“परीक्षा” : – विद्यार्थी – अभिभावक – शिक्षा तंत्र
उमेश चतुर्वेदी
कोरोना महामारी की डराती अनगिनत कहानियों के बीच केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने संकेत दिया है कि दसवीं की तरह वह बारहवीं की परीक्षा भी रद्द कर सकता है। इस बीच मध्य प्रदेश सरकार ने भी दसवीं की बोर्ड परीक्षा रद्द कर दी है। दिलचस्प यह है कि बारहवीं की परीक्षा को लेकर अभिभावकों और विद्यार्थियों के अलग-अलग विचार सामने आ रहे हैं। बारहवीं के ज्यादातर छात्र सोशल मीडिया के मंचों पर परीक्षा के खिलाफ लगातार मीम्स बना रहे हैं। उनकी ख्वाहिश है कि दसवीं की तरह बारहवीं की भी परीक्षा रद्द कर दी जाए। अभिभावकों की सोच अलग है। वे बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता तो कर रहे हैं, लेकिन परीक्षा को रद्द करने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि बोर्ड परीक्षा लेने के लिए प्लान-बी तैयार करे या परीक्षा के लिए दूसरे विकल्पों पर विचार करे। अभिभावकों की इस सोच के साथ वे मेहनती और मेधावी छात्र भी हैं, जिन्होंने कठिन समय में भी लगातार दो साल तक बारहवीं की परीक्षा की तैयारी की है।
बारहवीं के छात्र युवावस्था की दहलीज पर पांव बढ़ा रहे होते हैं। इन छात्रों की सेहत की चिंता करना उनके अभिभावकों का ही नहीं, बल्कि समाज और सरकार का भी काम है। लेकिन परीक्षाओं को रद्द कर देना सेहत की चिंता का एक मात्र उपाय नहीं हो सकता। परीक्षा रद्द होने की स्थिति में छात्रों के मूल्यांकन के लिए चाहे जो भी वैकल्पिक इंतजाम किया जाए, उसका नतीजा जनरल मार्किंग के ही रूप में सामने आएगा। इसका खामियाजा भावी जिंदगी के पथ पर आगे बढ़ने वाले उन नौजवानों को भुगतना पड़ेगा, जो प्रतिभाशाली और मेहनती हैं। जिस तरह का शैक्षिक ढांचा हमने अख्तियार कर रखा है, उसमें छात्रों के उचित मूल्यांकन की राह परीक्षा की मौजूदा व्यवस्था से ही होकर गुजरती है। अभिभावक चूंकि अनुभवी हैं, जीवन पथ के तमाम थपेड़े झेल चुके हैं, लिहाजा उन्हें पता है कि अगर बारहवीं की परीक्षा में बच्चे को उसकी मेहनत और प्रतिभा के लिहाज से नंबर नहीं मिले तो भावी जिंदगी में उसकी चुनौतियां बढ़ जाएंगी। इसीलिए वे चाहते हैं कि बोर्ड परीक्षाओं को रद्द करने के बजाय इन्हें आयोजित करने का कोई सुरक्षित तरीका सोचे।
परीक्षाओं की अपनी पवित्रता रही है। इन परीक्षाओं के ही दम पर करीब डेढ़ सौ साल से जिंदगी की रपटीली राह की मंजिलें तय की जा रही हैं। रटंत परंपरा स्थापित करने को लेकर परीक्षाओं के मौजूदा ढर्रे की चाहे जितनी भी आलोचना होती रही हो, लेकिन आज की हकीकत यही परीक्षा प्रणाली है। ऐसा नहीं कि कोरोना खत्म होते ही परीक्षाओं के मौजूदा ढर्रे को एकाएक बदल दिया जाएगा। यही वजह है कि कोरोना संकट की तमाम चुनौतियों के बावजूद अब भी परीक्षाओं को लेकर एक खास तरह का आग्रह बना हुआ है। अनुभवी लोग, इसीलिए, नहीं चाहते कि परीक्षाओं को रद्द कर दिया जाए। हां, अगर विद्यार्थी के ज्ञान को जांचने का मौजूदा ढांचा बदला जाना हो तो बात अलग है। उस स्थिति में परीक्षाओं को रद्द किए जाने का चौतरफा स्वागत ही होगा। लेकिन यह अभी संभव होता नहीं दिख रहा। आज की व्यवस्था में निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान भी परीक्षाओं के मौजूदा पैटर्न के आधार पर ही अपनी या अपने संस्थान की मार्केटिंग करते हैं। जाहिर है, वे भी नहीं चाहेंगे कि परीक्षाओं का मौजूदा पैटर्न खत्म हो। इसलिए भी परीक्षाओं को रद्द करना बेहतर विकल्प नहीं माना जा रहा।
शिक्षा तंत्र के जानकार और शिक्षा शास्त्री इन्हीं वजहों से बार-बार कह रहे हैं कि परीक्षाओं की पवित्रता को बचाए रखना जरूरी है। यह तभी संभव होगा, जब परीक्षाएं होंगी। अब सवाल यह है कि कोरोना के चुनौतीपूर्ण समय में परीक्षा के पारंपरिक पैटर्न के अलावा और क्या तरीके हो सकते हैं इन्हें आयोजित करने के? इसका जवाब दिल्ली विश्वविद्यालय और कई अन्य विश्वविद्यालय इसी कोरोना काल में दे चुके हैं। उन्होंने अपने फाइनल साल वाले विद्यार्थियों की ना सिर्फ परीक्षा ली, बल्कि थोड़ी देर के बावजूद परीक्षाफल भी दे दिया। यह सच है कि इस क्रम में छात्रों को कुछ दिक्कतें उठानी पड़ीं। लेकिन संकट काल में एक राह तो निकली।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सीबीएसई अपनी तरफ से ऐसा कोई तरीका नहीं सोच सकता? ऑनलाइन परीक्षाओं की इतनी चर्चा हो चुकी है। आखिर ऑनलाइन परीक्षाएं क्यों नहीं ली जा सकतीं? इससे जुड़ी जो भी दिक्कतें हों, उन्हें दूर करने की कोशिश की जा सकती है। विद्यार्थियों को हर पेपर में तीन के बजाय चार घंटे का समय दिया जा सकता है। आशंका यह जताई जाती है कि विद्यार्थी अपने घरों पर किताब खोलकर सवालों के जवाब देख सकते हैं। लेकिन पुस्तकों से जवाब ढूंढना भी आसान नहीं। ये जवाब वही ढूंढ़ पाएंगे, जिन्होंने पढ़ाई की होगी। दूसरी बात, इसी बहाने पाठों का वे एक बार फिर रिवीजन भी कर सकेंगे। इस विकल्प में एक समस्या यह है कि बहुत विद्यार्थी ऐसे भी होंगे, जिनके पास एंड्रायड फोन या लैपटॉप नहीं होंगे। इसके लिए बोर्ड जिला स्तर पर इंतजाम कर सकता है। वहां सफाई और शारीरिक दूरी का ध्यान रखते हुए ऐसे छात्रों के लिए व्यवस्था की जा सकती है।
इच्छा शक्ति का सवाल
हो सकता है बोर्ड की ओर से कहा जाए कि इसके लिए उसे ज्यादा मानव श्रम की जरूरत होगी। लेकिन यह भी कोई ऐसी दिक्कत नहीं है जो दूर न की जा सकती हो। इस बहाने कुछ लोगों को थोड़े दिनों के लिए ही सही, पर रोजगार भी मिलेगा। लेकिन यह सब तभी संभव है, जब बोर्ड के पास मजबूत इच्छा शक्ति हो। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय भी खुले मन से इस दिशा में सोचे और विद्यार्थियों के भविष्य को देखते हुए थोड़ा लचीला रुख अपनाए। हां, वह कोरोना संक्रमण की भयावहता को ध्यान में रखते हुए शारीरिक दूरी समेत हिफाजत के तमाम उपायों पर कड़ी नजर जरूर रखी जाए।