केवल रोग के लक्षणों का उपचार हो सकता है कितना भयानक ?
मानव शरीर में किसी रोग के प्रवेश कर जाने और उसके बढ़ने पर उसका पता रोग के कुछ लक्षणों से ही पता चलता है। उनमें मुख्य हैं पीड़ा होना और ज्वर होना। पीड़ा चाहे फिर गले में हो, पेट में हो, या शरीर के अन्य अंगों में जैसे कि जोड़ों आदि में, इसका कारण भिन्न भिन्न रोग हो सकते हैं। यहां समझने की बात यह है कि पीड़ा अर्थात् पेन हमारे शरीर का एक उत्तम सूचना तंत्र है। पीड़ा स्वयं में रोग नहीं है, उससे तो आपको केवल सूचना मिल रही है कि आपके शरीर के किसी भाग में या किसी महत्वपूर्ण अंग में कोई समस्या है, रोग है।
ऐसे में हम प्रायः पीड़ा को कम करने वाली अर्थात् उस सूचना तंत्र को रोकने वाली औषधियां ले लेते हैं। अब बताएं की यदि आपको छाती में अत्यधिक पीड़ा है और बाईं बाजू की ओर भी जा रही है तो आप अनुमान लगाते हैं कि आपके हृदय में कोई समस्या आई है। तो क्या आप उस समय केवल पीड़ा का उपचार करेंगे या अपने हृदय विशेषज्ञ के पास शीघ्रातिशीघ्र जायेंगे। ऐसे ही हमें अपनी पीड़ा को कम करने की चिंता करने की अपेक्षा यह सोचना चाहिए कि जिस रोग की वह सूचना दे रही है उस समस्या का निदान ढूंढा जाए।
परन्तु ज्वर तो केवल सूचना का एक तंत्र ही नहीं वास्तव में यह तो शरीर के उस रोग का उपचार भी है। ज्वर चढ़ना हमारी रोग प्रतिरोधी क्षमता की एक ईश्वर द्वारा दी गयी प्राकृतिक प्रतिक्रिया है क्योंकि हमारी वायरस के विरूद्ध एण्टीबाडीज़ बनाने वाली बी और टी कोशिकाएं ज्वर होने पर ही अच्छा काम करती हैं और वायरस को शरीर से समाप्त कर पाती हैं। सारा शरीर विज्ञान और अनुसंधान केवल यही बात बताता है। ज्वर आने और उस समय शरीर में होने वाली पीड़ा साथ ही शरीर को विश्राम करने पर विवश भी कर देती है, क्योंकि शरीर की ऊर्जा को रोग से लड़ने में लगना होता है। यदि आप उस समय अधिक चलेंगे, दौड़ेंगे, काम करेंगे तो शरीर की ऊर्जा उस ओर लगेगी। पर यदि विश्राम करेंगे तो शरीर की ऊर्जा रोग से लड़ने में अधिक लगेगी। ऐसे ही जब अधिक ज्वर होता है तो रोगी का कुछ खाने को मन नहीं करता। यह भी ईश्वर के बनाए इस मानव शरीर की अद्भुत संरचना है। क्योंकि यदि रोग से लड़ना है और उस समय आप अधिक खाएंगे तो शरीर की ऊर्जा को पाचन में भी काम करना पड़ेगा। तो आप पाचन से शरीर की ऊर्जा को बचाकर रोग से लड़ने की ओर लगा रहे हैं। है न अद्भुत!!!
प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ प्रायः ज्वर में रोगी को कुछ भी न खिलाने, केवल गर्म पानी या कुछ फलों का जूस आदि देने और विश्राम करने को कहते हैं। आयुर्वेद भी औषधि के साथ इन्हीं बातों पर अधिक बल देता है। अब आप सोचिए आज जो कोविड-19 इतना अधिक फैला है और उसका कोई सीधा उपचार न होने पर केवल लक्षणों का उपचार किया जा रहा है, उससे कितनी प्रकार की असाध्य समस्याएं हो रही हैं, लोग सहस्रों की संख्या में प्रतिदिन काल के गाल में समाए जा रहे हैं। प्रौढ़ व्यक्ति से लेकर युवा भी आज इसकी चपेट में बुरी तरह से आ गए हैं। कितना ही अच्छा होता यदि हम लक्षणों का उपचार बंद कर, विशेष रूप से ज्वर उतारकर रोग प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण करने वाली और इम्यूनिटी को बिगाड़ने वाली अन्य दवाओं को रोककर, शरीर को तो अपना कार्य करने देते।
शरीर को रोग से लड़ने के लिए हम जिस प्रकार भी सहायक हो सकते हैं वह हम हों। विश्राम करके, कम खाकर या रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाने वाली जैसे विटामिन, मिनरल या अन्य आयुर्वेदिक अथवा होम्योपैथिक औषधियां लेकर हम यह कर सकते थे। परंतु हमने केवल लक्षणों पर ही ध्यान दिया, लक्षणों को पूरी तरह दबाने पर ही एकमात्र काम किया, क्या इसलिए क्योंकि हमारे पास इस कोरोना रोग से लड़ने वाली कोई औषध ही नहीं है? तो क्या हम जो काम शरीर कर सकता है उसको भी रोके रखें और रोग को बढ़ने दें? और साथ ही अत्यधिक उग्र इलाज, वह भी मात्र लक्षणों का ऐसे ही करते रहें। उससे जो अनेक प्रकार की विकट स्थिति बन रही है, कॉम्प्लिकेशंस आ रही हैं, उनका क्या?
ऐसे ही शिरोवेदना अर्थात् सिर के दर्द के अनेक कारणों में प्रमुख हैं पेट का स्वच्छ ना होना, आंतों में गैस का बनना। प्रायः देखा गया है कि लोग इसे माइग्रेन का नाम देकर मस्तिष्क के उन कोशिकाओं और सूचना तंत्रों को सुन्न करने वाली औषधियां खाते रहते हैं जिन्होंने हमें उस समस्या अथवा रोग की केवल सूचना मात्र देनी थी। उस सूचना तंत्र को रोकने को जिस प्रकार के केमिकल हम खा रहे हैं उससे यकृत, गुर्दे और यहां तक कि ह्रदय आदि को भी हम अत्यधिक हानि पहुंचा रहे हैं। आप सुनकर आश्चर्यचकित होंगे कि छोटे बच्चों को सिर दर्द के लिए दी जाने वाली सैरीडॉन दवा से उनके मस्तिष्क में एडिमा या कहें पानी भर जाने जैसी स्थिति बन जाती है जिससे उनमें से कई को जीवन भर मिर्गी की भांति दौरे आते रहते हैं। हजारों लोग बार-बार दर्दनाशक दवा खा अपनी किडनी खराब करके आज किडनी प्रत्यारोपण के लिए दानकर्ता ढूंढ रहे हैं।
आज इस कोरोनावायरस के काल में जो भय का वातावरण बना हुआ है, घर घर में लोग बीमार पड़े हैं, चिकित्सकीय सुविधाएं चरमरा गई हैं, किसी डॉक्टर को सिर उठाने का भी समय नहीं मिल रहा है, ऐसे समय में हर व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह सोचे कि किस प्रकार हम अपने रोगियों को व्यर्थ की कठिन समस्याओं से बचा सकते हैं, क्या हम रोग को छोड़ केवल उसके सिम्टम्स को मैनेज करने में इतने उग्र हो रहे हैं कि उससे रोग भी बढ़ रहा है और हमारे फेफड़े तक खराब हो रहे हैं लोग मृत्यु लोक की ओर जाते जा रहे हैं।
लेखक
विवेकशील अग्रवाल
(स्वास्थ सम्बंधित शोधकर्ता,समाज सेवी एवं व्यवसायी)
नई दिल्ली।
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