भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों के बौद्धिक घोटाले अर्थात इतिहास की हत्या , भाग -2
रोमिला थापर vs. सीताराम गोयल:
भारत के मार्क्सवादी इतिहासकार दो हथियारों (तकनिकों) से हंमेशा लैस रहते है: उनका पहला हथियार होता है अपने इतिहास लेखन पर प्रश्न उठाने वालों या असहमत होने वालों पर तुरंत “साम्प्रदायिक – communal” होने का लांछन लगा देना, ताकि सामने वाला शुरु से ही बचाव मुद्रा में आ जाए, दिफेंसिव हो जाए, मनोवैज्ञानिक दबाव में आ जाए! और इससे इन इतिहासकारों का आगे का काम आसान हो जाता है. दूसरी तकनिक यह होती है कि जिस बात का कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण न हो, मगर अपने काम की हो, उसे कुछ इस तरह प्रस्तुत करना जैसे पूरी दुनिया को यह पहले से ही मालूम हो और मानो सब को यह पहले से ही स्वीकार्य है!! इस तकनिक के माध्यम से मार्क्सवादी इतिहासकारों की किसी बात/प्रस्थापना को संदेह की दृष्टि से देखने वालों को “अज्ञानी” या “communal – साम्प्रदायिक विचारों से ग्रस्त” चित्रित किया जा सकता है. इसका ज्वलन्त उदाहरण है रोमिला थापर और सीताराम गोयल के मध्य पत्रव्यवहार से हुई चर्चा.
“हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध मंदिरों के ध्वंस” के मार्क्सवादी प्रलाप से सीताराम गोयल (१९२१-२००३) जैसे कुछ गिने-चुने इतिहासकारों और जानकारों को कष्ट होता था. इसीलिए जब सीताराम गोयल ने वर्षों तक रिसर्च करके ठीक इसी “मंदिर-विध्वंस” के विषय पर सन् १९९१ में अपना शोधपूर्ण ग्रंथ “Hindu Temples: What Happened to Them (Vol.II The Islamic Evidence)” प्रकाशित किया तब इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने के लिए भारत के तत्कालीन मार्क्सवादी इतिहासकारों को सादर आमंत्रित किया. इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए सीताराम गोयल ने २७ जून १९९१ को रोमिला थापर को अपनी पुस्तक की एक कोपी के साथ-साथ एक “प्रश्नावली (questionnaire)” भी भेजी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन मार्क्सवादी इतिहासकारों से निम्नलिखित चीजें देने का आग्रह किया, ताकि जिस तरह जिन आधारों पर इस्लाम के सैनिकों द्वारा हिंदू मंदिरों के विध्वंस का प्रामाणिक इतिहास लिपिबद्ध है, ठीक उन्हीं आधारों पर ‘हिंदू राजाओं द्वारा मंदिरों के ध्वंस’ के इतिहास की स्पष्ट और पूरी तस्वीर लोगों के सामने आ सके. यही आग्रह करते हुए सीताराम गोयल ने मार्क्सवादी इतिहासकारों से ऐसे साक्ष्य / विवरणों की मांग की:-
(१) ऐसे अभिलेखों (epigraphs) की सूची जिसमें किसी भी काल में, कहीं भी, किसी हिंदू द्वारा बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट मूर्तियों के विध्वंस का उल्लेख हो;
(२) हिंदू साहित्यिक स्त्रोतों के ऐसे संदर्भ (citations) जिसमें किसी भी काल में, कहीं भी, किसी हिंदू द्वारा बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट मूर्तियों के विध्वंस का वर्णन हो;
(३) हिंदू धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों के वे अंश जो अन्य धर्मावलंबियों के पूजा-स्थलों को तोडने, लूटने या अपवित्र करने के लिए कहते हो या ऐसा संकेत भी करते हो;
(४) उन हिंदू राजाओं, सेनापतियों के नाम जिन्हें बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा-स्थलों को तोडने, अपमानित करने या उन्हें हिंदू स्थलों में बदलने के लिए हिंदू जनता अपना महान नायक मानती हो;
(५) उन बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा-स्थलों की सूची जिसे हाल में या कभी भी अपवित्र या ध्वस्त या हिंदू स्थलों में परिवर्तित किया गया हो;
(६) उन हिंदू मूर्तियों और स्थानों के नाम जो उन स्थानों पर खडे है जहाँ पहले बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा-स्थल थे;
(७) बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट नेताओं या संगठनों के नाम जो दावा करते हों कि फलां-फलां हिंदू स्थल उनसे छीने गए थे, और अब उसके पुनर्स्थापन (restoration) की मांग कर रहे हो;
(८) हिंदू नेताओं और संगठनों के नाम जो बौद्ध, जैन या एनीमिस्टों द्वारा अपने पूजा-स्थलों के पुनर्स्थापन की मांग का विरोध कर रहे हो, या जो ऐसे किसी सथल के लिए यथावत् स्थिति (status quo) बनाए रखने के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हो, या जो “हिंदू खतरे में है” का शोर मचा रहे हो, या अपने जबरन कब्जे के समर्थन में सदक पर दंगे कर रहे हों.
ये कुछ ऐसे प्रश्न है जिन्हें पढकर कोई भी इतिहासकार और साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है कि “हिंदूओं द्वारा तोडे गए बौद्ध / जैन मंदिरों की पुनर्स्थापना” का प्रश्न केवल इन्हीं ठोस आधारों पर हल हो सकता है. इसके बिना, केवल बयानबाजी या किसी संदेहास्पद/आधारहीन ऐतिहासिक संदर्भों के हवाले किसी भी बात को ‘ऐतिहासिक सत्य’ के रूप में लिख मारना विशुद्ध दुष्प्रचार ही कहा जा सकता है. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि रोमिला थापर या किसी अन्य “eminent / जानेमाने” मार्क्सवादी इतिहासकार ने उक्त आठ बिंदुओं पर कोई सूची सीताराम गोयल को नहीं दी, न तो उन लोगों ने इस विषय पर कोई पुस्तक या शोध-पत्र लिखा ! आज वर्षों बीत जाने के बाद भी उन मार्क्सवादी इतिहासकारों के खेमें से कोई पुस्तक तो क्या, एक लेख भी नहीं निकला जो हिंदूओं द्वारा बौद्ध-जैन मूर्तियों को तोडने के विषय पर प्रकाश डालता हो. ये “जानेमाने” मार्क्सवादी इतिहासकार ऐसा तो कह नहीं सकते कि यह विषय महत्वपूर्ण नहीं है. यह तर्क भी नहीं दे सकते कि इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए हमारे पास समय का अभाव है. यह जमात ऐसा भी नहीं कह सकती कि यह विषय हमारे अध्ययन / शोध क्षेत्र के बाहर का है. दूसरी तरफ यह भी एक तथ्य है कि सीताराम गोयल ने “Hindu Temples: What Happened to Them – Vol.I” में मूर्तिभंजक इस्लामी हमलावरों द्वारा भारत में हिंदू मंदिरों, मूर्तियों और पूजा-उपासना स्थलों के विध्वंस की घटनाओं और स्थलों की जो सूची प्रस्तुत की है, उसे आज तक किसी भी मार्क्सवादी इतिहासकार ने चुनौती नहीं दी, लेकिन सीताराम गोयल को उत्तर में रोमिला थापर ने १० अगस्त १९९१ को यह लिखा:-
“As regards the issues raised in the questionnaire included in your book, you are perhaps unaware of the scholarly work on the subject discussed by a variety of historians of various schools of thought. May I suggest that for a start you might read my published lectures entitled, ‘Cultural Transaction and Early India’?” अर्थात् “जहाँ तक आपकी प्रश्नावली में उठाए गए मुद्दों की बात है, आप इस विषय पर विभिन्न विचारधारा के असंख्य इतिहासकारों द्वारा हाल में किए गए शोधकार्यों से संभवतः अनजान है. इसलिए शुरुआत के लिए / for a start मैं आपको मेरा एक प्रकाशित लेक्चर पढने की सलाह देती हूँ, जिसका शीर्षक है ‘कल्चरल ट्रांजेक्शन एंड अर्ली इन्डिया’.” (Hindu Temples: What Happened to Them – Vol.II, पृ. ४११)
रोमिला थापर के इस उत्तर के एक-एक शब्द से अहंकार टपकाता है, जो सच्चे विद्वान का लक्षण नहीं होता, किन्तु नोट करने लायक बात यह है कि थापर ने न तो सीताराम गोयल की पुस्तक पर कोई टिप्पणी कि, न जिन बिंदुओं को सीताराम गोयल ने उठाया था उसका कोई जिक्र किया!! इसे कहते है “conspiracy of silence” अर्थात् अपने पक्ष को निर्बल देख स्वयं मौन धारण कर सामने वाले से छुटकारा पाने का प्रयास करना. वे उन “असंख्य इतिहासकारों” के किसी “शोधकार्य” का स्पष्ट नामोल्लेख कर सकती थी, जो सीताराम गोयल के प्रश्नों का समाधान कर सकता हो. इसके बजाय वह अपना एक “लेक्चर” पढकर ऐतिहासिक ज्ञान प्राप्त करने की “शुरुआत” करने की सलाह सीताराम गोयल जैसे एक विद्वान को १९९१ में दे रही थी, जिसने देश की स्वतंत्रता से भी पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास से एम.ए. किया था और जो तब तक अनेक शोध-परक पुस्तकें लिख चुके थे!!!
रोमिला थापर के इस “उत्तर” के बाद सीताराम गोयल ने उन्हें विस्तार से फिर लिखा था, जिसमें उन्होंने हिंदूओं द्वारा बौद्ध-जैन मंदिरों के तोडने की संभावना संबंधी कुछ साहित्यिक सामग्री की समीक्षा, स्वयं थापर की पुस्तकों में कुछ विसंगती या अस्पष्टता के बारे में जिज्ञासा, और फिर अपना मत लिखा था. इसके बाद थापर ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया. हमारे इस संदर्भ में इतना ही पर्याप्त है कि रोमिला थापर के केम्प की ओर से किसी प्रश्न का उत्तर नहीं आया जो सीताराम गोयल ने उठाए थे.
To be continued…