न तो आलसी बनें और ना ही विलासी : परिव्राजक
न तो आलसी बनें, और न ही विलासी बनें, अर्थात धन का दुरुपयोग न करें। आलस्य और धन का दुरुपयोग, ये दोनों ही कार्य गलत हैं। इन दोनों का दंड भोगना पड़ेगा।
ईश्वर ने कर्मफल के अनुसार सबको मनुष्य पशु पक्षी इत्यादि शरीर दिया। उसे जीवित रखने के लिए शक्ति चाहिए। शक्ति प्राप्त करने के लिए सबके लिए भोजन भी बनाया। भोजन को पचाने के लिए भूख भी दी। भूख मिटाने के लिए अनाज फल फूल शाक सब्जी आदि सभी वस्तुएं ईश्वर ने दी। परंतु ईश्वर का स्वभाव न्यायकारी है। वह कहता है कि न्याय का नियम है पहले कर्म करो, उसके बाद फल मिलेगा. बिना कर्म किए मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा.
अब जो लोग अपनी भूख मिटाने के लिए कर्म करते हैं। अर्थात पढ़ाई लिखाई करते हैं, अच्छी डिग्री लेते हैं, फिर नौकरी व्यापार करते हैं। उसमें भी ईमानदारी से मेहनत करते हैं।अध्यापन खेती व्यापार उद्योग धंधे आदि चलाते हैं। अर्थात किसी न किसी प्रकार से वे लोग कर्म करते हैं, तो ईश्वर उन्हें रोटी खाने का अधिकार देता है। ऐसे लोग ईश्वर के न्याय नियम के अनुसार कर्म करके फल भोगते हैं, और आनंद से जीते हैं।
परंतु संसार में सब लोग एक जैसे नहीं हैं। कुछ आलसी हैं, जो काम ही नहीं करते, बिल्कुल मुफ्त में खाना चाहते हैं। जैसे आजकल चौराहे पर भिखारी लोग भीख मांगते रहते हैं। ऐसे लोगों को ईश्वर और समाज के बुद्धिमान लोग सहयोग नहीं देते।
कुछ अज्ञानी लोग, ऐसे आलसी लोगों को सहयोग देते हैं। अज्ञानी लोगों के सहयोग के कारण ही ऐसे आलसी लोगों को प्रोत्साहन मिलता है, और वे काम नहीं करते। ऐसे लोगों को भोजन खाने का अधिकार नहीं है। ये लोग बिना कोई पुरुषार्थ किए, देश की उन्नति में बिना कोई सहयोग दिए, मुफ्त में खाना चाहते हैं। यह उनका दोष है। और जो उनको खिलाने वाले अज्ञानी लोग हैं, जो यह समझते हैं, कि इनको दान देंगे, तो हमें पुण्य मिलेगा, ऐसा सोचने वाले अज्ञानी लोग भी दोषी हैं, जो उन्हें मुफ्त में खिला खिला कर और अधिक आलसी तथा देश पर भार बना रहे हैं। वास्तव में ऐसे आलसी लोगों को यदि वे दान देंगे, तो उन्हें पाप लगेगा।
तो मेरा आपसे निवेदन है, कि अज्ञानी न बनें, ज्ञानी बनें। ईश्वर के संविधान को समझें। ईश्वर का संविधान है, कि कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।। यजुर्वेद 40/2 मंत्र में लिखा है कि 100 वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करो। आलसी निकम्मे मत बनो। अतः प्रत्येक व्यक्ति को पुरुषार्थी होना चाहिए। और समाज को भी पुरुषार्थी लोगों को ही सहयोग तथा प्रोत्साहन देना चाहिए।
जो अज्ञानी लोग, ऐसे आलसी और निकम्मे लोगों को प्रोत्साहन देते हैं, भोजन खिलाते हैं, और धन आदि अन्य वस्तुएं देते हैं, वे दोनों दंड के पात्र हैं। मुफ्त में खाने वाला भी और उसे खिलाने वाला भी। ईश्वर के न्यायालय में इन दोनों को दंड मिलेगा। इसलिए दंड से बचने के लिए मुफ्त में न न खाएं, और न खिलाएं। ईश्वर की आज्ञा का पालन करें। पुरुषार्थी बनें, फिर खाएँ। पुरुषार्थी व्यक्ति को ही खाने का अधिकार है। सारे पशु पक्षी इत्यादि प्राणी अपने अपने भोजन को ढूंढने में पुरुषार्थ करते हैं। इतना तो उनसे भी सीख लिया होता, तो अच्छा होता।
अब कुछ लोगों ने पुरुषार्थ भी किया। खूब धन कमाया। परंतु मात्रा से अधिक धन कमाने से, और वेदों को न पढ़ने से, वेदों के अनुसार आचरण न करने से उनकी बुद्धि में बिगाड़ आ गया। और उस बिगाड़ के कारण वे धन का दुरुपयोग करने लगे। दुरुपयोग करने से उनकी आदतें खराब हो गई। अंडे मांस शराब सुल्फा गांजा आदि नशीली वस्तुओं का प्रयोग करने लगे। और बहुत अधिक भोजन खा खाकर उनकी भूख बिगड़ गई। अब उनकी स्थिति यह हो गई, कि रसना आदि इंद्रियों पर संयम न करने से शरीर से रोगी हो गए। उनके पास खाने-पीने आदि को सब वस्तुएं हैं, परंतु भूख नहीं रही। वे इसलिए परेशान हैं, कि खाने को रोटी आदि वस्तुएं तो बहुत हैं, परन्तु भूख नहीं है। और जो आलसी लोग हैं उनके पास भूख तो है, परंतु खाने को रोटी नहीं है।
इसलिए दोनों प्रकार के लोगों से मेरा निवेदन है, कि आलसी लोग पुरुषार्थी बनें, और मेहनत करके खाएं। तथा अधिक धनवान लोग भले ही धन कमाएँ, परंतु धन का सदुपयोग करें।अपनी इंद्रियों पर संयम रखते हुए भोजन आदि पदार्थों का सेवन करें। स्वस्थ रहें, रोगी न हों। धन अधिक कमा लिया हो, तो योग्य वैदिक विद्वान धार्मिक व्यक्तियों और संस्थाओं को दान देकर ईश्वर प्रदत्त धन का सदुपयोग करें। ऐसा करने से संसार में सब लोग आनंद से जी पाएंगे।
— स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।
प्रस्तुति : अरविंद राजपुरोहित