ही मनुस्मृति जैसे आर्ष ग्रन्थ का अनुसन्धानात्मक प्रकाशन का जो उत्तम कार्य उन्होंने किया है, एतदर्थ वे कोटिशः धन्यवाद के योग्य हैं। यद्यपि ट्रस्ट ने पृथक से समस्त मनुस्मृति का प्रकाशन अनुशीलन-समीक्षा सहित भी किया है, पुनरपि सामान्य बुद्धि के व्यक्ति, अबोध छात्रवर्ग तथा अवैदिक व काल्पनिक मिथ्या बातों में निरर्थक समय-यापन न करने के जिज्ञासुजनों के लिये ‘विशुद्ध-मनुस्मृति’ का यह पृथक् प्रकाशन भी किया गया है। इससे पाठकवर्ग अज्ञान तथा मिथ्याज्ञान के दलदल से बचकर सत्य, निर्भ्रांत एवं मानव के पुरुषार्थ-चतुष्टय के साधक पावन ज्ञान की ज्योति से अपने जीवन को जगमग कर सकेंगे।”
प्राक्कथन के बाद पं. राजवीर शास्त्री जी ने ‘मनुस्मृति का महत्व’ शीर्षक से कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। वह इस विषय मे लिखते हैं ‘‘समस्त वैदिक वांग्मय का मूलाधार वेद है। और समस्त ऋषियों की यह सर्वसम्मत मान्यता है कि वेद का ज्ञान परमेश्वरोक्त होने से स्वतःप्रमाण एवं निभ्र्रान्त है। इस वेद-ज्ञान का ही अवलम्बन एवं साक्षात्कार करके आप्तपुरुष ऋषि-मनुयों ने साधना तथा तप की प्रचण्डाग्नि में तपकर शुद्धान्तःकरण से वेद के मौलिक सत्य-सिद्धान्तों को समझा और अनृषि-लोगों की हितकामना से उसी ज्ञान को ब्राह्मण, दर्शन, वेदांग, उपनिषद् तथा धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों के रूप में सुग्रथित किया। महर्षि मनु का धर्मशास्त्र मनुस्मृति भी उन्हीं उच्चकोटि के ग्रन्थों में से एक है जिसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि-उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, अठारह प्रकार के विवादों एवं सैनिक प्रबन्ध आदि का बहुत सुन्दर सुव्यवस्थित ढंग से वर्णन किया गया है। मनु जी ने यह सब धर्म-व्यवस्था वेद के आधार पर ही कही है। उनकी वेद-ज्ञान के प्रति कितनी अगाध दृढ़ आस्था थी, यह उनके इस ग्रन्थ को पढ़ने से स्पष्ट होता है। मनु ने धर्म-जिज्ञासुओं को स्पष्ट निर्देश दिया है कि धर्म के विषय में वेद ही परम प्रमाण है और धर्म का मूल स्रोत वेद है।
वेद से विरुद्ध तथा वेद की निन्दा करने वाले को मनु कदापि सहन नहीं कर सकते थे, इसीलिये उन्होंने ‘नास्तिको वेद निन्दकः’ वेद की निन्दा करने वाले को ‘नास्तिक’ कहकर उसके लिये अत्यन्त तिरस्कारपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने अपने इस धर्म-शास्त्र का नाम ‘स्मृति’ भी सार्थक ही रक्खा है क्योंकि उन्होंने ‘धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः’ कहकर स्मृति की परिभाषा स्वय की है।
मनु का यह धर्मशास्त्र यद्यपि बहुत प्राचीन है, पुनरपि निश्चित समय बताना बहुत कठिन कार्य है। महर्षि-दयानन्द ने मनु को सृष्टि के आदि में माना है-‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है, उसका प्रमाण है।’ (सत्यार्थप्रकाश) यहां महर्षि का यही भाव प्रतीत होता है कि धार्मिक मर्यादाओं के सर्वप्रथम व्याख्याता मनु ही थे। मनु ने मानव की सर्वांगीण-मर्यादाओं का जैसा सत्य एवं व्यवस्थित रूप से वर्णन किया है, वैसा विश्व के साहित्य में अप्राप्य ही है। मनु की समस्त मान्यतायें सत्य ही नहीं, प्रत्युत देश, काल तथा जाति के बन्धनों से रहित होने से सार्वभौम हैं और मनु का शासन-विधान कैसा अपूर्व तथा अद्वितीय है, उसकी समता नहीं की जा सकती। विश्व के समस्त देशों के विधान निर्माताओं ने उसी का आश्रय लेकर विभिन्न विधानों की रचना की है। मनु का विधान प्रचलित साम्राज्यवाद तथा लोकतान्त्रिक त्रुटिपूर्ण पद्धतियों से शून्य, पक्षपातरहित, सार्वभौम तथा रामराज्य जैसे सुखद शान्तिपूर्ण राज्य के स्वप्न को साकार करने वाला होने से सर्वोत्कृष्ट है। इसी का आश्रय करके सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत पर्यन्त अरबों वर्षों तक आर्य लोग अखण्ड चक्रवर्ती शासन समस्त विश्व में करते रहे। इसका संकेत स्वयं मनु ने यह कहकर किया है–
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। (मनुस्मृति 2/20)
अर्थात् समस्त पृथिवी के मनुष्य इस देश में उत्पन्न विद्वान् ब्राह्मणों से अपने अपने चरित्र (धर्म) की शिक्षा ग्रहण करते रहें। और इसीलिये मनुस्मृति का कितना सम्मान तथा प्रमाण उस समय होता था, यह प्राचीन काल के ब्राह्मणग्रन्थों के इस प्रमाण से स्पष्ट होता है—‘मनुर्वै यत्किंचावदत् तद् भैषजम्’ (तेत्तिरीय0 काठक0, मैत्रायणी0, ताण्डय0) अर्थात् मनु ने जो कुछ भी कहा है, वह मानव-मात्र के लिये भैषज अर्थात् समस्त दोषों को दूर करने के कारण अमोघ औषध है।”
वर्तमान समय में हम देखते हैं कि देश की युवा व वृद्ध पीढ़ी मनुस्मृति के नाम व उसके वास्तविक स्वरूप सहित उसमें निहित अनेकानेक विशेषताओं से सर्वथा अपरिचित व अनभिज्ञ है। मनुस्मृति की विशेताओं को बिना जाने व समझे अनेक लोग अज्ञानतावश इसका विरोध भी करते हैं जिसका कारण मध्यकाल में इस महान ग्रन्थ में कुछ वेद विरोधी स्वार्थी लोगों द्वारा वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध प्रक्षेप किया जाना है। हमने इस मनुस्मृति ग्रन्थ को पूरा पढ़ा है और इसे समाज के सभी वर्गों सहित सभी मत-मतान्तरों के लोगों के लिए भी हितकर एवं उपयोगी पाया है। इस कारण हमने उच्च कोटि के वैदिक विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी द्वारा सम्पादित इस विशुद्ध मनुस्मृति के महत्व को इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया है। हमारा निवेदन है कि इस ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन होना चाहिये तथा देश की युवापीढ़ी को इसे पढ़कर लाभ उठाना चाहिये। हम सब अपने जीवन में जो ग्रन्थ पढ़ते हैं उनमें से अधिकांश का हमारे जीवन में उपयेाग ही नहीं होता। विशुद्ध मनुस्मृति का ज्ञान ऐसा ज्ञान है जिससे हमें इस जीवन के वर्तमान समय सहित परलोक के जीवन में भी लाभ प्राप्त हो सकता है। ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ की उपेक्षा करना हमारे अपने लिये ही हानिकारक है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य