नदीम
बात सन 1966-67 की है। तब शरद पवार कोई 26 साल के रहे होंगे, महाराष्ट्र युवा कांग्रेस के अध्यक्ष। उस वक्त राज्य में विधानसभा चुनाव भी होने वाले थे। पवार को भी विधानसभा पहुंचने की ख्वाहिश थी, लेकिन महाराष्ट्र की पॉलिटिक्स में कई दिग्गज नेताओं के बीच इतनी कम उम्र में उन्हें टिकट पाने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती थी। इसलिए उन्हें खामोशी अख्तियार करने ही बेहतरी दिखी। किस्मत का खेल कहिए कि एक रोज उस समय के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष विनायक राव पाटिल ने उनसे पूछ लिया- शरद तुम बारामती सीट से टिकट के लिए आवेदन क्यों नहीं करते? जब प्रदेश अध्यक्ष ऐसा सवाल कर रहा हो तो शरद पवार के पास आवेदन न करने की कोई वजह नहीं रह गई थी। लेकिन जैसे ही उन्होंने आवेदन किया, पार्टी के अंदर का विरोध सतह पर आ गया। कहा जाने लगा कि ‘अभी तो सिर्फ 26 साल के हैं, इन्हें टिकट क्यों, पार्टी के पास उस सीट के लिए पहले से ही कई सीनियर लीडर मौजूद हैं और उन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इन्हें टिकट देने का मतलब सीट हार जाना ही हुआ।’ प्रत्याशियों के नाम तय करने के लिए स्टेट पार्लियामेंट्री बोर्ड की जो बैठक हुई, उसमें भी कहा गया कि शरद पवार यह सीट नहीं जीत पाएंगे। बैठक में जब लगभग यह तय हो गया कि शरद पवार का आवेदन निरस्त किया जा रहा है तो वाईबी चव्हाण ने एक सवाल पूछ लिया- हम लोग महाराष्ट्र से कितनी सीट जीतने की उम्मीद कर रहे हैं? सबने कहा कि 200 के आस-पास। चव्हाण ने कहा कि इसका मतलब हम लोग 70 सीटें हार रहे हैं (कुल 270 सीटें थीं)। जवाब आया- मोटे तौर पर यह अनुमान सही है। इतना सुनने के बाद चव्हाण ने कहा कि चलो, जहां 70 सीटें हार रहे हैं, वहां अगर 71 हार जाएंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा? शरद को टिकट दो, हारेगा ही तो। फिर क्या था, शरद पवार का टिकट ‘ओके’ हो गया। जिस सीट पर उनकी हार की उम्मीद जताई जा रही थी, वहां वह बहुत बड़े अंतर से चुनाव जीत गए। उन्हें 63 प्रतिशत वोट मिला था और उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को महज 32 प्रतिशत। वह चुनाव एक तरह से शरद पवार के लिए महाराष्ट्र की राजनीति में टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। उसके बाद उन्होंने पलट कर नहीं देखा।
चंद्रशेखर को मिल रहा था टिकट
प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी को हराने का श्रेय अगर किसी को है तो सिर्फ राजनाराण को। यह वह चुनाव था, जो इमरजेंसी के बाद 1977 में हुआ था। इस चुनाव के लिए आपातकाल में जेल में बंद विपक्ष के नेताओं ने गोलबंद होकर जनता पार्टी बनाई थी। वैसे तो राजनारायण इंदिरा गांधी के खिलाफ 1971 में भी रायबरेली से चुनाव लड़ चुके थे, लेकिन तब हार गए थे। हारने के बाद उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी थी। उन्हीं की याचिका पर इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द हुआ था। उसके बाद ही इंदिरा गांधी के लिए देश में इमरजेंसी लागू करना मजबूरी हो गई थी। 1977 में जब चुनाव की घोषणा हुई तो जनता पार्टी के अंदर यह तय करना मुश्किल हो रहा था कि इंदिरा गांधी के खिलाफ उम्मीदवार कौन हो? पार्टी के शीर्ष नेताओं की राय थी कि चंद्रशेखर से बेहतर कोई और उम्मीदवार नहीं हो सकता, लेकिन वह इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए हामी नहीं भर रहे थे। जब उन पर दबाव बढ़ा तो उन्होंने दो टूक घोषणा कर दी कि यह तो हो सकता है कि वह चुनाव न लड़ें, लेकिन इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेंगे। चंद्रशेखर का तर्क था कि वह व्यक्तिगत विरोध की राजनीति में नहीं फंसना चाहते, लेकिन कुछ नेता यह मानते रहे हैं कि यह चंद्रशेखर के खिलाफ एक साजिश थी। इमरजेंसी को लेकर उस समय कांग्रेस और इंदिरा गांधी को लेकर जनमानस के बीच चाहे जितनी भी नाराजगी दिख रही हो, लेकिन जनता पार्टी के नेताओं को यकीन नहीं था कि इंदिरा गांधी को भी हराया जा सकता है। इस वजह से चंद्रशेखर विरोधी लॉबी उन्हें इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़वाने के लिए ताकत लगाए हुई थी। फिर जब चंद्रशेखर नहीं माने तो किसी और बड़े नेता पर इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने का दबाव न बने, इसके मद्देनजर एक बार फिर से राजनारायण को चुनाव लड़ने के लिए मनाया गया। राजनारायण उन नेताओं में माने जाते रहे हैं, जो कोई भी जोखिम लेने को कभी भी तैयार हो जाते थे। वह फिर से इंदिरा गांधी के खिलाफ सियासी मैदान में उतरने को तैयार हो गए। और जो जोखिम लेता है, वह इतिहास भी रचता है, राजनारायण के साथ भी वही हुआ।
यह यूपी का किस्सा है। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। वह विपक्ष के ज्यादातर नेताओं से मधुर रिश्ते रखने के लिए जाने जाते रहे हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वह भले ही अपनी पार्टी के नेताओं की सिफारिश दरकिनार कर दें, लेकिन विपक्ष के नेताओं की सिफारिश कभी खारिज नहीं करते थे। उनका यह ‘विपक्ष प्रेम’ एक बार बीजेपी के लिए शर्मिंदगी का सबब बन गया। हुआ यह है कि एक बीजेपी विधायक की पुलिस ने पिटाई कर दी, जिसमें उन्हें काफी चोट आई। बीजेपी ने इसे मुलायम सरकार के खिलाफ बड़ा मुद्दा बनाने का फैसला किया। तय हुआ कि घायल विधायक को लेकर बीजेपी के सभी विधायक और अन्य नेता सीएम आवास पर प्रदर्शन करेंगे। हुआ भी यही, लेकिन जैसे ही मुलायम सिंह यादव को मालूम हुआ कि उनके आवास के बाहर बीजेपी के विधायकों की जुटान है, उन्होंने सभी को अंदर बुला लिया और फिर इस जिद्द पर अड़ गए कि सभी को लंच करके ही जाना होगा। अगले दिन के अखबारों में सीएम आवास के अंदर बीजेपी विधायकों के रसगुल्ले खाते फोटो क्या छपे, राजनीतिक गलियारों में पार्टी की किरकिरी हो गई। इससे कांग्रेस और बीएसपी को भी बीजेपी को घेरने का मौका मिल गया। और इस एक घटना से तत्कालीन मुलायम सरकार में बतौर विपक्ष बीजेपी ने अपनी धार खो दी।