राजा राममोहन राय और ईसाई मत
(राजा राम मोहन राय के जन्मदिन पर विशेष)
राजा राममोहन राय अपने काल के प्रसिद्द समाज सुधारकों में से थे। वे हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों के विरोध में आवाज़ उठाते थे। वे अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी भाषा के बड़े समर्थक भी थे। इसलिए अंगरेज उन्हें अपना आदमी समझते थे। सती प्रथा पर पर प्रतिबन्ध के लिए भी अंग्रेजों ने उन्हें सहयोग दिया था। राममोहन राय ने ग्रीक और हिब्रू भाषा का विस्तृत अध्ययन कर ईसाई मत के इतिहास और मान्यतायों का गहरा अध्ययन भी किया था।
उसी काल में ईसाईयों ने बंगाल के ईसाईकरण करण की योजना बनाई। यूरोप और अमेरिका से ईसाई मिशनरियों के जत्थे के जत्थे भर भर कर बंगाल आने लगे। ईसाइयत के प्रचार के लिए ईसाईयों ने ऐसे ऐसे तरीके अपनाये जो कोई मतान्ध व्यक्ति ही अपना सकता हैं। ईसाई पादरियों ने बड़ी संख्या में ऐसे साहित्य को प्रकाशित किया जिनमें हिन्दू देवी देवताओं के विषय में भद्दी भद्दी टिप्पणीयों की भरमार थी और ईसाइयत की भर भर का प्रशंसा थी। इस साहित्य को ईसाई पादरी गली-मोहल्लों, हिन्दू मंदिरों-मठों, चौराओं पर खड़े होकर जोर जोर से पढ़ते। अत्यंत गरीब और पिछड़े हुए हिन्दू ईसाईयों के विशेष निशाने पर होते थे। अंग्रेजी राज होने के कारण हिन्दू समाज केवल रोष प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ न कर पाता था। राजाराममोहन राय पादरियों की इस करतूत से अत्यंत क्षुब्ध हुए। उन्होंने ईसाईयों की ऐसी कुटिल नीतियों का अपनी कलम से विरोध करना आरम्भ कर दिया। जो अंग्रेज उनके कभी प्रगाढ़ साथी थे वे उनके मुखर विरोधी हो गए। राजा जी ने अनेक पुस्तकें ईसाइयत के विरोध में प्रकाशित की थीं। उन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी भाषा में द ब्राह्मणीकल मैगज़ीन (The Brahmanical Magazine) के नाम से पत्रिका भी प्रकाशित करनी आरम्भ की थी। इस पत्रिका के पहले अंक में ही उन्होंने ईसाई मिशनरियों के हिन्दुओं और मुसलमानों को ईसाई बनाने के तोर-तरीकों का पर्दाफाश किया था। राजा जी लिखते है कि अगर ईसाई मिशनरी में दम हो तो जिन देशों में अंग्रेजों का राज्य नहीं है जैसे इस्लामिक तुर्की आदि में इसी विधि से अपना प्रचार करके दिखाए। अंग्रेजी राज में ऐसा करना बड़ा सरल है। एक ताकतवर सत्ता का एक कमजोर प्रजा पर ऐसी गुंडागर्दी करना कौन सा बड़ा कार्य है।
राजा जी ने ईसाईयों के विभिन्न मतों में विभाजित होने और एक दूसरे का घोर विरोधी होने का विषय भी उठाया। उन्होंने लिखा की ईसाईयों में ही यूनिटेरियन (Unitarian) और फ्रीथिंकर (Free Thinker) जैसे अनेक समूह है जो ट्रिनिटी के सिद्धांत को बाइबिल सिद्धांत ही नहीं मानते। जैसा बाकि ईसाई समाज मानता है। रोमन कथोलिक, प्रोटोस्टेंट, यूनिटेरियन आदि एक दूसरे को कुफ्र और अपना विरोधी बताते हैं। यह कहां की ईसाइयत है?
राजा जी ने ईसाईयों के ट्रिनिटी सिद्धांत (Theory of Trinity) पर भी कटाक्ष किया। इस सिद्धांत के अनुसार एक ईश्वर, एक ईश्वर का दूत और एक पवित्र आत्मा। यह तीन भिन्न भिन्न सता हैं। जो एक भी है और अलग भी हैं। राजा जी का कहना था कि यह कैसे संभव है कि एक ईश्वर अपना ही सन्देश देने के लिए अपना ही दूत बन जायेगा ? अपना ही नौकर बनकर सूली पर चढ़ जायेगा? राजा जी ने इस विषय से सम्बंधित एक व्यंग भी प्रकाशित था। इस व्यंग के अनुसार एक यूरोपियन मिशनरी अपने तीन चीनी शिष्यों से पूछता है कि बाइबिल के अनुसार ईश्वर एक है अथवा अनेक। पहला शिष्य कहता है ईश्वर तीन हैं। दूसरा कहता है कि ईश्वर दो है और तीसरा कहता है कि कोई ईश्वर नहीं है। ईसाई मिशनरी उनसे इस उत्तर को समझाने का आग्रह करता है। पहला शिष्य कहता है कि एक ईश्वर, एक ईश्वर का दूत और एक पवित्र आत्मा के आधार पर ईश्वर तीन हुए। दूसरा कहता है कि ईश्वर का दूत अर्थात ईसा मसीह तो सूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। इसलिए तीन में से दो रह गए। तीसरा शिष्य कहता है कि ईसाईयों का एक ईश्वर ईसा मसीह था। जिसे 1800 वर्ष पहले सूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। इसलिए ईसाईयों का अब कोई ईश्वर नहीं है। प्रश्न पूछने वाला ईसाई मिशनरी हक्का बक्का रह गया।
राजा जी ईसाईयों के पाप क्षमा होने के सिद्धांत के भी बड़े आलोचक थे। उनका कहना था कि यह कैसे संभव है कि करोड़ो लोगों द्वारा किया गया पाप अकेले ईसा मसीह कैसे भुगत सकता है? पाप करे कोई अन्य और भुगते कोई अन्य। ईसा मसीह ने जब कोई पापकर्म ही नहीं किया तो वह क्यों अन्यों का पाप कर्म भुगते? क्या यह किसी निरपराध को भयंकर सजा देना और पापी को अपराध मुक्त करने के समान नहीं हैं? पापियों को पाप का दंड न मिलना और किसी अन्य को उसके पापों की सजा मिलना अव्यवाहरिक एवं असंभव है। इस खिचड़ी से अच्छा तो हिन्दुओं का कर्म फल सिद्धांत है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।
राजा जी ने बाइबिल में वर्णित चमत्कार की कहानियों की भी समीक्षा लिखी। बाइबिल में वर्णित चमत्कार की कहानियों को गपोड़े सिद्ध करते हुए राजा जी लिखते है कि जिन काल्पनिक कहानियों से ईसाई मिशनरी हिन्दुओं को प्रभावित करना चाहते है। उन कहानियों से कहीं अधिक विश्वसनीय एवं प्रभाव वाली कहानियां तो ऋषि अगस्तय, ऋषि वशिष्ठ , ऋषि गौतम से लेकर श्री राम, श्री कृष्ण और नरसिंघ अवतार के विषय में मिलती हैं। आखिर ईसाई मिशनरी ऐसा क्या प्रस्तुत करना चाहते हैं जो हमारे पास पहले से ही नहीं हैं?
राजा जी का वर्षों तक ईसाई पादरियों से संवाद चला। उनके प्रयासों से बंगाल के सैकड़ों कुलीन परिवारों से लेकर निर्धन परिवारों के हिन्दू ईसाई बनने से बच गए। राजा जी की इंग्लैंड में असमय मृत्यु से उनका मिशन अधूरा रह गया। ब्रह्मसमाज के बाद के केशवचन्द्र सेन जैसे नेता ईसाइयत, अंग्रेजीयत और आधुनिकता के प्रभाव में आकर हमारी ही संस्कृति के विरोधी बन गए। मगर राजा जी अपनी विद्वता और ज्ञान का सारा श्रेय अपने प्राचीन धर्मग्रंथों जैसे दर्शन-उपनिषद् आदि को ही आजीवन देते रहे।
इतिहास की पाठय-पुस्तकों में राजा जी को केवल सती प्रथा के विरोध में आंदोलन चलाने वाले के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं। मगर उनका हिन्दू समाज की ईसाइयत से रक्षा करने वाले बुद्दिजीवी के रूप में योगदान को साम्यवादी इतिहासकारों ने जानकार भुला दिया। राजा जी के योगदान को हम सदा स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे।
डॉ विवेक आर्य