Random_Musings_On_Bhagwat_Gita: Going On..
थोड़े साल पहले जब भारत में टेलीवीजन आया तो मोहल्ले के एक टीवी के आगे इलाके के सब लोग जुटते। उस से पहले तक ऐसा ट्रांजिस्टर के लिए होता हा। भारत के लिए ये अनोखी चीज़ें थी। गावों में तो आज भी चुक्की-माली बैठ कर, एक ट्रांजिस्टर पर समाचार सुनता पूरा चौपाल दिखाई दे जाता है। कई बुजुर्ग कहीं दूर, अनजान सी दिल्ली में घट रही घटनाओं को उसी दिन सुन लेना आज भी जादू मानते हैं। हिंदी फिल्मों में आम तौर पर ऐसे कम जानने वाले, गरीब से ग्रामीणों-मजदूरों को दिखाने से सख्त परहेज रखा जाता है।
कोशिश करने पर शायद आप याद कर पायेंगे कि फिल्मों में आखरी बार किसान, नत्था नाम का आत्महत्या करने वाला दिखा था। मजदूर ? वो शायद अमिताभ बच्चन की एक कोयला खान वाली फिल्म में था। एक अनजान सी ही फिल्म सिटीलाइट्स में भी कुछ मजदूर जैसा दिखा होगा। मुख्यधारा की हिंदी फ़िल्में, ऐसी चीज़ों से छूत की बिमारी के जैसा दूर रहती हैं। ये भी एक वजह है, जिसके कारण जब संघर्षों की कहानी देखनी हो तो आपको अंग्रेजी फ़िल्में देखनी पड़ती हैं। सन 1999 में आई फिल्म “अक्टूबर स्काई” की कहानी भी पुराने रेडियो वाले दौर में शुरू होती है।
कहानी की शुरुआत होती है जब अक्टूबर 1957 में रेडियो पर लोग सोवियत रूस के स्पुतनिक नाम के राकेट के अन्तरिक्ष में छोड़े जाने की खबर सुन रहे होते हैं। ये एक छोटा सा अमेरिकी क़स्बा होता है, जहाँ से बच्चे अक्टूबर के महीने के साफ़ आसमान में राकेट गुजरने का नजारा देख रहे होते हैं। ये मामूली सी जगह थी जहाँ लोग एक खान में खुदाई और मजदूरी से गुजारा करते थे। छोटी-साधारण सोच के लोग जो एक अदद नौकरी से आगे सोचते ही नहीं, उनके बीच के एक बच्चे होमर को ये अन्तरिक्ष में राकेट का जाना पसंद आ जाता है। बस वो राकेट बनाने में जुट जाता है।
साधारण लोगों के बीच असाधारण सोचने की जुर्रत ? वो भी एक बच्चे की ! उसके दोस्त, पड़ोसी, ख़ास तौर पर उसके पिता को होमर की ये हरकत फूटी आँख नहीं भाती। उसके पिता खान में सुपरिटेन्डेन्ट थे और बेटे के लिए ऐसा ही भविष्य सोचते थे। उनके हिसाब से मेहनत मजदूरी से चार पैसे कमा पाता, सुपरिटेन्डेन्ट होता तो लोगों में इज्जत भी होती। बेवकूफी भरी राकेट भेजने की योजना को वो कतई सहमती नहीं दे सकते थे। बच्चे के पास अच्छी शिक्षा के कोई बड़े स्कूल कॉलेज नहीं थे। इस विषय पर पढ़ सके ऐसी कोई लाइब्रेरी नहीं थी। मजदूर के छोटे से बच्चे होमर के पास आर्थिक स्रोत भी क्या होते ?
होमर के पास इरादा था। वो साथ के ही एक गणित में कुशल बच्चे क्विनटिन के साथ मिलकर राकेट पर काम शुरू करता है। उसके दोस्त रॉय और शर्मन भी मदद करते हैं। उसकी विज्ञानं की शिक्षिका मिस रायली भी उसकी मदद करती है और वो छोटे राकेट बना लेते हैं। उनकी ऐसी छोटी राकेट की योजनाएं नाकाम हो जाती हैं, लेकिन स्थानीय समाच्राओं में उनके प्रयासों के बारे में छपता है। कोशिशों की तारीफ के बदले, ऐसे एक राकेट से पास के जंगल में आग लगने का इल्जाम स्थानीय प्रशासन उनपर थोप देता है। वो गिरफ्तार होते हैं तो एक दोस्त को बाप की पिटाई भी झेलनी पड़ती है।
एक खान दुर्घटना में होमर के पिता घायल हो जाते हैं, और जिसने अपना कारखाना उन्हें राकेट बनाने के लिए दे रखा था, उसकी मौत हो जाती है। बच्चों की पढ़ाई जंगल में आग लगाने के मुक़दमे और खान में काम शुरू करने की आर्थिक मजबूरियों में छूटती है तो राकेट का काम भी अटकता है। थोड़े दिन बाद होमर को मिस रायली की दी एक किताब की याद आती है। किताब राकेट बनाने पर थी और उसके गणित से जोड़कर बच्चे समझ जाते हैं कि उनके राकेट से जंगल में आग नहीं लगी होगी। वो अपना राकेट गणित के हिसाब से दिशा-दूरी जोड़कर ढूंढ लेते हैं।
स्कूल के प्रिंसिपल और मिस रायली की मदद से वो अदालत में भी सिद्ध कर पाते हैं कि आग किसी और चीज़ से लगी थी। धूम-धाम से बच्चों की स्कूल में वापसी होती है। एक विज्ञान मेले का आमंत्रण भी वो जीते, लेकिन पैसों की कमी की वजह से उनमें से सिर्फ एक वहां जा सकता था। होमर को वहां भेजने का फैसला होता है। उधर यूनियन के चुनाव वगैरह की वजह से होमर के पिता जॉन के लिए समस्याएँ आ रही होती हैं। विज्ञान मेले में होमर के राकेट के पुर्जे भी चोरी हो जाते हैं, जिस से नयी समस्याएँ आती हैं। अब तक पूरा क़स्बा होमर के समर्थन में होता है।
किस्म किस्म की समस्याओं के बीच होमर आखिर राकेट बनाने के इनाम जीतता है। उसकी वैज्ञानिक प्रतिभा से प्रभावित कॉलेजों में उसे छात्रवृत्ति देने की होड़ लग जाती है। जीत कर बड़े बड़े लोगों से मिल चुका, प्रसिद्धि पाकर कस्बे में लौटा होमर फिल्म के अंतिम दृश्यों में मिस रायली नाम का राकेट बना कर कस्बे के लोगों के लिए उड़ाता है। ये तीस हज़ार फीट उड़ा (सागरमाथा यानि माउंट एवेरेस्ट से ऊँचा) और कस्बे के लोग गर्व से उसे देखते हैं। ये सत्य कथा पर आधारित है, इसलिए फिल्म के बच्चों में से आगे कौन क्या बना ये अंत में बताते हैं।
एक मजेदार चीज़ ये भी है कि इसकी कहानी “Rocket Boys” नाम की जिस किताब पर आधारित थी उस नाम की फिल्म, रिसर्च के मुताबिक, तीस से ऊपर की महिलाऐं नहीं देखतीं, इसलिए अक्षरों के हेर फेर से “October Sky” (anagram) फिल्म का नाम रखा गया। एक प्रसिद्ध सी उक्ति है जो कहती है अगर उड़ नहीं सकते तो दौड़ो, दौड़ नहीं सकते तो चलो, चल नहीं सकते तो घिसटो, मगर मंजिल की तरफ बढ़ते रहो। पारिवारिक, आर्थिक, शैक्षणिक और तमाम दुसरे स्रोतों की कमी से जूझते इन बच्चों को देखते हुए भी भगवद्गीता के दार्शनिक सिद्धांत याद आते हैं। बारहवें अध्याय के नौवें से ग्यारहवें श्लोक तक भी भगवान कुछ ऐसा ही कह रह होते हैं :
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।12.9।।
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।12.10।।
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।12.11।।
यहाँ वो बताते हैं कि अगर तुम मन स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यास से मुझे पाने का प्रयत्न करो। अगर अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मेरे लिये कर्म करना शुरू कर दो। मेरे लिये कर्म करने से भी सिद्धि मिलेगी। अगर कहीं तुम ये भी नहीं कर सकते तो आत्मसंयम और योग का सहारा लो, सभी कर्मों के फल की इच्छा छोड़ दो। कुछ वैसे ही जैसे सभी कस्बे वाले समर्थन नहीं करेंगे तो दोस्तों की मदद लेकर, लोगों की मदद छूटी तो शिक्षक की मदद से, स्कूल भी छुड़ा दो तो भी मजदूरी करता होमर, राकेट के बारे में सोचने और पढ़ने में जुटा होता है। कितने भी कम स्रोत-समर्थन उपलब्ध हों, कोशिश जारी रहती है।
उसके बाद सुप्रसिद्ध सा दुसरे अध्याय का सैंतालिसवां श्लोक याद कीजिये जिसे कई बार (मेरे जैसे) पाखंडी-धूर्त मजाक उड़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं :
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
अब ये बताइये कि राकेट बनाना क्या है कर्म है या कर्मफल है ? कर्म का फल तो शुरुआत का विरोध, फिर इनाम, फिर प्रतिष्ठा और पहचान मिलना और छात्रवृत्ति फिर नासा जैसे संस्थानों में जाना था ना ? राकेट बनाना कर्म है, ये सब उसके अलग अलग समय पर मिले अलग अलग फल थे। सागर-मंथन जैसा शुरू में विष और धीरे-धीरे बेहतर फिर और बेहतर फल आने शुरू हो गए हैं। कहानी के नायक का ध्यान तो सिर्फ कर्म यानि राकेट बनाने पर था। इस से क्या फल मिलेगा, उसकी तो उसने कभी चिंता ही नहीं की ! ये श्लोक यही कहता है – कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल की इच्छा भी मत करो और कर्म ना करने की भी मत सोचो।
बाकी ऐसे नहीं वैसे, वैसे भी नहीं तो किसी तीसरे तरीके से भगवद्गीता उठा कर खुद ही पढ़िए, क्योंकि ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है। पीएचडी के लिए आपको खुद ढूंढ कर पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा ?
#Random_Musings_On_Bhagwat_Gita
अक्सर फिल्मों में जो वैज्ञानिक को मजाक का पात्र, थोड़ा अजीब, सनकी सा दिखा रहे होते हैं, वो थोड़े समय पहले के बिहेवियर सायकोलोजिस्ट बी.ऍफ़. स्किनर के किरदार पर भी आधारित होता है। ये फ्रायड के बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध बिहेवियर सायकोलोजिस्ट होते हैं, क्योंकि इनकी लिखी किताबें कई जगह पाठ्यक्रम में होती हैं। ये मिलनसार किस्म के व्यक्ति थे और इनके शोध बड़े ही अजीब थे। इन्होंने कबूतरों को पिंग-पोंग खेलना सिखा डाला था! हो सकता है कुत्ते-बिल्लियों को कभी कभी गेंद से खेलते आपने देखा हो। उस स्थिति में ये पता होगा कि कुत्तों को खेल के नियम सिखाना आसान होता है, बिल्लियों को सिखा देना करीब करीब नामुमकिन है।
ऐसे ही कई पशुओं को सिखाना बड़ा मुश्किल काम होता है। कबूतरों को गेंद से खेलना सिखाया जा सकता है ये तो सोचा भी नहीं जाता। स्किनर का शोध इस बात पर केन्द्रित था कि वातावरण, आस पास के माहौल का, बर्ताव पर कैसा असर होता है। उनका मानना था कि पुरस्कार और दंड के जरिये जीव बर्ताव सीखते हैं। जिसके लिए बार-बार पुरस्कृत किया जा रहा हो, उसे दोहराया जाता है, और जिसके लिए दंड मिले वो छोड़ दिया जाता है। ये वैसा है जैसे किसी कुत्ते को फ्लाइंग डिस्क ले आने पर अगर बिस्कुट मिले तो थोड़े ही दिन में वो सीख जाता है कि गेंद या फ्लाइंग डिस्क फेंकने पर दौड़कर उसे ले आना एक खेल है। ऐसा करने पर कुत्ते को पालने वाला उसके साथ खेलता है, ज्यादा समय बिताता है। ये उसके लिए पुरस्कार है।
जरूरी नहीं कि दंड में किसी को जेल में डाल दिया जाए, या पीट ही दिया जाए। अगर लाल बत्ती के हरे होने पर भी आप गाड़ी आगे नहीं बढ़ाते तो पीछे के लोग हॉर्न बजाना शुरू करेंगे। आपको-हमें ये पता होता है, इसलिए तेज वाली लेन में, सड़क के बीच में हम धीमे चलाकर, या लाल बत्ती के हरे होने पर गाड़ी रुकी रखकर हम शोर को आमंत्रण नहीं देते। धीमे करने पर शराफत से गाड़ी सड़क के किनारे ले जाते हैं, बत्ती बदलने पर जल्दी से गाड़ी आगे बढ़ाते हैं। अपने प्रयोगों में स्किनर ने चूहों को सिखाना शुरू किया। वो चूहों को एक डब्बे में डाल देते जहाँ वो इधर उधर दौड़ता रहता। इस डब्बे में एक लीवर लगा होता जिसे दबाने से खाने का एक टुकड़ा डब्बे में गिरता।
थोड़े ही समय में चूहा ये सीख जाता कि लीवर को दबाने पर खाना मिलता है। पुरस्कार के लालच में अब चूहा ऐसे डब्बे में घुसते ही सबसे पहले लीवर ढूंढता! उनके पास इसका उल्टा डब्बा भी था, जिसमें बिजली के झटके लगते थे। लीवर दबाने पर झटके बंद हो जाते थे। चूहे फ़ौरन ही लीवर दबाना सीख गए थे। पशु-पक्षियों से आगे बढ़कर उन्होंने बच्चों को सिखाने के लिए भी बॉक्स बनाये थे। उसमें बच्चे को थोड़ा थोड़ा सिखाया जाता, थोड़ी-थोड़ी सहायता या इशारे दिए जाते। जैसे ही बच्चा सही उत्तर की ओर बढ़ने लगता, उसकी प्रशंसा की जाती। ये डब्बा कभी स्कूलों में तो व्यावसायिक तौर पर नहीं लगा, लेकिन आज जो कंप्यूटर आधारित शिक्षा मिलती है, या गेम्स होते हैं, वो स्किनर के इसी सिद्धांत पर काम करते हैं।
इस तरीके को आप आसानी से भगवद्गीता में देख सकते हैं। जी हाँ, बी.ऍफ़. स्किनर के शोध के बहाने फिर से भगवद्गीता पढ़ा दी है। यहाँ जब आप शुरुआत में अर्जुन को देखेंगे तो वो बिलकुल बच्चों की तरह ठुनकता हुआ वैसी ही जिद कर रहा है जैसे बच्चे स्कूल ना जाने के लिए करते दिखेंगे। भगवद्गीता में अर्जुन तीन ही स्थितियों में दिखते हैं। पहली स्थिति में वो प्रश्न कर रहे हैं, दूसरी में प्रार्थना कर रहे हैं, तीसरे में वो प्रशंसा-स्तुति करते दिखाई देते हैं। प्रश्न और प्रार्थना एक ही नहीं है। प्रश्न में जिज्ञासा होती है, सिर्फ उत्तर की अपेक्षा होगी। प्रार्थना में आपको पता होता है कि भगवान के पास वो देने की क्षमता है, इसलिए उसे माँगा जा रहा होता है। प्रार्थना और स्तुति में भी अंतर है। कुछ मिला, या नहीं मिला, या कभी भूतकाल में मिला था, इन सबके लिए स्तुति हो सकती है। वहां पूज्यभाव है, प्रार्थना में पूज्यभाव के साथ आपका विश्वास भी होता है।
पहले अध्याय में जब अर्जुन युद्ध ना करने के लिए अर्जुन तरह तरह के तर्क दे चुका होता है और रथ के पिछले हिस्से में बैठ जाता है तो भगवान कहते हैं –
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3
ये वैसा ही है जैसे बच्चा तरह-तरह के नाटक करने के बाद कहे, मेरे तो पेट में दर्द है! मैं स्कूल नहीं जाऊंगा! और फिर आप उससे कहें, तुम क्या गंदे बच्चे हो जो स्कूल नहीं जाओगे? स्कूल तो गंदे बच्चे नहीं जाते! इस श्लोक का अर्थ देखें तो यहाँ श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, परंतप, हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागो और खड़े हो जाओ। यहाँ गौर करने लायक शब्द क्लीव भी है। कभी-कभी जो कुछ मासूम पूछते हैं कि भगवद्गीता क्या गुस्से में सुनाई गयी थी? उनके लिए ये शब्द महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस शब्द का पक्का अर्थ कायर नहीं होता। इसका अर्थ नपुंसक या क्रॉस-ड्रेसर होता है। यानि सड़कछाप सी भाषा में कहें तो कहा गया है, “अबे हिजड़े, नौटंकी छोड़ और लड़ने के लिए तैयार हो जा!”
अब बच्चों को दण्डित करने की परंपरा नहीं रही। दंड का अर्थ ही मार-पिटाई जैसा, ऐसा वीभत्स बनाकर दिखाया गया कि विदेशों में तो अब बच्चों को दण्डित करने पर माता-पिता से बच्चे ही छीने जा सकते हैं। भारत में भी स्कूल से दंड हटाया गया क्योंकि कई बार तथाकथित शिक्षक, क्रूरता पर ही उतर आते थे। इसलिए आजकल के दौर में ये सुनना-समझना अटपटा भी लग सकता है। दंड के दूसरे तरीके प्रिय वस्तु का ना मिलना, बात बंद करना जैसे वो कई तरीके भी होते हैं जो प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे पर आजमाते रहते हैं। यहाँ से आगे अर्जुन बार-बार प्रश्न करते दिखते हैं। दुसरे अध्याय के ही सातवें श्लोक में वो पूछने लगते हैं कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं? चौवनवें श्लोक में वो स्थितिप्रज्ञ के लक्षणों के बारे में पूछते हैं।
ऐसे ही आगे बढ़ने पर तीसरे अध्याय में शुरू में वो पूछने लगते हैं कि जब कर्म से बुद्धि श्रेष्ठ है तो मुझे भयावह कर्म में क्यों लगा रहे हैं? ये बिलकुल वैसा ही है जैसे बच्चे को आपने कई चीज़ों के लिए कह रखा हो कि बड़े होकर सीख जाओगे, और वो पूछे कि जब बड़े होकर अपनेआप सीख ही जाना है तो जबरदस्ती मुझे स्कूल क्यों भेज रहे हो जी! घर पर ही खेलने दो जी! भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में पहले से चौथे श्लोक तक अर्जुन विश्वरूप दिखाने की प्रार्थना कर रहे होते हैं। भगवद्गीता में अट्ठारह ही अध्याय हैं, यानि ग्यारहवें अध्याय में आधे से अधिक भगवद्गीता बीत चुकी है। इतने के बाद भी अर्जुन माना नहीं है और श्रीकृष्ण ने समझाना नहीं छोड़ा है। ये वैसा ही है जैसे आप अपने बच्चों का भला चाहते हैं, इसलिए उसे स्कूल भेजने या कोई और अच्छी आदत सिखाने के लिए प्रयास करना नहीं छोड़ते। “हटाओ यार कौन टेंशन ले”, कहकर पल्ला नहीं झाड़ लेते, किसी पड़ोसी पर ये जिम्मेदारी छोड़ देने की मूर्खता नहीं करते।
इसी अध्याय के पैंतालीसवें-छियालीसवें श्लोक में अर्जुन भगवान से वापस चतुर्भुज रूप दिखाने की प्रार्थना कर रहे होते हैं। वो विश्वरूप देखकर डर गए होते हैं। ये कुछ वैसा है जैसे बच्चे को आपके हाव-भाव, आवाज इत्यादि से पता चल जाए कि आप स्कूल चलने के लिए मनाते-मनाते क्रुद्ध हो चुके हैं। यहाँ ये नहीं कहा जा सकता कि अर्जुन को धमकाकर चुप करवा दिया गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि अर्जुन पर प्रश्न ना करने जैसी कोई पाबन्दी नहीं लगाई गयी। बारहवें अध्याय के शुरू होते ही वो सगुण और निर्गुण के उपासकों में से बेहतर कौन है, ये पूछने लगते हैं। चौदहवें अध्याय में वो गुणातीत के विषय में पूछ रहे होते हैं और सत्रहवें अध्याय के पहले ही श्लोक में निष्ठा के बारे में पूछते हैं। ये वैसा है जिसे माता या पिता का हाथ पकड़े बच्चा स्कूल बस की तरफ जाता, प्रश्न करता जाता हो। बिलकुल अंत तक, अठारहवें अध्याय में भी अर्जुन संन्यास और योग के बारे में पूछते ही रहते हैं।
अठारहवें अध्याय के तिरसठवें श्लोक में सारी बातें समझा देने के बाद भी श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हें जो सही लगे तुम वो करो। तो जो “पेरेंटिंग” या बच्चों के लालन-पालन के विषय में सिखाया जाता है, पुरस्कार और दंड के जरिये सही बर्ताव करना सिखाना, सारी उपलब्ध जानकारी देना और उचित निर्णय स्वयं लेने के लिए प्रोत्साहित करना, ये सब उस तरीके में दिखा जाता है, जिस तरीके से भगवद्गीता कही और लिखी गयी है। बाकी बी.ऍफ़. स्किनर के शोध, बिहेवियर सायकोलोजी, या बच्चों के बर्ताव, उन्हें सिखाने वगैरह के बहाने जो ये पढ़ा डाला वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित