वैद्य गुरुदत्त
(लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार एवं राजनीतिक विचारक हैं।)
संविधान भले लोगों के समाज में और उस द्वारा निर्मित राज्य में एक समझौता होता है। इसका अधर्माचरण करने वाले लोगों से कोई संबध नहीं होता है। अधर्माचरण (अपराध) के लिए दण्ड विधान की कल्पना की गई है। जो लोग हृदय से धर्म की स्थापना चाहते हैं, वे इस निमित्त राज्य का निर्माण करते हैं, तब उसमें और शासक के भीतर अनुबंध होता है। इसी का नाम संविधान है। अभिप्राय यह है कि धर्म पालन करते हुए भी कुछ प्रतिबन्ध राज्य पर होता हैं, वे प्रतिबंध ही संविधान कहलाते हैं।
राज्य का निर्माण इस कारण किया जाता है कि जिससे अधर्माचरण करने वालों को नियंत्रण में रखा जाए और वे धर्म का उल्लंघन न कर सकें। धर्म क्या है? और कौन धर्म का उल्लंघन कर रहें है? इसके लिए शास्त्र जिसका नाम अंग्रेजी में पीनल कोड है, का निर्माण किया गया है। संविधान धर्मशास्त्र नहीं है। जनता में धर्म का उल्लंघन करने वालों को सन्मार्ग दिखाना संविधान का विषय नहीं है। समाज का नैतिक तथा आर्थिक स्तर उठाना भी संविधान का कार्य नहीं है। संविधान तो राज्य की उच्छृंखलताओं पर लगाम लगाने के लिए है। यह राज्य की उद्दंडता से भले लोगों की रक्षा के लिए एक यंत्र है।
यह स्पष्ठ ही है कि भारत के वर्तमान संविधान में राष्ट्र और राज्य के कार्य को गलत मलत किया गया है। राज्य के हाथ में राष्ट्र की शिक्षा का कार्य दे दिया गया है। अत: शिक्षा एक गंदी नाली बन गई है जिसमें संसार भर का कूड़ा कहकट भर दिया गया है। जो अंग प्रबन्ध करने के लिए था, वह शिक्षक बन गया है अर्थात एक थानेदार शिक्षक हो गया है। यह संविधान का अर्थ न समझने के कारण ही है।
धर्मशास्त्र अर्थात दण्ड विधान का विषय और शिक्षा का विषय हमारे ‘बुद्धिमान’संविधान निर्माताओं ने संविधान में डाल दिये हैं। उदाहरण के रूप में संविधान में एक निर्देश है कि अछूत तथा पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी सेवाओं और सरकारी संस्थाओं में स्थान संरक्षित किए जाएं और असके लिए राज्य विधान सभाएं कानून बना सकती हैं।
संविधान में अछूतोद्धार अर्थात् उनके लिए विशेष अधिकार, सिक्खों के साथ रियायत, मुसलमानों के लिए विशेष कानून इत्यादि बातें डाल दी गई हैं। शिक्षा मन्त्री का शिक्षा में हस्तक्षेप, राज्य की ओर से शिक्षा आयोग का निर्माण, उसमें विदेशियों को सम्मिलित करना इत्यादि अनेक बातें हैं जिसका संविधान में राज्य को अधिकार दे दिया गया है।
एक अन्य व्यवस्था इस दिशा में है। वह यह कि अछूत जातियों के लिए निर्वाचनों में लोक सभा तथा विधान सभा में पृथ्क विधान क्षेत्र बना रखे हैं, जहां पढ़े लिखे बुद्धिमानों को अनपढ़ तथा पिछड़ों को मत देने पर विवश किया जा रहा है। यह अधिकार दस वर्ष तक दिया गया था, तदनन्तर प्रत्येक दस वर्ष के उपरान्त इसको दस वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा है। इसे भी संविधान में रखना सामान्य कानून में संविधान का हस्तक्षेप है।
कई अन्य बातें हैं जिसका स्थान संविधान में नहीं होना चाहिए। वे संविधान में घुसेड़ दी गई हैं। इनके विषय में हम संविधान का वर्णन करते हुए व्याख्या से कहेंगे। यहां तो हम यह बताना चाहते हैं कि जहां पृथु ने ऋषियों से यह शपथ ली थी कि वह सबके साथ समान न्याय करेगा, धर्म के मुख्य नियमों का कभी उल्लंघन नहीं करेगा, वहां वर्तमान भारत के संविधान में सामान्य धर्मों और न्याय का उल्लंघन करने की स्वीकृति शासन को दे दी गई है। संविधान और धर्मशास्त्र परस्पर विरोधी नहीं हो सकते। परन्तु भारत के संविधान में यही दिखाई दे रहा है। ऐसा क्यों हुआ? इसमें बलशाली की धींगा—मस्ती और राष्ट्र की दुर्बलावस्था से राष्ट्र के धूर्त अंग का अनुचित लाभ उठाना है। यह कब से भारत में हुआ है, विचारणीय है।
यह ठीक है कि समय समय पर राजा निरंकुश होते रहे हैं। कंस, दुर्योधन भीष्म, धृतराष्ट्र इत्यादि राजा प्राचीनकाल में हुुए हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए अधिकारी व्यक्तियों का अधिकार छीनते रहे हैं। परन्तु यह भारत में कभी भी एक संविधान का विषय नहीं हुआ। इनको किसी ने कभी ठीक नहीं माना। जहां तक हमारा इतिहास का ज्ञान है, भारत में अशोक पहला राजा था जिसने राज्य के विधि-विधान में अनधिकारियों को, बौद्ध होने के कारण, दूसरे धर्म वालों पर उपमा दी थी। हमारे विचार में उस काल के बौद्ध नास्तिक, प्राय: अनपढ़ अथवा कम शिक्षित और पिछड़े हुए लोग थे। अशोक ने कलिंग देश पर आक्रमण कर तथा वहां घोर अत्यचार कर अपने को इतना बदनाम कर लिया था कि उस देश के बुद्धिशील न्यायप्रिय लोगों का मुख बंद करने के लिए समाज के पिछड़े वर्ग अर्थात बौद्धों का आश्रय लेना पड़ा था। जैसे कोई अन्यायी राजा अपने अन्यायाचरण को छुपाने के लिए करता है, वैसा ही अशोक ने किया था।
इतिहास के ज्ञाता इतना जानते हैं कि अशोक ‘देवानांप्रिय’ ने इस कारण दण्ड विधान को राज्य नियम (संविधान) से मिलाया था क्योंकि वह अपने निरंकुश व्यवहार का समर्थन राज्य से चाहता था। यही बात इंग्लैंड के सबसे पहले संविधान मैगनाकार्टा में हुई थी। इस चार्टर का इतिहास देंखें तो हमारी ऊपर कही बात स्पष्ठ हो जाएगी।
मैगनाकार्टा में इंग्लैंण्ड के राजा और उसके राज्य के सहायकों में प्रथम अनुबंध हुआ था। विलियम विजेता ने जब इंग्लैण्ड पर राज्य स्थापित किया तो उसने आवश्यकता से अधिक अधिकार अपने लिए सुरक्षित कर लिये। उसने न केवल सामान्य प्रजा के अधिकारों को कम किया वरन् उन रईस जमीदारों के भी अधिकारों को कम कर दिया जिनकी सहायता से उसने विजय प्राप्त की थी। उस समय वह इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था कि वह उन अधिकारों का भी भरपूर भोग करता रहा। उसने इंग्लैंण्ड में पोप के अधिकारों को भी सीमित कर दिया। पोप इंग्लैण्ड से अपने दृढ़ सम्बंध समझता था, परन्तु विलियम ने उसका प्रभाव देश के ‘चर्च’पर भी नहीं रहने दिया। परिणाम यह हुआ कि देश के रईस पोप से मिलकर विलियम का विरोध करने लगे।
विलियम के पुत्र हेनरी प्रथम का विरोध उसके भाई राबर्ट डयूक ऑफ नारमण्डी ही करने लगा। उसके विरोध के परिणामस्वरूप हैनरी को राज्य कर्मचारियों और रईसों से समझौता करना पड़ा। इस समझौते में हैनरी को अपने पिता के बहुत से अधिकार छोडऩे पड़े। इससे रईसों और कर्मचारियों को अपनी शक्तियों का ज्ञान हो गया और वे हैनरी प्रथम के उत्तराधिकारी से और फिर उसके उत्तराधिकारी से अधिक, और अधिक अधिकार प्राप्त करने लगे। यह कुछ उसी प्रकार था, जैसे बौद्ध वर्ग अशोक के उत्तराधिकारियों से अधिक, और अधिक अधिकार प्राप्त करते गए।
हैनरी प्रथम का उत्तराधिकारी स्टीफन जब 1135 में गद्दी पर बैठा तो इसका हैनरी की लड़की मटिल्डा ने विरोध किया और इससे रईसों को कुछ और अधिकार देने पड़े। इस प्रकार परम्परा चल पड़ी। रईस प्रत्येक राजा के बदलने पर झगड़ा करते और बनने वाले राजा को कृछ अपने अधिकार छोडऩे पड़ते। रिचर्ड प्रथम के ‘क्रुसेड’में अग्र भाग लेने के कारण राज्य का खर्च बहुत बढ़ गया और उसे टैक्स बढ़ाने पड़े। इससे रईसों के साथ साथ सौदागर भी सम्मिलित हो गए और ‘क्रुसेड’पर जाने वाले सिपाहियों की विशेष भरती की जाने के कारण किसान भी रईसों के साथ सम्मिलित हो गए।
इस प्रकार पूर्ण प्रजा राजा के विपरीत होने लगी। आर्चबिशप आफ कैण्टर्बरी, हाबर्ट वाल्टर, विलियम मार्शल, ज्यौफ्रे फिट्ज पीटर इत्यादि ने राजा रिचर्ड की ओर से घोषणा कर दी कि यदि प्रजा साथ रहेगी तो वह उनको विशेष अधिकार देगा। रिचर्ड उस समय फ्रांस में था और वह किसी प्रकार के विशेष अधिकार देने का विचार नहीं रखता था। इस पर भी उसके उत्तराधिकारी जोन को सन 1215 में विवश होकर राज्यरोहण के पूर्व एक उदार अधिकार पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े।
यह अधिकार पत्र ‘मैग्नाकार्टाÓ के नाम से विख्यात हुआ। इस मैग्नाकार्टा में 63 धारायें हैं तथा उनमें राजा और रईसों के अधिकार निश्चय किए गए हैं। राजा और सौदागरों के अधिकार भी निश्चय किए गए और साथ ही न्याय की भी व्यवस्था की गई। इस ‘मैग्नाकार्टाÓ में निर्धन, बेकारों और खेतों पर काम करने वालों के अधिकारों का वर्णन नहीं है। इस पर भी जब राजा के अधिकार कम हुए और निर्बाध कर लगाने, सेना में भरती करने और सरकारी सेवकों की संख्या बढ़ाने पर प्रतिबंध लगे तो सामान्य जनता को भी सुख सुविधा प्राप्त हुई। सामान्य जनता की ये किंचित मात्र सुविधाएं राजा के रईसों और सौदागरों के अधिकारों पर रोक लगाने के लिए थी। इसी प्रकार न्याय व्यवस्था के सुधार से भी सामान्य जनता को लाभ हुआ।
यद्यपि मैग्नाकार्टा किसी युक्तियुक्त विचार का परिणाम नहीं था, यह केवल रईसों, जमींदारों और सौदागरों के दबाव पर स्वीकार हुआ था। इस पर भी इसका प्रभाव पूर्ण जनता पर न्यूनाधिक हुआ था। प्रश्न यह है कि राजा ने यह क्यों माना? केवल इसलिए कि वह जिनकी सहायता से राज्य और सत्ता रख सकता था उन पर करों का बोझा नियमित तथा कम कर दे। जो लोग उसकी सेना में भरती कराने में सहायक होते थे, उनके अनियमित अधिकार सीमित हो गए। इससे वस्तुओं के भोक्ताओं को भी लाभ हुआ और निर्धन किसानों को भी सुविधा प्राप्त हुई। इस मैग्नाकार्टा के गुण अथवा अवगुण किसी सिद्धान्त को सामने रखकर नहीं बनाए गए थे। ये केवल राजनीतिक विवशताओं और राज्य परिवार की आवश्कताओं के दबाव का परिणाम ही थे। इसी कारण हम इसकी तुलना अशोक से मिलने वाले बौद्ध संरक्षण से करते हैं। बौद्ध और सामान्य जनता को सुविधाएं मिली थी राज्य की राजनीतिक उच्छृंखलता की रक्षा करने के लिए।
यही पर पृथु के संविधान तथा किंग जोन के काल के संविधान में अन्तर है। पृथु के संविधान को बनाने वाले ऋषि लोग थे जो अपना किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं रखते थे। अत: मैग्नाकार्टा से मानव समाज में विकृति ही आई है। उसके उपरान्त जहां जहां भी किसी देश अथवा राज्य का संविधान बना है वहां स्वहितों से प्रेरित समाज के प्रभावी अंग अपने हितों की रक्षा करने में लगे रहे प्रतीत होते हैं।
यही दोष भारत के सन 1949 के संविधान में प्रकट हुआ है। अंग्रेज यहां से गए अपनी दुर्बलता के कारण। कांग्रेस के हो हल्ला करने वालों को अधिकार चाहिए था और जब संविधान बनने लगा तो अपने को सुरक्षित स्थान पर रखने के लिए संविधान में छिद्र रखने के प्रलोभन में फंस गए अथवा भूल कर बैठे। जो पीडि़त थे, वे ही संविधान बनाने आ बैठे थे। उन्होंने अपने विचार से अपने समविचार वालों की रक्षा का यत्न संविधान में किया है। इंग्लैड की वर्तमान पार्लियामेंट मैग्नाकार्टा की ही संतान है। यह ठीक है कि पिता-पितामहों की संतान की भांति इसमें भी अनेक बातों मे चार्टर से भिन्नता आई है परन्तु जैसी जातीय अथवा वंशज विशेषताएं होती हैं, वैसी ही यहां भी हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट किसी प्रकार की विचारित योजना से न तो बनी है, न ही चल रही है। नाम डेमोक्रेसी (प्रजातंत्र) का है परन्तु बात उनकी चलती है जो धुआंधार व्याख्यान दे सकते हैं अथवा जनता की कामनाओं को उभारकर उनकी पूर्ति का आश्वासन दे सकते हैं।
यही कारण है कि हर तीन चार वर्ष उपरान्त सरकार बदल जाती है। जहां कहीं, अन्य देशों में इसकी नकल में बनी पार्लियामेंट हैं, वे जनता के अधिकारों को ही नगण्य कर व्यक्ति को पालतू जानवर बनाने की घोषणा कर चुकी हैं। हमारा यह विचार मत है कि इ्ंग्लैण्ड की पार्लियामेंट सरकार की नकल में जहां जहां भी सरकारें बनी हैं, वे निश्चित कारणों से कम्यूनिस्ट तानाशाही की ओर अ्ग्रसर हो रही हैं।
जब जब भी कोई विद्वान व्यक्ति अथवा विद्वानों की संस्था किसी प्रकार का सुधार करना चाहती है, तब तब ही अनपढ़ एवं अल्प शिक्षितों के हो-हल्ले में पूर्ण जाति को विकृत मार्ग पर डाल दिया जाता है। सामान्य लोग इतने सीमित विचारशक्ति वाले होते हैं कि जब भी कोई इनकी वर्तमान मनोकामनाओं को पूर्ण नहीं कर सकता तो वह धर्म और न्याय की चिन्ता न कर ऐसी बातें करने लगता है कि वह लोगों को क्षण भर में स्वर्ग दिला देगा। इसी कारण वर्तमान प्रजातंत्रात्मक प्रणाली में कोई स्थिर प्रगति की सम्भावना नहीं।
प्राय: लोग अपना वास्तविक हित नहीं जानते और इस पार्लियामेंटरी ढंग के विधि विधान में जो जनता को तुरन्त और बिना कठोर तपस्या के बैकुण्ठ दिलवाने की आशा दे, वह बाजी ले जाता है। सामान्य जनता में बुद्धि का समावेश सामान्य होता है, इस कारण इस ढंग के प्रपंच में उनकी बन आती है जो चिकनी चुपड़ी बातें कर सकते हैं और जो जनसाधारण को तत्कालीन अभावों को चुटकी में पूरा कर देने का विश्वास दिलवा सकते हैं।
पीडि़त, चाहे किसी आततायी से पीडि़त हों और चाहे वे अपनी कामनाओं से पीडि़त हों, उस पीड़ा से छूटने के लिए उत्सुक होते हैं और पार्लियामेंट ढंग के राज्यों में जो सरल चित जनता को चमका दे सकता है, वह शासन बन जाता है, भले ही वह शासक बनने पर झूठा सिद्ध हो। अधिक से अधिक यह होता है कि एक चकमा देने वाले को दूसरा, उससे अधिक लच्छेदार बातें करने वाला हरा सकता है। और यह पार्लियामेंटरी ढंग की सरकार प्राय: सब देशों में पीडि़तों द्वारा आततायियों की प्रतिक्रिया मात्र है। पीडि़त सदा ही इतने बुद्धिमान होंगे कि जो सुविधाएं वे प्राप्त करेंगे वे वास्तविक सुविधाएं होंगी, कोई निश्चय से नहीं कह सकता। अधिक सम्भव यह होता है कि पीडि़त वे होते हैं जो जीवन संघर्ष में सुख सुविधा का मार्ग न पा किसी न किसी प्रकार कामनाओं को पूर्ण करने का मार्ग ढूढंते फिरते हैं और वाक् कला को जानने वाले उनको काल्पनिक स्वर्ग दिखाकर अपने पीछे लगा लेेते हैं।
प्रश्न यह है कि होना क्या चाहिए? यह बताने के लिए ही यह लेख लिखा जा रहा है। क्या होना चाहिए और यह कैसे हो सकेगा, इसका ही वर्णन हम इस पुस्तक में करना चाहते हैं। हमने पृथु के उदाहरण में लिखा है कि उस समय जो पीडि़त थे, वे संविधान बनाने वाले नहीं थे। पीडि़तों का राज्य परिवर्तन करने में प्रयोग अवश्य किया गया था परन्तु वेन के मर जाने पर जब नये राजा की स्थापना होने लगी तो ऋषि और विद्वान लोगों, जो कदाचित वेन के राज्य के निवासी भी नहीं थे और न ही वे अपने लिए कुछ पाने की आकांक्षा रखते थे, नये शासक से अपने लिए कुछ लाभ प्राप्त करते हुए भी प्रतीत नहीं हुए, वे पृथु से शर्तें मनवाने आगे आ गए। कोई इस प्रकार की बात भी नहीं दिखाई देती, जैसी भारत में 1979 के मध्य में भारत की संसद में झूठ, फरेब और प्रत्येक प्रकार के प्रलोभन देकर स्वंय कोई पद प्राप्त कर लेने के लिए भाग दौड़ करती देखी थी। जो कुछ ऋषियों ने पृथु से वचन देने के लिए कहा वह धर्म-न्याय निष्पक्ष व्यवहार और विद्वानों की रक्षा के लिए ही था।
उस काल में मानव आवश्यकताएं कम थीं परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों में वही सिद्धांत थे जो संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में माने गए हैं और सब पृथु से लिए पृथु से लिये वचनों में मूल में आ गए हैंं।जो उसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में कहा गया हैं, वह कुछ महत्व का है भी नहीं, यद्यपि अहितकर भी नहीं है। मानव स्वतंत्रता का मूल यही है कि सबके साथ समान और धर्मयुक्त व्यवहार किया जाए। पृथु के वचनों में विशेषता यह है कि जो कोई धर्मयुक्त व्यवहार न रखे, उसको राज्य अपने बल से विनष्ट कर दे।
जो बात राष्ट्र संघ की घोषणा तथा धाराओं में नहीं है, वह यह है कि धर्म का स्वरूप निश्चित नहीं किया गया। पृथु के वचनों में यह कहा गया है कि वह सनातन धर्मों की सदा रक्षा करेगा और इनका नाश नहीं होने देगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में इन सनातन धर्मों का उल्लेख कर यह कहना चाहिए था कि इन धर्मों का उल्लंघन करने वाला संघ का सदस्य नहीं हो सकेगा।
सनातन धर्म भारतीय स्मृतियों में दस गिनाए हैं। वे सबसे सर्वत्र पालन करने योग्य माने जाते हैं और उनका ही उल्लेख राष्ट्र संघ के चार्टर में नहीं है। वे दस सनातन धर्म जो सदा पालन करने योग्य हैं इस प्रकार हैं — (1) धृति अर्थात उतावली न करना, दूसरे की त्रुटियों को देखकर भी उसको सुधारने का यत्न करना, (2) क्षमा अर्थात क्षमा याचना करने वाले और पश्चाताप करने वाले के अपराध को भूल जाना, (3) दम – अपनी कामनाओं को नियंत्रण में रखना,(4) अस्तेय – चोरी न करना, अर्थात् अपने और पराए में भेद समझ अपने पर ही अधिकार रखना, (5) शौच – मन, वचन, कर्म में निर्मलता (6) इन्द्रिय-निग्रह अर्थात् भोग पर नियंत्रण । भोग की इच्छा कामनाओं से उत्पन्न होती है। इसको सीमा से न बढऩे देना, (7) बुद्धि का विकास, (8) विद्या – ज्ञान का अर्जन, (9) सत्य – मन वचन और कर्म से समान होना। (10) अक्रोध यानी क्रोध नहीं करना। क्रोध से अभिप्राय अकारण किसी से नाराज होना है। दुष्टों को दण्ड देना क्रोध करना नहीं कहाता। इसे मन्यु कहते है। क्रोध तो अकारध विरोध करने का नाम है। इससे बचना अक्रोध है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा में इन धर्मों का उल्लेख होना चाहिए था और संघ में सम्मिलित हेाने वाले राज्यों के लिए इनका पालन अनिवार्य माना जाना चाहिए था। अधिक से अधिक यह चार्टर कोरी कामना मात्र है। इनका पालन करने पर विवशता नहीं। पृथु से शपथ लेते समय यह मांग की गई थी कि वह उन सनातन धर्मों का पालन करेगा और अपने राज्य में करायेगा।
प्रजातंत्र पद्धति में यह अनिवार्य है कि सबको साथ लेकर चले। सबमें अच्छे, बुरे, ईमानदार, बेईमान सब प्रकार के लोग रहते हैं और वे सब एक साथ चल नही सकते। परिणाम यह होता है कि सब महत्वाकांक्षाएं धरी की धरी रह जाती हैं। साथ साथ चलने वाले परस्पर लड़ पड़ते हैं। अब संयुक्त राष्ट्र संघ की बात ही देखें। द्धितीय विश्व युद्ध में अमेरिका और रूस सर्वथा भिन्न भिन्न मानसिक अवस्थाआों के राज्य एक ओर हो गए थे और जर्मनी का विरोध करने लग थे। युद्ध का काल विशेष था और उसमें इस प्रकार के विलक्षण स्वभाव वाले एक ही पक्ष में एक दूसरे को सहन करते रहे थे, परन्तु यह बेमेल का समागम शान्तिकाल की संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं चल सकता था। और हमारा यह मत है कि यह एक दिन टूटेगा। जब टूटेगा तो एक भयंकर विस्फोट के साथ टूटेगा। होना यह चाहिए कि वे कार्य जो सुरक्षा के विचार से किए जाएं, उनमें तो सबका सहयोग लिया जाए। विभिन्न विचारधाराओं वाले होने पर भी कुछ लोग समान कठिनाई में फंस सकते हैं। सांझी कठिनाई में उस कठिनाई को दूर करने के लिए वे साथ साथ भी चल सकते हैं परन्तु निर्माण कार्य में तो समान आचार विचार के लोग ही सहचारिता का व्यवहार रख सकते हैं।
यही भूल हुई थी जब अमृत मंथन हुआ था। यह निर्माणात्मक कार्य था और देवता तथा दैत्यों ने मिलकर किया था। जो युद्ध इसके उपरान्त हुआ वह अति भयंकर था और उस युद्ध के परिणाम में ही लंका में राक्षसों की अत्पत्ति हुई थी। अब संयुक्त संघ में भी एक निर्माण कार्य हो रहा है और इसके उपरान्त भी एक भयंकर युद्ध होगा। हमारा अभिप्राय है कि धर्म के आधार पर जीवन मीमांसा रखने वालों को निर्माण कार्यों में दैत्यों के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए। यह प्रजातंत्र पद्धति के अनुसार है भी नहीं। उसमें गुड़ खल एक भाव वाली बात है।
हमारे कथन का प्रमाण यह है कि प्रजातंत्रवादी देश भारत रूस का मित्र है, रूस सैनिक तानाशाही में विश्वास रखता है, अमेरिका अपने को प्रजातंत्रवादी कहता है और जबसे भारत में प्रजातंत्रात्मक पद्धति का राज्य बना है, अमेरिका भारत के विरूद्ध व्यवहार करता रहा है तथा पाकिस्तान की सहायता करता है जहां पिछले तीस वर्ष में बीस वर्ष के ऊपर काल से सैनिक तानाशाही चलती आ रही है।
ये प्रजातंत्र की विसंगतियां हैं। हमारे विचार में यह इस कारण है कि प्रजातंत्र एक अशुद्ध पद्धति है। इसमें विद्वानों को धकेलकर दीवार के साथ कर दिया जाता है और अनपढ़, स्वार्थी तथा कामनाओं से प्रेरित लोग प्रथम पंक्ति में आ खड़े होते हैं। हैलिंसकी में संयुक्त संघ में सम्मिलित राज्यों का एक सम्मेलन हुआ था। उसमें नागरिकों को विचार करने, बोलने तथा विचारों का प्रचार करने की स्वतंत्रता देना स्वीकार किया गया था। इस पर भी रूस में उस को बंदी बना लिया जाता है जिसने रूस की सरकार का अफगानिस्तान पर अधिकार कर लेने को बुरा कहा था। इस समय भी रूस राष्ट्र संघ का न केवल सदस्य ही है वरन राष्ट्र संघ के बहुत बड़ी संख्या में सदस्य उसके व्यवहार को पसन्द करते हैं।
इसी प्रकार हम कहते हैं कि ये सब संस्थाएं और संविधान कृत्रिम परिस्थितियों में निर्माण हुए हैं। इनके बनाने वालों में बुद्धि ही नही थी कि न्यायसंगत व्यवस्था के अर्थ को समझें। ये लोग प्राय: दूसरों को छलने की नीयत से बगुलाभगत बने हुए हैं। इसी कारण न तो विधी विधान ठीक बने हैं और न ही जो कुछ बना है उसका पालन ढंग से हो रहा है।
(राष्ट्र राज्य और संविधान से साभार)
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