डॉ विवेक आर्य
1200 वर्ष का इतिहास उठाकर देखिये। हिन्दू समाज विदेशी आक्रमणकरियों के सामने अपनी एकता की कमी के चलते गुलाम बने। इस सामाजिक एकता की कमी का क्या कारण था? इस लेख के माध्यम से हम हिंदुओं में एकता की कमी के कारणों का विश्लेषण करेगे।
- हिन्दू समाज में ईश्वर को एक मानने वाले (एकेश्वरवादी), अनेक मानने वाले ( अनेकेश्वरवादी) एवं ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करने वाले (नास्तिक) सभी अपनी परस्पर विरोधी मान्यताओं को पोषित करने में लगे रहते हैं। जबकि वेदों में केवल एक ईश्वर होने का विधान बताया गया है। अनेक मत होने के कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
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हिन्दू समाज अनेक सम्प्रदाय, मत-मतान्तर में विभाजित हैं। हर मत-सम्प्रदाय को मानने वाला केवल अपने मत को श्रेष्ठ, केवल अपने मत को चलाने वाले अथवा मठाधीश को सत्य, केवल अपने मत की मान्यताओं को सही बताता हैं। बहुदा इन मान्यताओं में परस्पर विरोध होता हैं। इस कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
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हिन्दू समाज में कुछ लोग नारी को श्रेष्ठ समझते है जबकि कुछ निकृष्ठ समझते हैं, कुछ जातिवाद और छुआछूत को नहीं मानते, कुछ घोर जातिवादी है। इस कारण से अनेक हिन्दू समाज के सदस्य धर्म परिवर्तन कर विधर्मी भी बन जाते हैं। इस कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
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हिन्दू समाज एक जैन भी हिन्दू कहलाता है जिसके अनुसार सर की जूं को मारना घोर पाप है जबकि एक सिख भी हिन्दू है जो झटका तरीके से मुर्गा-बकरा खाना अपना धर्म समझता है। परस्पर विरोधी मान्यताओं के कारण दोनों का आपस में तालमेल नहीं है। इस कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
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हिन्दू समाज में कोई निराकार ईश्वर का उपासक है। कोई साकार ईश्वर का उपासक है। कोई अपने गुरु अथवा मठाधीश को ही ईश्वर समझता है। कोई पर्वत, पेड़, पत्थर सभी को ईश्वर समझ कर ईश्वर की पूजा करता है। कोई सब कुछ स्वपन बताता है। कोई माया का प्रभाव बताता है। अनेक मान्यताओं, अनेक पूजा-विधियों आदि होने के कारण हिन्दू समाज भ्रमित है। इस कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
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एक मुसलमान के लिए क़ुरान अंतिम एवं सर्वमान्य धर्म पुस्तक है। एक ईसाई के लिए बाइबिल अंतिम एवं सर्वमान्य धर्म पुस्तक है। एक हिन्दू के लिए वेद, पुराण, गीता, मत विशेष की पुस्तक तक अनेक विकल्प होने के कारण हिंदुओं में एकमत नहीं हैं। सभी अपनी अपनी पुस्तक को श्रेष्ठ और अन्य को गलत बताते है। इस कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
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हिन्दू समाज में पूजा का स्वरुप निरंतर बदल रहा है। एक मुसलमान वैसे ही नमाज पढ़ता है, जैसे उसके पूर्वज करते थे। एक ईसाई वैसे ही बाइबिल की प्रार्थना करता है , जैसे उसके पूर्वज करते थे। एक हिन्दू निरंतर नवीन नवीन प्रयोग ही करने में लगा हुआ है। पहले वह वेद विदित निराकार ईश्वर की उपासना करता था। बाद में ईश्वर को साकार मानकर श्री राम और कृष्ण कि मूर्तियां बना ली। उससे पूर्ति न हुई तो विभिन्न अवतार कल्पित कर लिए। प्रयोग यहाँ तक नहीं रुका। आज 33 करोड़ देवी देवता कम पड़ गए। इसलिए साईं बाबा उर्फ़ चाँद मियां और अजमेर वाले ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की कब्रों पर सर पटकते फिरते है। आगे संभवत सुन्नत करवाने और कलमा पढ़ने की तैयारी है। जहाँ ऐसी अंधेरगर्दी होगी वहां पर एक मत होना असंभव है। इस कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
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एक ईसाई अगर ईसाई मत छोड़ता है तो पूरे ईसाई मत में खलबली मच जाती है। एक मुसलमान अगर इस्लाम छोड़ता है तो पूरे इस्लाम जगत में फतवे से लेकर जान से मारने की कवायद शुरू हो जाति है। मगर जब कोई हिन्दू धर्म परिवर्तन करता है तो कोई हो-हल्ला नहीं होता। एक सामान्य हिन्दू यह सोचता है कि उसका लोक-परलोक न बिगड़े दूसरे से क्या लेना हैं। यह दूसरे के दुःख-सुख में भाग न लेने की आदत के कारण हिंदुओं में एक मत नहीं है। इस कारण से हिंदुओं में एकता स्थापित नहीं हो पाती।
स्वामी श्रद्धानंद इन्हीं कारणों से हिन्दू धर्म को चूं-चूं का मुरब्बा कहते थे। स्वामी दयानंद के अनुसार जब तक एक धर्म पुस्तक वेद, एक पूजा विधि, एक भाषा प्रचलित नहीं होगी तब तक हिन्दू समाज संगठित नहीं हो सकता।