आयुर्वेद में वायरस की चिकित्सा
आयुर्वेद में वायरस चिकित्सा- (विभिन्न स्रोतों से संकलित)
१. चिकित्सा के प्रकार-(डॉ कपिलदेव द्विवेदी की पुस्तक वेदों में आयुर्वेद से)
अथर्व वेद में ४ प्रकार की चिकित्सा का उल्लेख है-
आथर्वणी-राङ्गिरसी-र्दैवी-र्मनुष्यजा उत।
ओषधयः प्र जायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि॥ (अथर्व, ११/४/१६)।
(१) आथर्वणी चिकित्सा-एक मत के अनुसार यह अथर्वण् ऋषि की विधि है। अथर्व का अर्थ बिना थर्व या कम्पन का, मन तथा शरीर में साम्य स्थापित करना इसका उद्देश्य है। प्राण को अथर्वा कहा है, अतः आथर्वणी चिकित्सा का अर्थ है, प्राण शक्ति बढ़ाना। इसमें मन्त्रशक्ति, जप, पूजा पाठ, आश्वासन प्रक्रिया (जैसे ज्योतिष में कहते हैं कि बुरा समय १ मास बाद समाप्त हो जायेगा), दैनिक योगाभ्यास या व्यायाम आदि हैं।
प्राणो वा अथर्वा (शतपथ ब्राह्मण, ६/४/२/१)
येऽथर्वाणस्तद् भेषजम्। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, ३/४)
(२) आङ्गिरसी विद्या-(क) इसकी व्याख्या करने वाले को अङ्गिरा कहा है, जिसके अन्य अन्य भी अर्थ हैं। अङ्गों के रस से चिकित्सा को आङ्गिरसी कहते हैं।
सर्वेभ्यो ऽङ्गेभ्यो रसोऽक्षरत्, सोऽङ्गरसोऽभवत्, तं वा एतं अङ्गरसं सन्तम्, अङ्गिरा इत्याचक्षते (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/७)
आङ्गिरसोऽङ्गानां हि रसः (शतपथ ब्राह्मण, १४/४/१/९, बृहदारण्यक उपनिषद्, १/३/८)
ओषधि को सूई द्वारा रक्त में देना, रक्त या ओषधि शरीर में चढ़ाना, या अङ्ग से क्षरण हुए रस (चेचक के द्रव आदि) से टीका दे कर।
(ख) घोर आङ्गिरस-शत्रु या रोग को घोर कृत्य द्वारा दूर किया जाता है।
घोर आङ्गिरसोऽध्वर्युः (कौषीतकि ब्राह्मण, ३०/६, आश्वलायन श्रौत सूत्र, १०/७/४, शांखायन श्रौत सूत्र, १६/२/१२, छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१७/६)
अङ्गिरा ऋषि द्वारा दृष्ट मन्त्रों में व्रण चिकित्सा, सत्रुनाशन, शत्रु सेना नाशन, मणि द्वारा समस्त रोगों, शत्रुओं और राक्षसों के नाशन का वर्णन है। (अथर्व सूक्त, २/३, ७/७७, ७/९०, १९/३४, १९/३५)। ऋषि घोर (उग्र, शक्तिशाली) होते हैं, इनकी दृष्टि तथा चिन्तन सत्य है (सूक्ष्म दृष्टि के)-
घोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यः। चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम्॥ (अथर्व, २/३५/४)
श्रुतिरथर्वाङ्गिरसीः कुर्यादित्यविचारयन्। वाक् शस्त्रं वै ब्राह्मणस्य तेन हन्यादरीन् द्विजः॥ (मनुस्मृति, ११/३३)
इसमें शल्य क्रिया की विधि हैं। इसमें सूक्ष्म दृष्टि, क्रूर कृत्य, अंग छेदन आदि की क्षमता और रोगों के ठीक कारणों का ज्ञान अनिवार्य है।
(३) दैवी चिकित्सा-शरीर के भीतर तथा बाहर के देवों का परस्पर शक्तिवर्धन से मनुष्य स्वस्थ रहता है।
देवान् भावयतानेनं ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥ (गीता, ३/११)
देवों के कई रूप हैं, जिनके आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आदिदैविक भेद हैं। यथा-
अग्निर्देवता, वातो देवता, सूर्यो देवता, चन्द्रमा देवता, वसवो देवता,रुद्रा देवता, आदित्या देवता, मरुतो देवता, विश्वे देवा देवता, बृहस्पतिर्देवता, इन्द्रो देवता, वरुणो देवता॥ (वाज. यजु. १४/२०)
जैसे शरीर के भीतर जठराग्नि है, सूर्य क्षेत्र मणिपूर चक्र, या सूर्य चन्द्र नाड़ी हैं, मरुत् रूप ५ वायु या प्राण हैं, रुद्र रूप ११ इन्द्रियां हैं (मन, ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय) आदि।
इन देवों का बाह्य देवों से समन्वय स्थापित करने से शरीर स्वस्थ रहता है। समन्वय के लिए ऋतु अनुसार चर्या, दैनिक पूजा, जप, हवन द्वारा संस्कार आदि हैं।
द्विवेदी जी ने इसे प्राकृतिक चिकित्सा माना है-मृत् (मिट्टी) चिकित्सा, जल चिकित्सा, अग्नि चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सूर्य चिकित्सा, प्राणायाम चिकित्सा आदि।
(४) मनुष्यजा या मानवी चिकित्सा-यह मानवों द्वारा बनायी चिकित्सा है। इसमें मानव निर्मितचूर्ण (पाउडर), अवलेह, भस्म, कल्प, आसव, वटी (टैबलेट)। एलोपैथी दवा भी इसमें सम्मिलित हैं।
२. आयुर्वेद के ८ अङ्ग-सुश्रुत के अनुसार इनके नाम हैं-१. शल्य चिकित्सा, २. शालाक्य, ३. काय चिकित्सा, ४. भूतविद्या, ५. कौमार भृत्य, ६. अगद तन्त्र, ७. रसायन तन्त्र, ८. वाजीकरण तन्त्र।
चरक के अनुसार नाम हैं-१. काय चिकित्सा, २. शालाक्य, ३. शल्यापहकर्तृक (शल्य तन्त्र), ४. विष गर वैरोधिक प्रशमन (अगद तन्त्र), ५. भूत विद्या, ६. कौम्र भृत्य, ७. रसायन, ८. वाजी करण।
अष्टाङ्ग हृदय के नाम हैं-१. काय चिकित्सा, २. बाल चिकित्सा, ३. ग्रह चिकित्सा, ४. ऊर्ध्वाङ्ग चिकित्सा (शालाक्य), ५. शल्य चिकित्सा, ६. दंष्ट्रा (विष) चिकित्सा, ७. जरा चिकित्सा (रसायन), ८. वृष चिकित्सा (वाजीकरण)
वायरस के रोगों को आगन्तुक (बाहर से आया), रक्षस्, राक्षस, यातुधान कहा गया है। शारीरिक या कायिक रोगों को अमीवा (शरीर के भीतर की अशुद्धि या कीटाणु) भी कहा है।
अपामीवा भवतु रक्षसा सह (ऋक्, ९/८५/१)
भूत का अर्थ हर प्रकार का जीव है। ५ महाभूत इनके ५ प्रकार के मूल स्रोत हैं। लोकभाषा में भूत का अर्थ मरणोपरान्त सूक्ष्म शरीर के जीव हैं। भूत विद्या में ग्रहों और बाह्य जीवों का प्रभाव देखा जाता है। बाह्य जीवों में ही वायरस भी हैं।
वायरस जनित प्रभाव विष जैसा है। अतः इसका विस्तृत उल्लेख अगद तन्त्र में था जिसकी मूल पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं। विभिन्न आयुर्वेद ग्रन्थों से संकलित कर अगद तन्त्र लिखा गया है।
३. वायरस के नाम और आकार-वायरस के वेद में कई नाम हैं-कृमि या क्रिमि (सूक्ष्म अदृश्य या दृश्य), राक्षस (रक्षोहा), पिशाच, यातु, यातुधान, किमिदि, गन्धर्व, अप्सरा, अमीवा, दुराणामा, असुर, आतंक। सबसे छोटे जीव का आकार बालाग्र का १०,००० भाग कहा है-वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ॥
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/९)
बालाग्र = माइक्रोन (मीटर का १० लाख भाग)। उसका १०,००० भाग ऐंगस्ट्रम होगा जो परमाणु या सबसे छोटे वायरस की माप है। परमाणु किसी कल्प (रचना) में नष्ट नहीं होता जो इस श्लोक में कहा है।
यह बालाग्र का १ लाख भाग भी हो सकता है-
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
अमीवा का उल्लेख यजुर्वेद (सभी संहिता) के प्रथम मन्त्र में ही है-ॐ इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒ इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि (वा. यजु १/१)
यहां अनमीवा (अमीवा या वायरस से मुक्त), अयक्ष्मा (यक्ष्मा से मुक्त) तथा माघशँस (पाप जनित रोग से मुक्त) का उल्लेख है। यह यज्ञ के लिये यजुर्वेद का एक उद्देश्य है कि स्वस्थ रहें। स्वस्थ और सम्पन्न रहने के लिये अघ्न्या (गो) की उपासना भी जरूरी है। अघ्न्या गो के कई अर्थ हैं-(१) गो रूपी पृथ्वी को सुरक्षित रखना, (२) गो रूपी इन्द्रिय स्वस्थ रखना, (३) गो रूपी यज्ञ का क्रम सनातन रखना-केवल उसका बचा हुआ भोग करना है, (४) तथा गो रूप पशु की रक्षा जिसके उत्पाद पर हम जन्म से मृत्यु तक निर्भर हैं।
४. स्वास्थ लाभ २१ दिन में-शरीर का पाचन तन्त्र तथा मांस पेशियों का पुनर्निर्माण २१ दिन में हो जाता है। अतः कोई योगिक या अन्य व्यायाम का प्रभाव २१ दिनों में दीखता है। दौड़ने या अन्य व्यायाम में प्रथम सप्ताह में बहुत कम से आरम्भ होगा, द्वितीय सप्ताह में थोड़ा थोड़ा बढ़ेगा, तथा तृतीय सप्ताह में पूरा क्रम होगा।
पुत्रेष्टि यज्ञ-रामायण में २ बार पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध का उल्लेख है। राजा दिलीप को यक्ष्मा हुआ था तो पुत्र प्राप्ति के लिए नन्दिनी गौ की २१ दिनों तक सेवा की। यहां अश्वमेध का अर्थ आन्तरिक अश्वमेध है। अश्व = क्रियात्मक प्राण। शरीर की नाड़ियों में इसके सञ्चार की बाधा दूर करना आन्तरिक अश्वमेध है। राज्य के भीतर यातायात तथा सञ्चार अबाधित रखना चक्रवर्त्ती राजा का कर्तव्य है जो आधिभौतिक अश्वमेध है। पृथ्वी की सभी क्रियाओं का स्रोत सूर्य का तेज है, अतः सूर्य को भी अश्व कहा गया है।
दिलीपस्तु महातेजा यज्ञैर्बहुभिरिष्टवान्। त्रिंशद् वर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत्॥८॥
अगत्वा निश्चयं राजा तेषामुद्धरणं प्रति। व्याधिना नरशार्दूल कालधर्ममुपेयिवान्॥९॥ (रामायण १/४२)
इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं महिष्या महनीय कीर्त्तेः।
सप्तव्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य॥ (रघुवंश २/२५)
सौर्यो वा अश्वः (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ३/१९)
राजा दशरथ तथा उनकी रानियां वृद्ध हो गये थे, अतः उनके शरीर को पुत्र जन्म योग्य बनाने के लिये अश्वमेध यज्ञ हुआ। यहां पुत्र कामेष्टि यज्ञ को अश्वमेध कहा गया है। यहां २१ दिन का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, पर २१ यूप २१-२१ अरत्नि के थे-
पुत्रार्थं हय (=अश्व) मेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम॥ तदहं यष्टुमिच्छामि हयमेधेन कर्मणा॥ (रामायण १/१२/९)
इसमें २१ स्तम्भ विभिन्न ३ प्रकार के काष्ठों के बनते हैं (रामायण १/१४/२२-२७)-
एकविंशति यूपास्ते एकविंशत्यरत्नयः। वासोभिरेकविंशद्भिरेकैकं समलंकृताः॥२५॥
यहा रघुवंश में २१ दिनात्मक यज्ञ को ३ गुणा ७ कहा गया है।
विष या कृमि से २१ दिन में मुक्ति-सूक्ष्म कृमि वायरस है। उससे या विष से शरीर की रक्षा एक ही प्रकार की क्रिया है। इसे दूर करने के लिए ऐण्टीबायोटिक भी एक विष ही है जो वायरस रूपी अन्य विष को नष्ट करता है-विषस्य विषमौषधम्। उसके कुप्रभाव से शरीर को सामान्य होने में २१ दिन लगता है, यह शरीर की शक्ति, आयु या मौसम पर निर्भर है। अष्टाङ्ग संग्रह में २१ दिन तथा सुश्रुत संहिता में १५ दिन में रोग से मुक्ति कही है।
अष्टाङ्ग हृदय, उत्तर स्थान, अध्याय ३७-श्वास दंष्ट्रा शकृन् मूत्र शुक्र लाला नखार्तवैः॥५८॥
अष्टाभिरुद्धमत्येषा विषं वक्राद् विशेषतः। लूता नाभेर्दशत्यूर्ध्व चाधश्च कीटकाः॥५९॥
तद्दूषितं च वस्त्रादि देहे पृक्तं विकारकृत्। दिनार्धं लक्ष्यते नैव दंशो लूता विषोद्भवः॥६०॥
सूची व्यघवदाभाति ततोऽसौ प्रथमेऽहनि। अव्यक्तवर्णः प्रचलः किञ्चित् कण्डूरुजान्वितः॥६१॥
द्वितीये ऽभ्युन्नतोऽन्तेषु पिटिकैरिव वाऽऽचितः। व्यक्त वर्णो नतो मध्ये कण्डूमान् ग्रन्थि सन्निभः॥६२॥
तृतीये स ज्वरो रोमहर्षकृद् रक्तमण्डलः। शराव रूपस्तोदाख्यो रोमकूपेषु सास्रवः॥६३॥
महाश्चतुर्थे श्वयथुस्ताप श्वास भ्रमप्रद। विकारान् कुरुते तास्तान् पञ्चमे विषकोपजान्॥६४॥
षष्ठे व्याप्नोति मर्माणि सप्तमे हन्ति जीवितम्। इति तीक्ष्णं विषं मध्यं हीनं च विभजेदतः॥६५॥
एकविंशति रात्रेण विषं शाम्यति सर्वथा॥६६॥
सुश्रुत संहिता, कल्प स्थान, अध्याय ८ में भी ऐसा ही वर्णन है। वायव्य कीट १८ प्रकार के हैं जिनमें वायरस भी है। इनकी चिकित्सा विष चिकित्सा जैसी है। यहां इनसे स्वस्थ होने का समय १ पक्ष (१५ दिन लिखा है)। कान्यकुब्ज के राजा विश्वामित्र तथा वसिष्ठ के संघर्ष में भी कई प्रकार के महाविष उत्पन्न हुए थे। यह आजकल के जैव-रसायन युद्ध की तरह था। सुश्रुत तथा अष्टाङ्ग हृदय दोनों में लिखा है कि ७ दिनों में मृत्यु हो सकती है।
सर्पाणां शुक्र विण्मूत्र शव पूत्यण्ड सम्भवाः। वाय्वग्न्यम्बु प्रकृतयः कीटास्तु विविधाः स्मृताः॥३॥
शतबाहुश्च यश्चापि रक्तराजिश्च कीर्तितः। अष्टादशेति वायव्याः कीटाः पवन कोपनाः॥७॥
(पवन कोपन कीट-मलेरिया, Mal + air = दूषित वायु)
खेभ्यः कृष्णं शोणितं याति तीव्रतस्मात् प्राणैस्त्यज्यते शीघ्रमेव॥६६॥
ईषत् सकण्डु प्रचलं सकोठमव्यक्तवर्णं प्रथमेऽहनि स्यात्।
अन्तेषु शूनं परिनिम्नमध्यं प्रव्यक्तरूपं च दिने द्वितीये॥८०॥
अतोऽधिकेऽह्नि प्रकरोति जन्तोर्विषप्रकोप प्रभवान् विकारान्॥८१॥
षष्ठे दिने विप्रसृतं तु सर्वान् मर्मप्रदेशान् भृशमावृणोति।
तत् सप्तमेऽत्यर्थ परीतगात्रं व्यापादयेन्मर्त्यमतिप्रवृद्धम्॥८२॥
यास्तीक्ष्ण चण्डोग्रविषा हि लूतास्ताः सप्तरात्रेण नरं निहन्युः।
अतोऽधिकेनापि निहन्युरन्या यासां विषं मध्यमवीर्यमुक्तम्॥८३॥
यासां कनीयो विषवीर्यमुक्तं ताः पक्षमात्रेण विनाशयन्ति॥८४॥
विश्वामित्रो नृपवरः कदाचिद् ऋषिसत्तमम्।
वसिष्ठं कोपयामास गत्वाऽऽश्रमपदं किल॥९०॥
कुपितस्य मुनेस्तस्य ललाटात् स्वेदविन्दवः। अपतन् दर्शनादेव रवेस्तत्सम तेजसः॥९१॥
ततो जातास्त्विमा घोरा नाना रूपा महाविषाः।
अपकाराय वर्तन्ते नृप साधन वाहने॥९१॥
५. यक्ष्मा आदि रोग-चरक संहिता, चिकित्सित स्थान, अध्याय ३ (श्लोक १४-२५) में परिग्रह (अन्न धन का अधिक सञ्चय) से रोग उत्पत्ति कही गयी है। द्वितीय युग में दक्ष यज्ञ के समय महेश्वर के क्रोध से उनका रुद्र रूप हुआ और तृतीय नेत्र से अग्नि निकली। शान्त होने पर शिव रूप हुआ तथा उस अग्नि का ज्वर रूप में जन्म हुआ। मन में क्रोध आदि विकार होने से ज्वर होता है। सुश्रुत संहिता, उत्तर तन्त्र (४१/५) के अनुसार राजा चन्द्र को सबसे पहले यक्ष्मा हुआ था, अतः इसे राजयक्ष्मा कहते हैं। दक्ष की २८ पुत्रियों (अभिजित् सहित २८ नक्षत्र) का विवाह चन्द्र से हुआ किन्तु चन्द्र केवल रोहिणी से प्रेम करते थे। अतः दक्ष शाप से उनको यक्ष्मा हुआ। अधिक विलास पूर्ण जीवन यक्ष्मा का कारण है। (अथर्व संहिता, ७/७६/३-६) टायफाइड अंग्रेजी नाम है जिसे मधुरक, सन्निपात या आन्त्रिक ज्वर कहते थे क्योंकि यह आन्त्र में कृमि प्रकोप से होता है। यह २१ दिनों में ठीक होता है अतः इसे मियादी बुखार भी कहते थे (मियाद = अवधि)।
६. टीकाकरण -चेचक के लिए टीकाकरण का उल्लेख मिलता है तथा भारत में प्राचीन काल से इसका इतिहास मिलता हैं। भारत से यह ज्ञान चीन तथा मिस्र गया था। चेचक की फुंसी को मसूरिका कहा है।
शब्द कल्पद्रुम, मसूरिका-
पर्यायवाची शब्द- वसन्त रोग, पापरोग, रक्तवटी, मसूरि।
उसकी ओषधि उत्पादन क्रिया टीका। यह गोस्तन या मनुष्य के मसूरिका द्रव से बनता है-
धेनुस्तन्यमसूरिका नराणाञ्च मसूरिका। तज्जलं बाहुमूलाच्च शस्त्रान्तेन गृहीतवान्॥
बाहुमूले च शस्त्राणि रक्तोत्पत्ति कराणि च। तज्जलं रक्तमिश्रितं स्फोटज्वर सम्भवम्॥
(इति धन्वन्तरि कृत शाक्तेय ग्रन्थः)
सुश्रुत संहिता, चिकित्सा स्थान, अध्याय ९-
अतोऽन्यतमेन घृतेन स्निग्धस्विन्नस्यैकां द्वे तिस्रश्चतस्रः पञ्च वा सिरा विध्येत्, मण्डलानि चोत्सन्नान्यवलि स्वेदभीक्ष्णं, प्रच्छयेद्वा। समुद्रफेन, शाक, गोजी, काकोदुम्बरिका पत्रैर्वा, अवधृष्यालेपयेल्लाक्षा सर्जर सरसाञ्जन प्रपुन्नाडा वल्गुजतेजोवत्यश्वमारकार्क, कुटजा, रेवत, मूलकल्कैर्मूत्र पिष्टैः, पित्त पिष्टैर्वा, स्वर्जिका तुत्थ कासीस विडङ्गागार धूमचित्रक कटुक सुधा हरिद्रा, सैन्धव कल्कैर्वा, एतान्येवावाप्य क्षार कल्पेन निःस्रुते पालाशे क्षारे ततो विपाच्य फाणीतमिव संजातमवतार्य लेपयेत्। ज्योतिष्क फल लाक्षा मरिच पिप्पली सुमनः पत्रैर्वा, हरिताल, मनःशिला, अर्कक्षीर, तिल, शीग्रु, मरिच कल्कैर्वा, स्वर्ज्ज्का, कुष्ठ, तुत्थ, कुटज, चित्रक, विडङ्ग, मरिचरोध्त, मनःशिला कल्कैर्वा, हरीतकी, करञ्जिका, विडङ्ग सिद्धार्थक लवण रोचना वल्गुज हरिद्रा कल्कैर्वा॥१०॥
७. शीतला पूजा –
नारद पुराण, अध्याय १/११७-
शुक्लाष्टम्यां फाल्गुनस्य शिवं चापि शिवां द्विज। गन्धाद्यैः सम्यगभ्यर्च्य सर्व सिद्धिकरो भवेत्॥९३॥
फाल्गुनापरपक्षे तु शीतलाष्टमी दिने। पूजयेत् सर्व पक्वान्नैः सप्तम्यां विधिवत् कृतैः॥९४॥
शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता। शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः॥९५॥
वन्देऽहं शीतला देवी रासभस्थां दिगम्बराम्। मार्जनी कलशोपेतां विस्फोटक विनाशिनीम्॥९६॥
शीतले शीतले चेत्थं ये जपन्ति जले स्थिताः। तेषां तु शीतला देवी स्याद् विस्फोटक शान्तिदा॥९७॥
इत्येवं शीतला मन्त्रैयः समर्चयते द्विज। तस्य वर्षं भवेच्छान्तिः शीतलायाः प्रसादतः॥९८॥
सर्व मासोभये पक्षे विधिवच्चाष्टमी दिने। शिवां वापि शिवं प्रार्च्य लभते वाञ्छितं फलम्॥९९॥
यह स्पष्टतः विक्रम पूर्व का उल्लेख है जब शुक्ल पक्ष से मास आरम्भ होता था।
स्कन्द पुराण, अध्याय ७/१३५-
तत्रैव संस्थितां पश्येद्देवीं दुःखांतकारिणीम्। शीतलेति पुरा ख्याता युगे द्वापरसंज्ञिते॥
कलौ पुनः समाख्यातां कलिदुःखान्तकारिणीम्॥१॥
शीतलं कुरुते देहं बालानां रोगवर्जितम्। पूजिता भक्तिभावेन तेन सा शीतला स्मृता॥२॥
विस्फोटानां प्रशांत्यर्थं बालानां चैव कारणात्। मानेन मापितान्कृत्वा मसूरांस्तत्र कुट्टयेत्॥३॥
शीतलापुरतो दत्त्वा बालाः सन्तु निरामयाः। विस्फोटचर्चिकादीनां वातादीनां शमो भवेत्॥४॥
श्राद्धं तत्रैव कुर्वीत ब्राह्मणांस्तत्र भोजयेत्। कर्पूरं कुसुमं चैव मृगनाभिं सुचन्दनम्॥५॥
पुष्पाणि च सुगन्धानि नैवेद्यं घृतपायसम्। निवेद्य देव्यै तत्सर्वं दंपत्योः परिधापयेत्॥६॥
नवम्यां शुक्लपक्षे तु मालां विल्वमयीं शुभाम्। भक्त्या निवेद्य तां देव्यै सर्वसिद्धिमवाप्नुयात्॥७॥
बालकों का रोग दूर कर यह शीतल करती है, अतः इसे शीतला कहा गया है। फाल्गुन कृष्ण अष्टमी (अमान्त मास के लिए, पूर्णिमान्त के लिए चैत्र कृष्ण अष्टमी) को यह पूजा होती है। रोग निवारण के लिये यह किसी भी अष्टमी तिथि को की जा सकती है। स्कन्द पुराण में चेचक के फोड़े को काटने का भी कहा हैं।
८. कृमि चिकित्सा-अथर्ववेद के अनुसार कुछ कृमि बाहर से प्रवेश करते हैं।
ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेषु ओषधीषु पशुस्वपस्वन्तः।
ये अस्माकं तन्व मा विविशुः। सर्वं तद् हन्मि ऽविं कृमीणाम्।(अथर्व, २/३१/५)
ओते मे द्यावापृथिवी ओता देवी सरस्वती।
ओतौ ये इन्द्राग्निश्च क्रिमि जम्भयतामिति॥ (अथर्व, ५/२३/१)
गण्डमाला के कृमि पक्षी जैसा उड़ कर शरीर में प्रवेश कर रोग उत्पन्न करते हैं।
पक्षी जायान्यः पतति स आविशति पूरुषम् (अथर्व, ७/७६/४)
रोग छूत से होते हैं-जूठा जल पीने, दूसरे के विस्तर पर सोने आदि से।
अपां मा पाने — शयने शयानम् (अथर्व, ५/२९/८)
भोज्य पदार्थों में भी कृमि रहते है-दूध, मट्ठा, कच्चे, अधिक पके या सड़े फलों में रहते हैं।
क्षीरे मा मन्थे — अशने धान्ये च। (अथर्व, ५/२९/७)
कीटाणुओं के प्रकार-(१) दृष्ट (दीखने वाले), (२) अदृष्ट (सूक्ष्म), (३) कुरुरु (भूमि पर रेंगने वाले), अलगण्डु (विषैले कृमि, विस्तर आदि में रहने वाले), (५) शलुन (काटने वाले कृमि, वेग से चलने वाले)।
दृष्टमदृष्टमतृहमथो कुरूरुमतृहम्।
आलगण्डून्त्सर्वाञ्छलुनान् क्रिमीन् वचसा जम्भयामसि॥ (अथर्व, २/३१/२)
कृमि पोषक भी हैं (सुनाम), रोग उत्पादक भी (दुर्णामन्)।
दुर्णामा च सुनामा चोभा सम्वृतमिच्छतः।
अरायान् अप हन्मः सुनामा स्त्रैणमिच्छताम्॥ (अथर्व, ८/६/४)
कुछ छोटे कृमि, कुछ बड़े, कुछ शब्द करते हैं, कुछ नहीं।
ये यक्ष्मासो अर्भका महान्तो ये च शब्दिनः।
सर्वा दुर्णामहा मणिः शतवारो अनीनशत्॥ (अथर्व, १९/३६/३)
कुछ ४ आंख वाले, कुछ विचित्र रंग के, कुछ श्वेत (अर्जुन) हैं।
विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमिं सारङ्गमर्जुनम्। (अथर्व, २/३२/२)
क्रिमि समान रूप के (सरूप), विरूप (विविध रूप के), कृष्ण (काले), बभ्रु (भूरे), बभ्रुकर्ण (भूरे कान वाले), शितिकक्ष (श्वेत पार्श्व के), शितिबाहु (श्वेत बाहु के), विश्व रूप (विविध रूप के या रंग बदलने वाले) हैं। ये सूक्ष्मदर्शी से देख कर ही कहा जा सकता है। कृमियों के आंख, कान, बाहु आदि उनके विभिन्न अंगों के नाम हैं, मनुष्य के आंख आदि की तरह नहीं।
सरूपौ द्वौ विरूपौ द्वौ कृष्णौ द्वौ रोहितौ द्वौ। बभ्रुश्च बभ्रुकर्णश्च गृध्रः कोकश्च ते हताः॥४॥
ये क्रिमयः शितिकक्षा ये कृष्णा शितिबाहवः। ये के च विश्वरूपास्ता क्रिमीन् जम्भयामसि॥५॥ (अथर्व, ५/२४)
कुछ क्रिमियों के बाल होते हैं-(केशवाः-अथर्व, ८/६/२३)
कुछ क्रिमियों के २ मुख, ४ आंख, ५ पैर होते हैं। इनके पैरों में अंगुली नहीं होती।
द्व्यास्याच्चतुरक्षात् पञ्चपादादनङ्गुरेः। (अथर्व, ८/६/२२)
कुछ क्रिमियों के पैर पीछे की तरफ होते हैं, एड़ी और मुंह आगे। कुछ क्रिमि खलिहान में, कुछ गोबर से और कुछ गोबर के धुंएं से।
येषां पश्चात् प्रपदानि पुरः पार्ष्णीः पुरो मुखा।
खलजाः शकधूमजा उरुण्डा ये च मट्मटाः कुम्भमुष्का अयाशवः। (अथर्व, ८/६/१५)
यहां शकधूम (गोबर के धुएं) से उत्पन्न कहा है। किन्तु गायों के स्थान या घर में गोबर के धुंए से कृमि हटाने का प्रचलन था।
क्रिमियों के निवास और उत्पत्ति स्थान हैं-पर्वत, वन, ओषधि, वनस्पति, पशु, जल।
ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुष्वप्स्वन्तः। (अथर्व, २/३१/५)
रोग क्रिमि इन स्थानों पर छिपे रहते हैं-आंख, नाक, कान, दाँत, आंत, सिर के भीतर, पसली में।
अन्वान्त्र्यं शीर्षर्ण्यमथो पार्ष्टेयं क्रिमीन्। अवस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन् वचसा जम्भयामसि॥ (अथर्व, २/३१/४)
सातवलेकर जी ने यहां वचसा का अर्थ वचा ओषधि किया है जो सुश्रुत संहिता आदि के अनुसार है।
यो अक्ष्यौ परिसर्पति यो नासे परिसर्पति। दतां यो मध्यं गच्छति तं क्रिमिं जम्भयामसि॥ (अथर्व, ५/२३/३)
नाक तथा आंख में वर्तमान कोरोना या काले फंगस (कृष्ण कृमि) का प्रभाव दीख रहा है।
कुछ रोग कृमियों के नाम हैं-येवाष, कष्कष, एजत्क, शिपिवित्नुक, नदनिमा, दुर्णाम, अलिंश, वत्सप, पलाल, अनुपलाल, शर्कु, कोक, मलिम्लुच (अधिक मास का भी नाम), पलीजक, आश्रेष, वव्रिवासस्, अक्षग्रीव, प्रमीलिन्।
येवाषासः कष्काषः एजत्काः शिंषवित्नुकाः। दृष्टश्च हन्यतां क्रिमिरुतादृष्टश्च हन्यताम्॥ (अथर्व, ५/२३/७)
दुर्णामा तत्र मा गृधदलिंश उत वत्सपः॥१॥
पलालानुपलालालौ शर्कुं कोकं मलिम्लुचं पलीजकम्।
आश्रेषं वव्रिवाससमृक्षग्रीवं प्रमीलिनम्॥२॥ (अथर्व, ८/६/१-२)
महाभारत शान्ति पर्व, अध्याय १५-
उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च। न च कश्चिन्नतान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापनात्॥२५॥
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्। पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः॥२६॥
सुश्रुत संहिता, निदान स्थान, अध्याय ५ में संक्रामक रोगों के फैलने का कारण लिखा है-
प्रसङ्गाद् गात्र संस्पर्शात् निश्वासात् सहभोजनात्।
सह शय्यासनाच्चापि वस्त्रमाल्यानुलेपनात्॥३३॥
कुष्ठं ज्वरश्च शोषश्च नेत्राभिष्यन्द एव च।
औपसर्गिक रोगाश्च संक्रामन्ति नरान्नरम्॥३४॥
अर्थात् संक्रमण के कारण हैं-(१) प्रसंग-सम्भोग से रतिज रोगों का संक्रमण होता है। भाव मिश्र ने फिरंगिण्य़ा प्रसंगतः का उल्लेख किया है, अर्थात् यूरोपीय संसर्ग से एड्स।
(२) गात्र संस्पर्शात्-शरीर के स्पर्श से। (३) निःश्वास-इनसे बचने के लिए अभी मास्क पहन रहे हैं।
(४) सह भोजन-साथ खाने या जूठन से, (५) सह-शय्या, (६) वस्त्र माल्यानुलेपन-रोगी के वस्त्र, माला, अनुलेपन द्रव्य (साबुन, तेल, क्रीम आदि) का प्रयोग।
✍🏻अरुण उपाध्याय