स्वाध्याय से मनुष्य को मिलते हैं अनेकों लाभ : देश में जन्म ना जाति व्यवस्था का आरंभ 185 वर्ष ईसा पूर्व हुआ
ओ३म्
-स्वाध्याय से मनुष्य को अनेक लाभ-
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स्वाध्याय करना वैदिक धर्मियों के जीवन का अनिवार्य कार्य, आचरण एवं व्यवहार है। स्वाध्याय से प्रत्यक्ष लाभ ज्ञान की वृद्धि के रूप में सामने आता है। मनुष्य को सद्ग्रन्थों का ही स्वाध्याय करना चाहिये। ऐसा करने से ही मनुष्य के सद्ज्ञान में वृद्धि होती है। कुछ साहित्य ऐसा भी होता है जिसका अध्ययन जीवन को अपने लक्ष्य व उद्देश्य से दूर करता है और उससे उन्नति के स्थान पर मनुष्य का पतन होता है। अतः स्वाध्याय के लिये सत्य ज्ञान से युक्त ग्रन्थों का ही अध्ययन करना चाहिये। हमारी दृष्टि में स्वाध्याय के लिये सत्यार्थप्रकाश सर्वप्रमुख ग्रन्थ है।
इसका अध्ययन करने पर इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन करने की प्रेरणा मिलती है। वैदिक साहित्य में चार वेद, 6 दर्शन, 11 उपनिषद, विशुद्ध मनुस्मृति, आयुर्वेद के ग्रन्थ, वेदांगों का अध्ययन सहित रामायण एवं महाभारत आदि प्रमुख ग्रन्थ है। आर्य विद्वानों के शतशः ग्रन्थ भी स्वाध्याय हेतु उपयोगी हैं जिनसे मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन व तद्वत् आचरण कर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में प्रवृत्त होता है। अतः सभी मनुष्यों को स्वाध्याय करने का स्वभाव विकसित करना चाहिये जिससे भावी जीवन में उनको अनेकानेक लाभ मिल सकें।
इसी क्रम में हम एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। दो दिन पूर्व हमने परोपकारी पाक्षिक पत्रिका के अप्रैल प्रथम, 2021 अंक का सम्पादकीय पढ़ा। इस सम्पादकीय का शीर्षक है ‘‘डा. भीमराव अम्बेडकर, अरर्यसमाज और दलितोद्धार”। यह सम्पादकीय लेख प्रसिद्ध आर्य विद्वान डा. सुरेन्द्र कुमार जी ने लिखा है। हमें यह सम्पादकीय लेख ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी लगा। इस सम्पादकीय लेख से एक उद्धरण प्रस्तुत कर रहें हैं जिससे हमारा ज्ञानवर्धन हुआ है और हमें यह विदित हुआ कि देश में जन्मना जाति व्यवस्था का प्रचलन ईसा के जन्म से 185 वर्ष पूर्व हुआ था। लेख में दिया गया विवरण निम्न हैः-
‘‘उपयुक्त उद्धरणों (सम्पादकीय लेख की इन पंक्तियों के पूर्व भाग के लेख) से यह स्पष्ट होता है कि डा. अम्बेडकर प्राचीन वर्णव्यवस्था की वस्तविकता से भलीभांति परिचित थे और उसे मन के किसी कोने में स्वीकार करते थे। उनके उपर्युक्त उल्लेख से वह सिद्ध करते हैं कि वर्णव्यवस्था एक अच्छी व्यवस्था थी, जो जन्मना जातिव्यवस्था से भिन्न थी। उसमें जातिव्यवस्था जैसे दोष भी नहीं थे। डा. अम्बेडकर के अनुसार यह कर्मणा व्यवस्था पुष्यमित्र शुंग (185 ईसा पूर्व) तक चलती रही थी। उसके पश्चात जन्मना जाति-व्यवस्था ने उस (वर्णव्यवस्था) का स्थान ले लिया। इसका यह भी अभिप्राय निकला कि 185 वर्ष ईसा पूर्व तक भारत का साहित्य, धर्मशास्त्र, समाज व्यवस्था आदि किसी भी प्रकार की आपत्ति से रहित थे। आर्यसमाज भी अधिकांशतः इन्हीं निष्कर्षों को प्रस्तुत करता है। इस प्रकार आर्यसमाज और डा. अम्बेडकर के उक्त मन्तव्यों में समानता है। डा. अम्बेडकर ने आर्यसमाज के दलितोद्धार के महत्व को और वैदिक वर्णव्यवस्था को खुले शब्दों में स्वीकार किया है।”
इस उद्धरण से कई नई बातों का ज्ञान होता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे हमें यह विदित होता है कि ईसा से 185 वर्ष पूर्व तक भारत में जन्मना जाति व्यवस्था नहीं थी। यह पुष्यमित्र शुंग के समय से आरम्भ हुई जो ईसा से 185 पूर्व उत्पन्न हुए व विद्यमान थे। हमें यह उद्धरण प्रमाण कोटि का लगता है। इसके आधार पर यह अधिकारपूर्वक कहा जा सकता है कि सृष्टि के आरम्भ से लेकर ईसा से 185 वर्ष पूर्व तक भारत में जन्मना जातिव्यवस्था कहीं नहीं थी। इससे पूर्व गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था का ही सर्वत्र व्यवहार होता था।
स्वाध्याय के इस एक लाभ को देखकर हम नियमित स्वाध्याय से होने वाले ऐसे हजारों लाभों को प्राप्त कर सकते थे। अतः हम सबको प्रतिदिन अधिकाधिक स्वाध्याय करना चाहिये और इससे दूसरों को भी लाभान्वित करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य