बालकों का धर्मयुद्ध
जब से विश्व इतिहास में मजहब का हस्तक्षेप बढ़ा तबसे एक नई प्रवृत्ति देखने को मिली। जिसके अन्तर्गत क्रूर शासकों ने बच्चों और महिलाओं के साथ भी अमानवीय अत्याचार किए। उससे पूर्व के मानव इतिहास में ऐसी घटनाएं नहीं हुईं। विशेष रुप से भारत के आर्यावर्तकालीन इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता जब भारत के किस शासक ने या सम्प्रदाय विशेष के किसी मुखिया ने बच्चों और महिलाओं के साथ अत्याचार करने के कोई आदेश जारी किए हों या किसी ऐसी घटना को अंजाम दिया हो ।
सन् 1212 में विश्व इतिहास की एक विचित्र घटना घटित हुई । जब फ्रांस के स्तेफ़ाँ नाम के एक किसान ने भोली-भाली जनता की मजहबी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए यह घोषणा की कि उसे ईश्वर ने मुसलमानों को परास्त करने के लिए भेजा है। उसने यह भी घोषणा की कि वह अपनी युक्ति और बल से मुसलमानों को पराजित करके ही दम लेगा। उसका कहना था कि मुसलमानों की यह पराजय बालकों के द्वारा होगी। सचमुच इस व्यक्ति का यह मजहबी उन्माद ही था, जिसने उस समय जनसामान्य पर बड़ा ही आश्चर्यजनक प्रभाव डाला । लोग उसकी बातों में आ गए और उन्होंने यह मान लिया कि वह जो कुछ कह रहा है, ठीक ही कह रहा है।
उसके इस प्रकार के मजहबी उन्माद ने फिर से ईसाई जनता के भीतर मजहबी भावनाओं को भड़काने का काम किया। विश्व इतिहास में पहली बार 12 वर्ष से कम अवस्था के 30,000 बालक बालिकाएँ इस काम के लिए सात जहाजों में फ्रांस के दक्षिणी बंदर मारसई से चले। धार्मिक विश्वास में अंधे हुए इन बालकों के भीतर भी एक अद्भुत विश्वास था। जिसके आधार पर वह भी मान रहे थे कि वह अपने प्रयोजन में सफल होंगे । पर ऐसा हुआ नहीं। दो जहाज तो समुद्र में समस्त यात्रियों समेत डूब गए, शेष के यात्री सिकंदरिया में दास बनाकर बेच दिए गए। इनमें से कुछ 17 वर्ष उपरान्त एक संधि द्वारा मुक्त हुए।
‘विकिपीडिया’ के अनुसार इसी वर्ष एक दूसरे उत्साही ने 20,000 बालकों का दूसरा दल जर्मनी में खड़ा किया और वह उन्हें जेनेवा तक ले गया। वहाँ के बड़े पादरी ने उन्हें लौट जाने का परामर्श दिया। लौटते समय उनमें से बहुत से पहाड़ों की यात्रा में मर गए।
बालक किसी भी देश की बहुत बड़ी संपदा होते हैं। यही कारण है कि क्रूर से क्रूर बादशाह भी अपने देश के बच्चों की रक्षा करने को अपना दायित्व मानते रहे हैं , पर मजहब की उन्मादी सोच बच्चों के साथ भी क्या करवा दे ? – कुछ कहा नहीं जा सकता। इसी उन्मादी सोच का उदाहरण है इतिहास की यह भयंकर घटना है। जिसमें 50000 बच्चों को मजहब की उन्मादी सोच ने बलि का बकरा बना दिया।
इसके उपरान्त भी लोगों का मन मजहब की उन्मादी सोच से ऊबा नहीं । इतना ही नहीं ,आज तक भी लोग मजहब के इस प्रकार के उन्मादी कार्यों को भूलकर उसी के वशीभूत होकर अनेकों कार्य करते देखे जाते हैं। जिससे पता चलता है कि मनुष्य समाज अपने अतीत से या अपने इतिहास से कुछ शिक्षा लेना नहीं चाहता। वह भेड़ चाल चलते रहने में विश्वास रखता है। मजहब भी लोगों की इसी भेड़चाल से प्रसन्न रहता है । वह भी नहीं चाहता कि इतिहास का सच लोगों की समझ में आए, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो मजहब का भूत लोगों के मस्तिष्क से उतर जाएगा।
पाँचवाँ क्रूश युद्ध (1228-29)
1228-29 में सम्राट् फ्रेडरिक द्वितीय ने मिस्र के शासक से संधि करके, पवित्र भूमि के मुख्य स्थान जरूसलम बेथलहम, नज़रथ, तौर और सिदान तथा उनके आसपास के क्षेत्र प्राप्त करके अपने को जेरूसलम के राजपद पर अभिषिक्त किया।
छठा क्रूश युद्ध (1248-54)
कुछ ही वर्ष उपरान्त जेरूसलम फिर मुसलमानों ने छीन लिया। जलालुद्दीन, ख्वारज़्मशाह, जो खोबा का शासक था, चगेज़ खाँ से परास्त होकर, पश्चिम गया और 1144 में उसने जेरूसलम लेकर वहाँ के पवित्र स्थानों की क्षति पहुँचाई और निवासियों की हत्या की।
इस पर फ्रांस के राजा लुई नवें ने (जिसे संत की उपाधि प्राप्त हुई) 1248 और 54 के बीच दो बार इन स्थानों को फिर से लेने का प्रयास किया। फ्रांस से समुद्रमार्ग से चलकर वह साइप्रस पहुँचा और वहाँ से 1249 में मिरुा में दमिएता ले लिया, पर 1250 में मसूरी की लड़ाई में परास्त हुआ और अपनी पूरी सेना के साथ उसने पूर्ण आत्मसमर्पण किया। चार लाख स्वर्णमुद्रा का उद्धार मूल्य चुकाकर, दामएता वापस कर मुक्ति पाई। इसके उपरान्त चार वर्ष उसने एकर के बचाव का प्रयास किया, पर सफल न हुआ।
सप्तम क्रूश युद्ध (1270-72)
जब 1268 में तुर्को ने ईसाइयों से अंतिअकि ले लिया, तब लुई नौंवे ने एक और क्रूश युद्ध किया। उसको आशा थी कि उत्तरी अफ्रीका में त्यूनस का राजा ईसाई हो जाएगा। वहाँ पहुँकर उसने काथेज 1270 ई0 में लिया, पर थोड़े ही दिनों में वह प्लेग से मर गया। इस युद्ध को उसकी मृत्यु के बाद इंग्लैंड के राजकुमार एडवर्ड ने, जो आगे चलकर राजा एडवर्ड प्रथम हुआ, जारी रखा। यद्यपि उसने अफ्रीका में और कोई कार्यवाही नहीं की। वह सिसला होता हुआ फिलिस्तीन पहुँचा। उसने एकर का घेरा हटा दिया और मुसलमानों को दस वर्ष के लिए युद्धविराम करने को बाध्य किया। एकर ही एक स्थान फिलिस्तीन में ईसाइयों के हाथ में बचा था और वह अब उनके छोटे से राज्य की राजधानी थी। 1291 में तुर्को ने उसे भी ले लिया।
यह लेख हमने ‘विकिपीडिया’ की सहायता से तैयार किया है । इस लेख को तैयार करने का उद्देश्य केवल यह दिखाना है कि मजहब के आधार पर संसार को कितने भयानक युद्धों का सामना करना पड़ा है? और कितनी देर तक राजनीतिक व धार्मिक सत्ता मजहब की उन्मादी सोच से पगलाई रही ? वह समय नैतिक- अनैतिक, नीतिगत- अनीतिगत कुछ भी देखने का नहीं था । सब कुछ मजहबी उन्मादी सोच के वशीभूत हो गया था।
कालांतर में जब खलीफा और पोप की शक्तियां या तो छीनी गईं या बहुत सीमित की गईं तो उसका कारण केवल यही था कि लोगों को बहुत कुछ लुटने पिटने के पश्चात यह बोध हुआ कि मजहब के ठेकेदारों से मुक्ति प्राप्त करना ही उचित होगा। यद्यपि मजहब के ठेकेदारों का हस्तक्षेप जनसामान्य के जीवन में आज भी बना हुआ है । इतिहास के काले पृष्ठों से आज के मानव समुदाय को शिक्षा लेनी चाहिए और वेदसंगत, नीतिसंगत ,धर्मसंगत व सृष्टि नियमों के अनुकूल शिक्षा पद्धति को लागू कर भोली भाली जनता को मजहब के ठेकेदारों से मुक्ति दिलाने के लिए एक वैश्विक क्रान्ति का आयोजन किया जाना चाहिए। यद्यपि जब विश्व ईसाइयत और इस्लाम के दो खेमों में बंटा हुआ स्पष्ट दिखाई दे रहा हो, तब इस प्रकार की वैश्विक क्रान्ति की कठिनाइयों और असम्भावनाओं को बड़ी सरलता से समझा जा सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत