जयद्रथ वध के संबंध में हमारे समाज में कई प्रकार की भ्रांतियां बनी हुई हैं। इस संबंध में अज्ञानतावश लोगों का मानना है कि श्री कृष्ण ने दिन में ही अपनी माया से सूर्य को अस्त कर दिया था। जब अर्जुन जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं कर सका तब अर्जुन के आत्मदाह के लिए चिता बनाई गई। अर्जुन उस चिता में आत्मदाह के लिए स्वेच्छा से बैठ गया। तब पांडवों ने उसका धनुष और बाण भी चिता पर ही रख दिया। उनका कहना था कि यदि यह रहेंगे तो हमें इन्हें देख – देखकर अपने भाई की याद आएगी। क्या आप ऐसा सोच सकते हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर जैसे भाई के रहते हुए ऐसा निर्णय लिया जाता कि अर्जुन की यादों को भी समाप्त कर दिया जाता ? यद्यपि ऐसा कभी नहीं होता कि अपने प्रियजन के जाने के बाद उसकी याद ना आए। याद आना तो एक भीतर का विषय है जिसे आप किसी बाहरी चीज से रोक नहीं सकते।
कहा जाता है कि जब अर्जुन चिता पर बैठने लगा तो कौरव पक्ष में खुशी की लहर दौड़ गई। इस तमाशे को देखने के लिए अब उन सब में होड़ मच गई और वे सब अर्जुन की तथाकथित चिता की ओर तेज कदमों से बढ़ने लगे। वे सब एक साथ इकट्ठे होकर अर्जुन की चिता के पास आकर खड़े हो गए और अर्जुन पर भांति भांति के उपालंभ भी करने लगे। जो जयद्रथ अपनी प्राण रक्षा के लिए आज सारे दिन भयभीत रहा था, वह भी अर्जुन के लिए बन रही चिता को देखने के लिए निकट ही आकर खड़ा हो गया। क्योंकि अब वह अपनी रक्षा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त था कि अब उसे कोई नहीं मार सकता। उसके चेहरे पर खुशी का तेज था और भीतर से अब वह पूर्णतया निडर हो गया था। उसे इस बात की असीम प्रसन्नता थी कि अर्जुन जैसा उसका महाशत्रु अपने आप ही आत्मदाह के माध्यम से अपने जीवन का अंत कर रहा है।
लोक प्रचलित कथा के अनुसार जब श्री कृष्ण जी ने देखा कि जयद्रथ अर्जुन के इतने निकट खड़ा है कि यदि अर्जुन अब उसे मारना चाहे तो वह बड़े आराम से मारा जा सकता है तो उन्होंने अर्जुन को आदेश दिया कि पार्थ ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे बहुत निकट आकर खड़ा हो गया है, इसलिए तीर चलाओ और उसके जीवन का अंत कर डालो। इसके साथ – साथ ही श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को सूर्य की ओर संकेत करते हुए यह भी स्पष्ट कर दिया कि “देखो ! अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है। इसलिए तुम आत्मदाह के लिए बनी अपनी चिता से उठो और अपने शत्रु का यथाशीघ्र वध कर डालो।”
तब अर्जुन ने धनुष बाण उठाया और जयद्रथ की गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। कहा यह भी जाता है कि श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को यह भी बता दिया था कि जयद्रथ का सिर जमीन पर नहीं गिरना चाहिए बल्कि उसको ऐसे हथियार से उड़ाना कि वह दूर जंगल में तपस्या कर रहे उसके पिता की गोद में जाकर गिरे। क्योंकि जयद्रथ को अपने पिता की ओर से यह वरदान दिया गया है कि जो व्यक्ति उसके सिर को धरती पर गिराएगा उसका भी उसी समय सिर में विस्फोट होने से अपने आप देहांत हो जाएगा। अतः अर्जुन ने ऐसा बाण छोड़ा कि जयद्रथ का सिर कटकर दूर जंगल में तपस्या कर रहे उसके पिता की गोद में ही जाकर ही पड़ा। उसके पिता की जैसे ही आंखें खुलीं तो उन्होंने वह कटा हुआ सिर बिना देखे ही धरती पर फेंक मारा। उनके द्वारा हड़बड़ाहट में किए गए इस कार्य से तुरंत उनके सिर में भी विस्फोट हुआ और वह समाप्त हो गए।
जिस समय जयद्रथ का सर संधान करके अर्जुन ने उसके जीवन का अंत किया उसी समय लोगों ने देखा कि आकाश में सूर्य चमक रहा है, उसी समय लोगों को यह ज्ञात हुआ कि यह सब तो श्री कृष्ण की माया थी।
यह सारा वर्णन महाभारत की वास्तविक घटना के सर्वथा विपरीत है। महाभारत के द्रोण पर्व के 21वें अध्याय को यदि पढ़ा जाए तो वहां पर हमको वास्तविकता का पता चलता है कि अर्जुन ने द्वंद युद्ध में जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा की थी। अर्जुन की यह प्रतिज्ञा पूर्ण न हो इसके लिए कौरव दल ने भी अपनी पूरी रणनीति बना ली थी। कौरव पक्ष के 6 महारथी उस दिन जयद्रथ की प्राण रक्षा के लिए नियुक्त कर दिए गए थे।
श्री कृष्ण ने उन सारे महारथियों को युद्ध से दूर करने के लिए ही अपनी योजना पर विचार करना आरंभ किया। अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए उन्होंने दिन में सूर्य को अस्त कर दिया और वह भी इस प्रकार कि सभी योद्धाओं यहां तक कि अर्जुन को भी यह दिखलाई देता था कि सूर्य अस्त हो गया। परंतु जयद्रथ को ऐसा दिखाई दे रहा था कि अभी सूर्य
अस्त नहीं हुआ है। वह गर्दन उठाकर बार-बार देख रहा था कि अभी सूर्यास्त में कितना समय बाकी है ? अर्जुन को श्रीकृष्ण ने सावधान कर ही दिया था। शेष महारथियों ने जब देखा कि सूर्यास्त हो गया है तब वह या तो लड़े ही नहीं अथवा बेमन से लड़े । जयद्रथ को यह दिखाई दे रहा था कि सूर्यास्त नहीं हुआ है। इसलिए वह पूर्ण उत्साह से लड़ता रहा । इस प्रकार जयद्रथ लड़ते हुए मारा गया । बिना युद्ध करते हुए धोखे से नहीं मारा गया। ना ही अर्जुन के लिए चिता बनाने की स्थिति उत्पन्न हुई और जब चिता ही नहीं बनी तो उसके हथियारों को पांडवों के द्वारा उसके चिता में रखने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। दिन में सूर्य को अस्त कर देना यह श्री कृष्ण का युद्ध कौशल था। जिसे उस काल में केवल वही जानते थे। सामान्यतया जब किसी कथावाचक या विद्वान को किसी घटना या वस्तु की वास्तविकता का बोध नहीं होता है तो वह उसको चमत्कारों से जोड़ देता है और किसी व्यक्तित्व के साथ उसे इस प्रकार दिखाने का प्रयास करता है कि इसे केवल वही कर सकते थे। हमें ध्यान रखना चाहिए कि शत्रु को उत्तेजित करने और उसे परेशानी में डालने के उद्देश्य से द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी ने भी ऐसे प्रयोग कई बार किए थे।
इस घटना का वर्णन करते हुए संजय ने धृतराष्ट्र को जो संवाद सुनाया उसका कुछ सार यहां पर प्रस्तुत है। यह वर्णन द्रोण पर्व के 21 वें अध्याय से हम प्रस्तुत कर रहे हैं।
“प्रभु ! उस घोर संग्राम में आपके पक्ष का जो जो योद्धा पांडु नंदन अर्जुन की ओर बढ़ा, उस उसके शरीर पर प्राणान्तकारी बाण पड़ने लगे। इस समय जबकि सूर्यदेव तीव्र गति से अस्ताचल की ओर जा रहे थे उतावले हुए श्री कृष्ण ने पांडु पुत्र अर्जुन से कहा कि – “महाबाहु पार्थ ! यह सिंधुराज जयद्रथ प्राण बचाने की इच्छा से अब भयभीत होकर खड़ा है, और उसे 6 महारथियों ने अपने बीच में कर रखा है।”
“नरश्रेष्ठ अर्जुन ! युद्ध भूमि में इन 6 महारथियों को पराजित किए बिना सिंधुराज को बिना माया के जीता नहीं जा सकता। अतः मैं सूर्य को ढकने के लिए कोई युक्ति करूंगा। जिससे सभी को सूर्य अस्त हुआ दिखाई देगा परंतु जयद्रथ को सूर्य उदित ही दिखाई देगा।”
“कुरुश्रेष्ठ ! वैसा अवसर आने पर तुम्हें अवश्य उस पर प्रहार करना चाहिए ।इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि सूर्य अस्त हो गया है।”
“प्रजेश्वर ! श्री कृष्ण द्वारा अंधकार की सृष्टि होने पर सूर्यास्त हो गया। ऐसा मानते हुए आपके योद्धा अर्जुन का विनाश निकट देख हर्ष मग्न हो गए। उस युद्ध भूमि में हर्ष मग्न हुए आपके सैनिकों ने सूर्य की ओर देखा तक नहीं। केवल राजा जयद्रथ उस समय बार बार मुंह ऊंचा करके सूर्य की ओर देख रहा था।”
सिंधु राज जयद्रथ जब इस प्रकार सूर्य की ओर देखने लगा तब श्री कृष्ण पुनः अर्जुन से इस प्रकार बोले – “भरत कुलभूषण ! देखो यह वीर सिंधुराज अब तुम्हारा युद्ध में भय छोड़कर सूर्य की ओर दृष्टिपात कर रहा है। महाबाहु ! इस दुरात्मा के वध का यही अवसर है। तुम शीघ्र इसका मस्तक काट डालो और अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करो।”
“तब अर्जुन ने सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी बाणों द्वारा आपकी सेना को मौत के घाट उतारना आरंभ कर दिया । उन्होंने कृपाचार्य को 20 , कर्ण को 50, शल्य और दुर्योधन को 6- 6 बाण मारे।”
“इसी प्रकार महाबाहु पांडु पुत्र अर्जुन ने आपके अन्य सैनिकों को भी बाणों द्वारा गहरी चोट पहुंचाकर जयद्रथ पर धावा बोला। अपनी लपटों से सबको चाट जाने वाली अग्नि के समान अर्जुन को निकट खड़ा देख जयद्रथ के रक्षक भारी संकट में पड़ गए। वहां हम लोगों ने कुंती कुमार का अद्भुत पराक्रम देखा । महा यशस्वी वीर ने उस समय जो पराक्रम प्रकट किया था वैसा न तो पहले कभी प्रकट हुआ था और न आगे कभी होगा ही।”
जैसे संहारकारी रुद्र समस्त प्राणियों का विनाश कर डालते हैं उसी प्रकार उन्होंने हाथियों और हाथी सवारों को, घोड़ों और घुड़सवारों को तथा रथ और रथियों को भी नष्ट कर दिया।”
“महाराज ! इस प्रकार आपके महारथियों को व्याकुल करके पांडु पुत्र अर्जुन ने एक अग्नि के समान तेजस्वी और भयंकर बाण निकाला ।”
कुरुनन्दन ! महाबाहु अर्जुन ने उस बाण को विधिपूर्वक वज्र अस्त्र से संयोजित करके शीघ्र ही गांडीव धनुष पर रखा । जब अर्जुन अग्नि के समान तेजस्वी उस बाण का संधान करने लगे तब श्री कृष्ण फिर से उतावले हो कर बोले – “धनंजय ! तुम दुरात्मा सिंधु राज का मस्तक शीघ्र काट डालो, क्योंकि सूर्य अब पर्वत श्रेष्ठ अस्ताचल पर जाना ही चाहता है ।”
“श्री कृष्ण का यह वचन सुनकर अपने ओठों के दोनों कोने चाटते हुए अर्जुन ने सिंधुराज के वध के लिए धनुष पर रखे हुए उस बाण को तुरंत ही छोड़ दिया। गांडीव धनुष से छूटा हुआ वह शीघ्रग्रामी बाण सिंधुराज का सिर काटकर बाज पक्षी के समान उसे आकाश में ले उड़ा।”
राजन ! भरत भूषण किरीटधारी अर्जुन के द्वारा सिंधु राज जयद्रथ के मारे जाने पर श्री कृष्ण ने अपने रचे हुए अंधकार को समेट लिया।
भूपाल ! तब सेवकों सहित आपके पुत्रों को यह ज्ञात हुआ कि इस अन्धकार के रूप में श्री कृष्ण द्वारा फैलाई हुई माया थी ।
इस प्रकार अमित तेजस्वी अर्जुन ने राजन ! आपकी 8 अक्षौहिणी सेनाओं का संहार करके आपके दामाद सिंधु राज जयद्रथ को मार डाला।
अतः महाभारत में दिए गए इस विवरण से सिध्द होता है कि अर्जुन ने युद्ध जारी रखते हुए ही जयद्रथ का वध किया था । इस विवरण में कहीं पर भी यह उल्लेख नहीं है कि जयद्रथ का सिर उसके पिता की गोद में जाकर ही गिरे – ऐसा कोई संकेत श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को दिया था ? यहां पर केवल इतना संकेत है कि गांडीव धनुष से छूटा हुआ वह शीघ्रग्रामी बाण सिंधुराज का सिर काटकर बाज पक्षी के समान उसे आकाश में ले उड़ा। यहां पर उपमा अलंकार का प्रयोग किया गया है। निश्चित रूप से बाण की शक्ति के समाप्त होने पर यह सिर दूर जाकर धरती पर गिर गया होगा । उपमा अलंकार में वर्णित इस घटना को मूर्खों ने कुछ दूसरे तरीके से हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया जो कि बहुत ही गलत है। हमें लोक प्रचलित कथाओं की मूर्खतापूर्ण बातों में भटकना नहीं चाहिए बल्कि मूल विषय से जुड़कर अध्ययन के द्वारा सत्यार्थ को निकालने का प्रयास करना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक ; उगता भारत