रतन सिंह शेखावत
कुम्भलगढ़ राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ठ स्थान रखता है उदयपुर से ७० कम दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊँचा और 30 km व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के यश्वी महाराणा कुम्भा की सुझबुझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है | इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के दुसरे पुत्र संप्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर १४४३ से शुरू होकर १५ वर्षों बाद १४५८ में पूरा हुआ था | दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढलवाये जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था | वास्तु शास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर,जलाशय, बहार जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल,मंदिर,आवासीय इमारते ,यज्ञ वेदी,स्तम्भ, छत्रियां आदि बने है |
दुर्ग कई घाटियों व पहाडियों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा | इस दुर्ग में ऊँचे स्थानों पर महल,मंदिर व आवासीय इमारते बनायीं गई और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया वही ढलान वाले भागो का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया | इस दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुद्रढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है | इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है | महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है | महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा | यहीं पर प्रथ्विराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था | महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था |
हल्दी घाटी के युद्ध में हार के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे | इस दुर्ग के बनने के बाद ही इस पर आक्रमण शुरू हो गए लेकिन एक बार को छोड़ कर ये दुर्ग प्राय: अजेय ही रहा है लेकिन इस दुर्ग की कई दुखांत घटनाये भी है जिस महाराणा कुम्भा को कोई नहीं हरा सका वही परमवीर महाराणा कुम्भा इसी दुर्ग में अपने पुत्र उदय कर्ण द्वारा राज्य लिप्सा में मारे गए | कुल मिलाकर दुर्ग एतिहासिक विरासत की शान और शूरवीरों की तीर्थ स्थली रहा है माड गायक इस दुर्ग की प्रशंसा में अक्सर गीत गाते है :
कुम्भलगढ़ कटारगढ़ पाजिज अवलन फेर
संवली मत दे साजना,बसुंज,कुम्भल्मेर |
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