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इनामी एंकर व्यथित थे। आज उन्होंने स्क्रीन काली नहीं की थी बल्कि अपने काले से कोट में आम जनता के लिए काम करने की अपनी छवि को बरकरार रखते हुए वो खुद कैमरे के सामने प्रकट हुए थे। समझ लीजिये कि आजकल ख़बरों का अकाल है… उन्होंने कहना शुरू किया। आखिर कैसे किसी वृन्दावन का गोपाल दूर-दराज में रहने वाले किसी कंस नाम के राजा को अपने क्षेत्र की समस्याओं का कारण बता सकता है? ऐसे कई दुश्मन आपके सामने लाये जाते रहेंगे, वो बोले। उनका इशारा स्पष्ट रूप से पूतना, केशी जैसों की तरफ था।
आखिर ऐसा क्यों है कि हर बार किसी बाहर की शक्ति को अपनी नाकामी को छुपाने के लिए सामने लाकर रख दिया जाता है? कभी कोई कालिया नाग आकर इलाके के पानी को विषैला करना शुरू कर देता है तो तो कभी कोई इंद्र पानी बरसाकर इलाके को ही डुबो देना चाहता है? आखिर क्यों हर बार कृष्ण ही बचाने के लिए सामने आ रहे होते हैं? फिर एक बड़ा सवाल ये भी है कि ये समस्याएँ पहले कहाँ थीं? ऐसा क्यों है कि नटवर नागर के जन्म के बाद से ही ये सारे बखेड़े खड़े होने शुरू हो गए?
उन्होंने स्पष्ट शंका व्यक्त की और कहा कि आज तो ये दुश्मन बाहर से आये बताये जा रहे हैं, लेकिन जैसे कल एक पेड़ गिर जाने से उससे कोई यमल-अर्जुन निकल आये वैसे ही कल कहीं आपका पड़ोसी भी मथुरा का कोई जासूस ना घोषित कर दिया जाए। ऐसी वारदातों के साथ ही कई दूसरे लोग भी मथुरा के बारे में बोलना शुरू कर चुके हैं। वीतिहोत्र, भोज, अवंती के साथ साथ अब भोज और वृष्णि जैसे कुल भी कंस और मथुरा के बारे में सवाल उठाना शुरू कर चुके हैं। अब जब अर्थव्यवस्थाओं के तबाह होने से करोड़ों लोग बेरोजगार होंगे तो क्या उसका असर एक ही व्यक्ति या राज्य पर होगा?
याद रखिये कि “लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है”, उन्होंने कहा। सिर्फ गोवंश पर आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण वृन्दावन क्या बचा रहेगा? आखिर तैयार माल को बेचने के लिए मथुरा जैसी घनी आबादी वाले क्षेत्रों की जरूरत नहीं है क्या? अब क्षेत्रीय नेता चेत रहे हैं और जब मथुरा जैसी अर्थव्यवस्थाएं डगमगाने लगी हैं तो उन्हें डर लग रहा है कि कहीं जनता ये ना पूछ ले कि कृष्ण जन्म, या कहिये उसके गोकुल आने से लेकर अबतक, वो क्या कर रहे थे?
इसी जवाबदेही के सवालों से बचने के लिए कहीं पर कंस और मथुरा दुश्मन है तो कहीं पर जरासंध और मगध दुश्मन है। उन्होंने अपनी जनता को चेताते हुए कहा कि जाग जाइए, इससे पहले की पानी सर से ऊपर निकल जाए। जागना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नंदलाल को लाने वाला तो कथित तौर पर उसे टोकरी में डालकर सर से ऊपर उठाये था। उसके सर पर भी उसके करीबी नाग का साया था, लेकिन आपके पास ना तो कोई सर पर वरदहस्त है ना ही कोई आरामदेह टोकरी। आपको जेल से निकलकर किसी रमणीय वन क्षेत्र में पहुंचा देने वाला भी कोई नहीं।
उन्होंने अंत में जोड़ा कि इससे पहले कि किसी कंस और किसी दूर दराज की मथुरा से आप लड़ने निकल पड़ें, सोचिये कि नंदलाल को ही वहां जाकर समस्या से निपट लेने क्यों ना कहा जाए? सवाल कीजिये, क्योंकि सवाल करना आपका हक़ भी है और आज के दौर की जरूरत भी। तभी पास के जिन बागों में बहार आई थी, वहां दबे पांव घुसते फासीवाद की आहट सुनाई दी और इनामी पत्रकार मसले की पूरी जांच करने चल दिए।
महाभारत नागों की भी कहानी होती है। हमें इतिहास राजाओं की कहानी की तरह पढ़ाया जाता है। टीवी पर दिखाते समय शायद ये दिक्कत हुई कि ऐसे ही सिस्टम में पढ़े-लिखे आज के लोगों ने जब महाभारत को दर्शाया तो उसे किसी पांडव और कौरवों के राजा बनने के लिए हुई लड़ाई के तौर पर दर्शाया। एक किताब के तौर पर जो भृगु महाभारत में हर जगह हैं, उनका कहीं जिक्र तक टीवी के जरिये महाभारत समझने की कोशिश करने वालों को दिखाई-सुनाई ही नहीं दिया। महाभारत में नाग बिलकुल शुरू में ही आ जाते हैं।
उत्तंक नाम का एक छात्र जब अपनी गुरुदक्षिणा के लिए रानी से उनके कुंडल मांगने पहुँचता है, तभी वो उसे सावधान करती हैं कि नागराज कई दिन से इन कुण्डलों पर निगाह जमाये बैठा है। वो गरीब छात्र की गुरुदक्षिणा का इंतजाम तो करती हैं, मगर साथ ही उसे चोरी से सावधान भी कर देती हैं। सावधानी के वाबजूद तक्षक कुण्डल चुरा कर भाग जाता है। छात्र बेचारा पीछा करता हुआ पाताल पहुंचा, आखिर जैसे तैसे कुण्डल लेकर वापस गुरु माता के पास लौटता है। इस एक कहानी में कम से कम पांच नीति कथाएँ होती हैं, मगर फ़िलहाल उनसे ध्यान हटाकर हम नागों पर ही ध्यान रखेंगे।
तो वापस आते हुए, नागों का दूसरा बड़ा जिक्र कृष्ण के कालिया दमन, और भीम को विष देकर नदी में फेंके जाने के समय आता है। यमुना के इलाकों में नागों का कब्ज़ा था इस से ये बात भी समझ आती है। कृष्ण ने पांडवों के सहयोग से उन्हें इस इलाके से दूर किया था। कृष्ण और अर्जुन बाद में खांडवप्रस्थ को भी नागों से खाली करवा लेते हैं। कृष्ण को चक्र चलाना तो काफी पहले ही परशुराम सिखा चुके होते हैं, लेकिन अग्नि से उन्हें यहीं दिव्यास्त्र मिलते हैं। सुदर्शन चक्र भी अग्नि ने दिया, और अर्जुन को गांडीव भी अग्नि ने इसी समय दिया।
इस खांडव वन को जलाने की लड़ाई में अग्नि की सहायता जहाँ कृष्ण-अर्जुन कर रहे थे वहीँ वहां रहने वाले नागों की रक्षा इंद्र कर रहे थे। इंद्र नागों को बचा नहीं पाए और सिर्फ तक्षक का एक पुत्र अश्वसेन निकल के भाग पाने में कामयाब हुआ। बाकी वहां रहने वाले तक्षक के वंशज नाग वहीँ मारे गए। इस दुश्मनी को ना अश्वसेन भूला ना तक्षक। इस खांडव वन को इन्द्रप्रस्थ बनाने से थोड़ा ही पहले अर्जुन का नागकुमारी उलूपी ने अपहरण कर लिया था। इस वैवाहिक सम्बन्ध के कारण अर्जुन को पानी के अन्दर ना हारने का भी वरदान था।
नागों से इस दोस्ती-दुश्मनी का नतीजा महाभारत की लड़ाई में भी दिखेगा। युद्ध में जब कर्ण अर्जुन से लड़ रहे होते हैं तो यही खाण्डववन वाला अश्वसेन कर्ण के तरकश में जा घुसा। कर्ण के बाण से चिपक के वो अर्जुन तक पहुँच जाना चाहता था, लेकिन कृष्ण अपने अंगूठे से रथ को दबा देते हैं। इस बार इंद्र, जो कि कभी नागों की सहायता कर रहे थे, उन्हीं का दिया मुकुट अर्जुन के काम आ जाता है। कर्ण का तीर रथ के दब जाने के कारण अभेद्य मुकुट से टकराकर टूट गया और अश्वसेन अर्जुन तक नहीं पहुँच पाया। अश्वसेन दोबारा भी कर्ण के पास उसके तीर पर सवार होने का प्रस्ताव लेकर पहुंचा था, लेकिन कर्ण नागों की मदद को ओछी हरकत मानकर इनकार कर देता है।
युद्ध के अंत में जब दुर्योधन तालाब में छुपा होता है और पांडव उसे ढूंढ निकालते हैं तब भी दुर्योधन नागों की वजह से बाहर आता है। अगर अर्जुन पानी में उतरता तो दुर्योधन का मारा जाना तय था, जबकि बाहर निकलकर भीम से द्वन्द युद्ध में दुर्योधन के पास विजय की थोड़ी संभावना बनती थी। इसलिए दुर्योधन ने बाहर आना चुना था। नागों ने युद्ध के ख़त्म होने पर युद्ध में शामिल हुए अन्य लोगों की तरह शत्रुता की भावना भी नहीं छोड़ी थी। कई साल बाद जब अर्जुन के पोते को शाप मिलता है तो तक्षक उसे डसने पहुँच जाता है। कोई उसे बचा ना पाए इसलिए काश्यप नाम के वैद्य (ऋषि नहीं, ये दुसरे थे) को वो धन इत्यादि देकर दूसरी दिशा में रवाना भी कर देता है।
शुरू में जिस उत्तंक का जिक्र है वो भृगुकुल के ऋषि धौम्य के शिष्य वेद के शिष्य थे। महाभारत की शुरुआत में ही धौम्य ने उनके शेष पर विजयी होने की भविष्यवाणी की थी। महाभारत के अंतिम हिस्से में जन्मजेय के सर्प यज्ञ में उत्तंक ही पुरोहित थे।
अगर आप सेक्युलर विचारधारा के मुताबिक (जल्दबाजी में) इसे दो अलग अलग सभ्यताओं की जंग कहकर किसी आर्य-नाग युद्ध जैसा कुछ बताना चाहते हैं तो मत कीजिये। नाग और कौरव-पांडव के अलावा कई कुलों का जिक्र महाभारत में आता है। सब के सब इंद्र, वरुण, अग्नि, विष्णु, शिव आदि देवी-देवताओं के ही उपासक दिखते हैं। कोई एक दुसरे की परम्पराओं को हेय या निकृष्ट बता रहा हो ऐसा भी नहीं दिखता। एक दुसरे से वैवाहिक संबंधों के कारण सामाजिक बहिष्कार जैसे कोई मामले भी नजर नहीं आते। ये कहानियां इसलिए याद आई क्योंकि कर्ण के धनुष पर चढ़े अश्वसेन जैसी ये तस्वीर कल मनीष शुक्ला जी की वाल पर नजर आ गई थी।
बाकी हर अपराध पर संवेदना जताने के बहाने से जब भारत के बहुसंख्यकों पर छुपा प्रहार होने लगता है तो वो कर्ण के तीर पर चढ़े अश्वसेन जैसा ही दिखता भी है। आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, वो तो खैर पता ही है।
“लार्ड ऑफ़ द रिंग्स” एक अंग्रेजी फिल्म की सीरीज है, स्पेशल इफेक्ट्स के लिए कई लोगों ने देखी भी होगी। इसमें कई अलग-अलग जातियां होती हैं, या वंश कहिये। एक एल्फ हैं जो लम्बे, खूबसूरत और अजीब से नुकीले कान वाले होते हैं। उनकी आबादी कम है, इंसानों से दूर रहते हैं, लेकिन उनके पास बेहतरीन हथियार होते हैं। काफी जादू भी जानते हैं, पर्यावरण और पेड़ों से अच्छे सम्बन्ध रखते हैं। उनकी तुलना में इंसान बड़े निकम्मे लगते हैं, लालची, मक्कार और किसी काम के नहीं होते।
एक जनजाति इस फिल्म में ड्वार्फ, यानि बौनों की है। ये जरा घमंडी, अकड़ू और छल-कपट की कम समझ वाले हैं। थोड़े से सीधे होने के कारण बौने, पिछड़े हुए हैं और पहाड़ों के नीचे कहीं गुफाओं में छुपे रहते हैं। ये बड़े उन्नत किस्म के शिल्पी हैं और बेवक़ूफ़ होने की लिमिट तक के बेवक़ूफ़ भी होते हैं। फिल्म में कुछ लम्बी उम्र वाले इंसान भी हैं, वो भी अच्छे योद्धा है। इन सबके मुक़ाबले में ओर्क, एक किस्म की राक्षस जनजाति और कुछ दुष्ट जादूगर होते हैं। पृथ्वी पर कब्जे के लिए, इन सब के आपसी संघर्ष की कहानी, फिल्म की कहानी है। इसी नाम के एक उपन्यास पर आधारित है।
जब आप पूरी सीरीज देख चुके होते हैं तो समझ आता है कि ये इन बड़े बड़े शक्तिशाली योद्धाओं की कहानी नहीं थी। ये बौने से थोड़े से ही लम्बे, करीब करीब अहिंसक, डरपोक होब्बिट नाम की जनजाति के दो चार लोगों की कहानी है। कहानी में ओर्क, एल्फ, बौने, मनुष्य सब बड़े योद्धा हैं, उनकी दिग्विजय की यात्रायें हैं लेकिन असली कहानी सिर्फ चार होब्बिट्स की है। वो चारो एक अंगूठी को लेकर उसे नष्ट करने निकले होते हैं। इसी रिंग के सफ़र के रास्ते में बस उनकी मुलाक़ात जादूगरों से, एल्फ़, ओर्क, मनुष्यों और बौनों से होती है। सारे साइड करैक्टर हैं, असली हीरो होब्बिट होते हैं।
आज की तारिख में जब आप महाभारत को देखेंगे तो अलग अलग लेखकों के इसपर अपने अपने व्याख्यान होते हैं। इरावती कर्वे के “युगांत” में छोटे छोटे लेख हैं। एस.एल.भ्यरप्पा की “पर्व” कुछ चरित्रों को लेकर, उनके नजरिये से लिखी गई है, सारे मिथकीय घटनाक्रम हटा दिए गए हैं। आनंद नीलकंठ की किताबों में हारने वालों की तरफ से कहानी सुनाई गई है। “रश्मिरथी” या फिर “मृत्युंजय” कर्ण की कहानी होती है। द्रौपदी की ओर से कहानी सुनाने वाली नारीवादी विचारधारा के झंडाबरदार भी कम नहीं हैं। युधिष्ठिर का दृष्टिकोण महाभारत की कथा में बुद्धदेव बासु लिख गए हैं तो भीम के नजरिये से एम.टी.वासुदेवन नैयर ने लिखा है। कन्हैयालाल माखन मुंशी की किताबें हैं, कृष्ण की तरफ से लिखने वाले भी कम नहीं है।
कभी ये सोचा है कि इतने अलग अलग चरित्रों की कहानी इस एक महाभारत में सिमटती कैसे है ? दरअसल महाभारत भी किन्हीं कौरवों, पांडवों, यक्ष, गंधर्व, किन्नरों, देवों, दानवों की कहानी है ही नहीं। ये एक सफ़र पर निकले कुछ ऋषियों की कहानी है। महाभारत की बिलकुल शुरुआत में एक भार्गव, भृगुवंश के ऋषि अपने शिष्यों को सिखा रहे होते हैं। महाभारत की शुरुआत आरुणी जैसे शिष्यों के आज्ञापालन की मिसालों से शुरू होती है। ऐसे ही शिष्यों की कड़ी में उत्तांक भी होता है। वो शिक्षा समाप्त होने पर अपने गुरु को कुछ गुरुदक्षिणा देना चाहता है। लेकिन सारे गुरु उस काल में शायद एक ही जैसे होते थे।
तो गुरु को यहाँ भी दीन-दुनियां से कुछ ख़ास लेना देना नहीं होता और उन्हें समझ ही नहीं आता कि गुरुदक्षिणा में क्या माँगा जाए। थोड़ा सोचने के बाद वो उत्तांक को अपनी पत्नी से पूछ लेने कहते हैं। अब जब उत्तांक, गुरु-माता के पास पहुँचते हैं तो वो खाना खिलाने के बाद पूछती हैं की उत्तांक किसी काम से उनके पास आकर बैठा है क्या ? उत्तांक बताता है कि गुरुदक्षिणा का पता नहीं चल रहा, शिक्षा तो उसने ले ली है। गुरु माता उन्हें एक राजा के पास उनकी पत्नी से कुंडल मांग लाने भेज देती हैं। उत्तंक लम्बे सफ़र के बाद राजा के पास पहुँचता है और दिव्य कुंडल मांग लेता है।
राजा और रानी कुंडल देने को राजी हो जाते हैं, पूरी प्रक्रिया में उत्तांक और भी काफी कुछ सीख जाता है। वो जब कुंडल लेकर लौट रहा होता है, तो रानी उसे बताती हैं कि इन कुण्डलों पर कई दिन से नाग तक्षक नजर जमाये बैठा है। वो जरूर इसे रास्ते में चुरा ले जाने की कोशिश करेगा और उत्तांक को सावधान रहना चाहिए। सावधानी के वाबजूद चोरी होती है और यहीं से तक्षक की उत्तांक नाम के भार्गव से दुश्मनी की कहानी शुरू होती है। महाभारत की कहानी जहाँ ख़त्म हो रही होती है वहां, परीक्षित यानि अर्जुन के पोते को इसी तक्षक ने डसा होता है। परीक्षित के पुत्र जन्मजेय के लिए जो नाग यज्ञ कर रहे होते हैं, और सारे नागों की आहूति देते जाते हैं वो भी भृगुवंश के ऋषि ही होते हैं।
पहले एक बार “लार्ड ऑफ़ द रिंग्स” देखिये और फिर से पूरी महाभारत पढ़िए। महाभारत की पूरी कहानी भृगु ऋषियों की परंपरा के अलग अलग सफ़र की, सीखने की, उस सीखे हुए के इस्तेमाल की, और साथ में इस यात्रा में मिले लोगों की, देव-दानव, यक्ष-गंधर्व-किन्नर-मनुष्यों से मुलाक़ात की कहानी है। कभी फ़्लैश बैक में तो कभी उसी समय के दौर में आती है, कभी भविष्य में क्या नतीजे किस हरकत के हो सकते हैं, उसपर भी चेतावनी दी जाती है। सीखने का एक तरीका सफ़र करना भी होता है, आज के मैक्ले मॉडल में नहीं सिखाया जाता, उसपे भी ध्यान जायेगा। बाकी सिर्फ एक आदमी के नजरिये से पूरी कहानी को देखने वाला पक्षपाती हो जाता है, वो तो याद रखना ही चाहिए।
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
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