हिंदू की यह विशेषता है कि यह उन बातों को शीघ्रता से ग्रहण कर लेता है जो देश,काल व परिस्थिति के अनुसार बहुत अनिवार्य हो गई होती हैं। जैसे जनसंख्या विस्फोट के बारे में जब सरकार और मीडिया की ओर से यह प्रचार प्रसार किया गया कि यदि हम बढ़ती जनसंख्या को रोक नहीं पाए तो भारत में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी तो इस पर सबसे पहले संवेदनशीलता के साथ हिंदू ने ही ध्यान दिया ।
मान लेता है जो देश और समाज के हित में होती हैं।
यद्यपि हिन्दू की देश और समाज के प्रति संवेदनशीलता का दूसरे मजहब वालों ने अनुचित लाभ उठाया। विशेष रूप से मुसलमानों ने परिवार नियोजन की सरकार की सारी नीतियों की धज्जियां उड़ाईं और उन्होंने जनसंख्या वृद्धि पर अधिक ध्यान दिया। क्योंकि 1947 की 15 अगस्त से ही मुस्लिम के लोग बड़ी संख्या में एक और पाकिस्तान की तैयारी में लग गए थे। विशेष रुप से जो लोग 1947 से पहले 1945 में राष्ट्रीय असेंबली के हुए चुनावों में मुस्लिम लीग को इस उम्मीद से वोट दे गए थे कि वह हमें एक अलग देश बना कर देगी, उन्हें जब अपना मनचाहा पाकिस्तान अर्थात आज का बिहार व उत्तर प्रदेश और बंगाल तक का सारा क्षेत्र प्राप्त नहीं हुआ तो वह मन मसोसकर ( बाई च्वॉइस नहीं, यह शब्द तो हिंदू को मूर्ख बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है ) भारत में रह तो गए पर उनका लक्ष्य नहीं बदला अर्थात वह एक नए पाकिस्तान की तैयारी में पहले दिन से लग गए। अपने इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने भारत के इतिहास में हिंदू वैभव और गौरव को स्थापित नहीं होने दिया। भारत की संस्कृति व भाषा सबको मारने का प्रयास किया गया और एक गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर बेतुकी संस्कृति को लादकर धर्मनिरपेक्ष बने हिंदू को उसके बोझ के तले मारने का हर संभव प्रबंध किया गया।
वास्तव में इन लोगों का लक्ष्य किसी भी प्रकार से भारतवर्ष में हिंदुओं को कम करना था। उसका एक ही उपाय था कि ये भारत में रहकर अपनी जनसंख्या बढ़ाएं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि मुसलमानों ने हर देश का विनाश करने से पहले अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर विशेष ध्यान दिया है। वास्तव में किसी भी देश व समाज पर मुस्लिम लोगों का अपनी जनसंख्या वृद्धि करने का यह एक मौन आक्रमण होता है । जिसे वहां का समाज समझ नहीं पाता और जब तक समझता है तब तक बहुत अधिक देर हो चुकी होती है। अपनी इसी मौन आक्रमण की नीति को अपनाकर भारतवर्ष में मुसलमान 1947 से ही जनसंख्या वृद्धि करने पर लग गए। ऐसा नहीं था कि भारत की सरकारों को मुस्लिमों की इस प्रवृत्ति की जानकारी नहीं थी, उन्हें सब कुछ पता था। लेकिन वोट की राजनीति के सामने वह भी लाचार होकर खड़ी हो गईं। देश पर कैसे शासन किया जाए और उसे कैसे कब्जे में रखा जाए – उन सरकारों के मुखियाओं का का ध्यान केवल इस बात पर केंद्रित था । उधर हिंदू को सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन का झुँझुना पकड़ा दिया। जिसे उसने स्वीकार कर लिया। आज यही संवेदनशीलतावश पकड़ा गया झुँझुना हिंदू के लिए अस्तित्व का संकट बनकर मंडरा रहा है।
हिंदू के दृष्टिकोण में देश व समाज की बात रहती है। यह उसकी एक अच्छी बात हो सकती है । यह इसलिए भी रहती है कि वह इस देश को अपना देश मानता है और इस समाज को अपना समाज मानता है। वह देश और समाज की गति में बाधक नहीं बनना चाहता , अपितु उसे और गतिशील बनाने के लिए अपनी ओर से सहयोग देना चाहता है। इसका कारण यह है कि हिंदू वैदिक काल से देश और समाज की परिभाषा को जानता है। वह यह भी जानता है कि किसी देश या समाज के सभ्य नागरिक बनने की कसौटी क्या है ? यह हिंदू का वैदिक संस्कृति प्रदत्त मौलिक संस्कार है। जिसे अपनाये रखने के कारण ही वह आर्य है, वैदिक संस्कारों से युक्त एक सभ्य प्राणी है, मानवतावादी सोच रखने वाला है। हिंदू समाज के इन आर्य संस्कारों का सरकारों की ओर से सम्मान होना चाहिए था। देश के अच्छे नागरिकों के लिए यह आवश्यक भी होता है कि वह सरकार की व्यवस्था में सहायक बनें। सरकार ने हिंदू के इस प्रकार के संस्कार का सम्मान न करके हिंदू संस्कारों की उपेक्षा करके उन मूर्खतापूर्ण संस्कारों को भारत पर लादने का प्रयास किया जो संस्कार कहे ही नहीं जा सकते थे । इसका एक उदाहरण है -भारत में गंगा
जमुनी संस्कृति की मूर्खतापूर्ण बात करना। क्या संसार का कोई ऐसा वैज्ञानिक यंत्र है जो यह कह सकता हो कि दूध और छाछ का भी कोई मेल हो सकता है ? क्योंकि एक वैज्ञानिक सच यही है कि ये दोनों कभी मिल कर नहीं रह सकते। स्वाधीनता के पश्चात बनी सरकारों को इस बात को समझना चाहिए था। जो मजहब या रिलीजन इस देश को अपना नहीं मानता, वह सरकार की नीतियों में 1947 से अड़ंगा डालता आ रहा है। वह ‘निजी कानून’ की बात करता है। जिस पर हमको समझना चाहिए कि जो मजहब निजी कानून की बात करता है, उसका इस देश के संविधान, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और इस देश की विधि व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं है। सरकारी स्तर पर इस बात को जानकर भी खतरे की ओर से आंखें मूंदी गईं । यही कारण रहा कि खतरा बढ़ता गया। ‘कबूतर’ आंख बंद किए बैठे रहे और बिल्ली झपट्टा मार -मारकर उन्हें चट करती रही। सरकारें खतरे को नहीं भाग सके और देश के बहुसंख्यक समाज की शत्रु बनकर काम करती रहीं। इस कारण भी देश में हिंदू जनसंख्या कम हुई। इस प्रकार हिंदू की निम्न जन्म दर और मुस्लिम लोगों की ऊंची जन्म दर के साथ-साथ हिंदुओं का बड़ी संख्या में धर्मांतरण के माध्यम से शिकार करने की दूसरे मजहब वालों को खुली छूट मिलना देश की कानून व्यवस्था, देश के संविधान, देश की राजनीति और देश के राजनीतिज्ञों की वह कमजोरी रही जिसके कारण आज हिंदू अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार 1951 की जनगणना में हिंदुओं की जनसंख्या 84.1% और मुस्लिमों की 9.8%, 1961 में हिंदुओं की 83.4 % तो मुस्लिमों की 10.4%, 1971 में हिंदू आबादी 82.7% और मुस्लिमों की 11.2%, 1981 में हिंदू जनसंख्या 82.6% तो मुस्लिमों की 11.4%, 1991 में हिंदुओं की जनसंख्या में 81.6% और मुस्लिमों की 12.6%, 2001 में हिंदुओं की जनसंख्या 80.5% तो मुस्लिमों की जनसंख्या 13.4% और अब 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदुओं की आबादी 79.8% है तो मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़कर भारत की कुल जनसंख्या की 14.23% हो गयी है।
इन आंकड़ों से हमें पता चलता है कि 1951 की अपेक्षा 2011 में हिंदू की जनसंख्या में 5% की गिरावट देखी गई ,जबकि मुसलमान जहां 1951 में भारत की कुल जनसंख्या का 9.8 प्रतिशत था वहीं वह 2011 में आकर 14 . 2 3% हो गया अर्थात उसकी जनसंख्या में लगभग 4.43 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई।
विभाजन से पहले भारत में कुल 66 प्रतिशत हिन्दू थे। उस समय के मुसलमानों को यह रास नहीं आ रहा था कि स्वाधीनता की प्राप्ति के पश्चात 66 प्रतिशत हिंदू उन पर शासन करेंगे। वे लोग भारत को ‘मादरे वतन’ नहीं मानते थे, इसलिए उन्होंने ‘भारत के टुकड़े कर जितना हिस्सा मिल जाए, उतना बढ़िया’ – के सिद्धांत पर कार्य करते हुए अलग देश की लेने की ठान ली। जिसे ब्रिटिश सरकार का पूर्ण सहयोग व समर्थन प्राप्त हुआ और कांग्रेस इस पर शीघ्र ही सहमत हो गई । भारत को अपना ‘मादरे वतन’ न मानने का ही एक कारण था कि भारत के 93% मुसलमानों ने पाकिस्तान के पक्ष में वोट देते हुए जिन्नाह और मुस्लिम लीग का समर्थन किया था। अपनी 30 – 32% की जनसंख्या पर ही अर्थात भारत के तत्कालीन हिंदुओं की कुल जनसंख्या के आधे से भी कम लोगों ने ब्रिटिश शासकों की सहायता से अलग देश लेने को अपने लिए ‘स्वर्णिम अवसर’ माना। उन्हें पाकिस्तान बड़े आराम से मिल गया था। जिससे भारत वर्ष के भीतर रह गए उन अलगाववादी मुसलमानों का मनोबल टूटा नहीं बल्कि बढ़ गया, जिन्होंने उस समय पाकिस्तान के पक्ष में अपना मत देकर अलग देश की मांग की थी। भारत में रहने के अपने ‘दुर्भाग्य’ को उन्होंने ‘सौभाग्य’ में परिवर्तित करने के लिए हिंदुओं की फसल को काटना, उजाड़ना और कम करना अपनी योजना का एक हिस्सा बनाया और उस पर षडयंत्रपूर्वक कार्य किया जाने लगा। इसमें नए देश के रूप में स्थापित हुए पाकिस्तान ने और बाद में ‘भारत की कृपा’ से बने बांग्लादेश ने भी भारत के अलगाववादी मुसलमानों को अपना सहयोग और समर्थन देना आरंभ किया। इसलिए इस भूल में नहीं रहना चाहिए कि उनकी अलगाववादी प्रवृत्ति अब शांत हो गई होगी। पाकिस्तान के बड़े आराम से मिल जाने से तो उनकी यह प्रवृत्ति और भी अधिक भड़क गई है – इस बात पर चिंतन करना चाहिए। सरकारों को भी मुसलमानों की अलगाववादी प्रवृत्ति के संदर्भ में इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए अपनी नीतियां निर्धारित करनी चाहिए।
भारतवर्ष में 2011 में हुई जनगणना के अनुसार हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.76 प्रतिशत रही जबकि 10 वर्ष पहले हुई जनगणना में ये दर 19.92 प्रतिशत थी। हिंदुओं की जनसंख्या में आई इस गिरावट के पीछे उपरोक्त वर्णित वही कारण हैं कि हिंदू तो अपनी उस संवेदनशीलता को दिखाने में लग गया कि मैं परिवार नियोजन अपना लूंगा और मुसलमान ने न तो परिवार नियोजन को अपनाया और न ही हिंदुओं का धर्मांतरण कराने की अपनी प्रवृत्ति को त्यागा। जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों पर यदि विचार किया जाए तो पता चलता है कि 2001 से 2011 के बीच हिंदू जनसंख्या 16.76 % की गति से और मुस्लिम जनसंख्या 24.6 % की गति से बढ़ी। इससे पिछले दशक में हिंदुओं की जनसंख्या 19.92 % की तेजी से और मुस्लिमों की जनसंख्या 29.52 % की गति से बढ़ी थी।
इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि भारतवर्ष में मुस्लिमों की अपेक्षा हिंदुओं की जनसंख्या की वृद्धि दर कम होती जा रही है। हमें हिंदू के विषय में इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि यह स्वभावत: शांतिप्रिय होने के कारण अपने रोजगार और सुरक्षित भविष्य पर अधिक ध्यान देता है। यह शांति की खोज में आध्यात्मिक रूप से तो रहता ही है, सामाजिक रूप से भी यह उन क्षेत्रों को और उन स्थानों को चुनने का प्रयास करता है जहां पर शांतिपूर्ण परिवेश में अपना जीवन यापन कर सके और अपने बच्चों के भविष्य को भी सुरक्षित देख सके। इसके विपरीत मुसलमान ऐसे स्थानों को चुनते हैं जहां पर वे एक साथ इकट्ठे होकर हिंदुओं की संपत्ति पर अवैध कब्जा कर सकें या उन्हें किसी भी प्रकार से कमजोर करके अपने लिए सामाजिक और धार्मिक लाभ अर्जित कर सकें।
किसी भी मोहल्ले में यदि 20 घर रहते हैं और यदि उनमें कुछ समय बाद एक मुस्लिम परिवार आ जाए तो वह अगले 20 – 25 वर्ष में 5 से 7 घर कम से कम पैदा कर देता है। वे 4 -5 घर अगले 20 वर्ष में इसी गुणात्मक परिवर्तन से उस सारे मोहल्ले पर अपना कब्जा कर लेते हैं। अभी पिछले दिनों दिल्ली के मंगोलपुरी में जिस प्रकार एक युवक को मुस्लिमों ने उसके घर पर चढ़कर मारा था उसके पीछे इसी प्रकार का जनसांख्यिकीय गुणात्मक परिवर्तन ही काम कर रहा था। जब हम वहां गए थे तो हमको बताया गया था कि यहां पर अभियुक्त मुसलमानों का एक ही परिवार 20 – 25 वर्ष पहले आया था। उस एक मुस्लिम के 5 – 6 बेटे थे और उनके अब 20 – 25 लड़के ऐसे हो गए हैं जिन्होंने पूरे मोहल्ले में आतंक मचा दिया।
मंगोलपुरी जैसी घटनाओं को देखकर हिंदू सशंकित, आशंकित, भयभीत और इस दुविधापूर्ण दुख में रहता है कि वह अपने ही घर अर्थात भारतवर्ष को छोड़कर भी कहां जाएगा ? मुस्लिम समाज एक शत्रु के रूप में उसके गले को दबाता जा रहा है और उसकी धन संपत्ति पर ही नहीं बल्कि उसके सम्मान अर्थात बहू बेटियों पर भी कुदृष्टि लगाए हुए है।
दूसरे अल्पसंख्यकों में ईसाई धर्म की जनसंख्या का प्रतिशत 2.3 और सिख धर्म की जनसंख्या का प्रतिशत 2.16 % है। ईसाई भी भारतवर्ष के ईसाईकरण की प्रक्रिया में किस तेजी से और किस षड़यंत्रपूर्ण उद्देश्य से लगा हुआ है इस पर हम कभी अलग से अपना आलेख प्रस्तुत करेंगे।
मुस्लिमों में जन्मदर अनुपात हिंदुओं की अपेक्षा अधिक रहा है । यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि मुस्लिमों में 2001 में 1,000 पुरुषों के मुकाबले 936 महिलाएं थीं जो बढ़कर 951 हो गई हैं। वहीं हिंदुओं में 2001 में 1,000 के मुकाबले 931 महिलाएं थीं जिसमें थोड़ा सा सुधार हुआ है और अब यह 939 है।
भारतवर्ष के कानून के अनुसार आज भी हिंदू के भीतर ही सिक्ख को भी सम्मिलित किया जाता है। परंतु उसे हर स्थान पर हिंदू से अलग दिखाने का षड़यंत्र रचा जाता रहा है। उसका कारण भी यही है कि देश में हिंदू शक्ति को कमजोर किया जाए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पंजाब में सिख आंदोलन चलवाया गया। आज भी रह रहकर उस आंदोलन को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। देश में चल रहे तथाकथित किसान आंदोलन में भी हमें वही चेहरे दिखाई दे रहे हैं जो राष्ट्र विरोधी हैं। उन राष्ट्र विरोधी चेहरों में सबसे सामने सिक्खों को ही बैठाया जाता है। इसके पीछे के षड़यंत्र को भी समझने की आवश्यकता है। इसका कारण केवल यह है कि सिक्खों को यदि कैमरों के सामने रखेंगे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिक्ख आंदोलन को पुनर्जीवित करने के प्रयासों को गति दी जा सकेगी और हिन्दू शक्ति को एक प्रमुख चुनौती प्रस्तुत की जा सकेगी।
भारतवर्ष में बहुसंख्यक हिंदू समाज के प्रति सरकारों की उपेक्षापूर्ण नीति के चलते हिंदू अस्तित्व के लिए न केवल भारत में बल्कि भारत से बाहर भी संकट उपस्थित हुआ है। मॉरीशस में जहाँ हिन्दुओं की जनसंख्या 56% थी, वहीं पिछले कुछ दशकों में ये जनसंख्या घटकर मात्र 48% ही रह गयी है। जो एक बड़ी समस्या का संकेत है। यदि हिंदू जनसंख्या में गिरावट की यही स्थिति आगे भी बनी रही तो वह दिन दूर नहीं जब मॉरीशस से भी हिंदू के समाप्त होने का समाचार आ जाएगा।
हिंदू राष्ट्र के रूप में मान्यता प्राप्त रहा नेपाल भी हिंदू विरोधी शक्तियों के निशाने पर रहा है। वहां पर भी ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि अब उसे भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना दिया गया है अर्थात अब वह हिंदू विरोधी राष्ट्र बन गया है ।धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ही यह है कि हिंदू विरोध करो और अधिक से अधिक अंक प्राप्त करते जाओ। नेपाल में 1952 में हिंदुओं की संख्या 89% थी वहीं 2011 की जनगणना के आधार पर हिंदुओं की संख्या घटकर 81% रह गयी है। हिंदू विरोधी शक्तियां इस जनसंख्या को भी कम करने के अपने कुचक्र में लगी हुई हैं। वर्तमान में नेपाल भारत के सर्वथा विपरीत जाकर चीन की गोद में जा बैठा है। अब वह एक कम्युनिस्ट देश बनता जा रहा है और कम्युनिस्ट का अर्थ होता है जन्मजात हिंदू का विरोधी होना।
फिजी में 1972 में हिंदुओं की संख्या 40% थी, वहीं 2012 में यह संख्या घटकर 32% रह गयी है।
इस प्रकार के तथ्यों से और आंकड़ों से पता चलता है कि हिंदू अस्तित्व के लिए न केवल भारत में बल्कि भारत से बाहर भी संकट गहरे से गहरा होता जा रहा है।
भारत में हिंदू अस्तित्व को लेकर सरकारें मौन साधे रही हैं। इसके लिए केवल सरकारों को दोष देना भी उचित नहीं होगा। सच्चाई यह है कि हिंदू कभी भी अपना राजनीतिक ध्रुवीकरण नहीं कर पाता। यह जातियों की जूतियां में दाल बांट रहा है और शत्रु अपना काम कर रहा है। सरकारों में बैठे लोग इसकी जूतियों की दाल को पी पीकर सत्ता का स्वाद ले रहे हैं। देश के राजनीतिक लोग अपने – अपने स्वार्थ के लिए जातिवाद को बढ़ावा देते हैं । जिसका लाभ हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी शक्तियों को मिलता है। हिन्दू एक होकर कार्य करना उचित नहीं मानता और यही इसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। यदि हिंदू अपने सोलह संस्कारों के साथ अपना 17 वां संस्कार राजनीतिक रूप से अपना ध्रुवीकरण करने को अपना ले तो कोई बात बने।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत