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भारत की बात को सुने बिना विश्व समुदाय नहीं निपट सकता कोरोना संकट से

 

आनंद प्रधान

कोरोना महामारी ने मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के रग-रग में समाई गैर-बराबरी, भेदभाव और अमीर देशों के दोहरे चेहरे को एक बार फिर उजागर कर दिया है। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि विकसित अमीर देश जहां कोरोना की वैक्सीन की बड़े पैमाने पर जमाखोरी कर रहे हैं, उनकी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां पेटेंट के जरिए वैक्सीन पर ‘सुपर मुनाफा’ कमाने में जुटी हैं, वहीं भारत समेत दुनिया के अधिकांश विकासशील और गरीब देशों में वैक्सीन की भारी किल्लत के कारण अरबों लोगों का जीवन और अर्थव्यवस्था खतरे में है।

विकसित-अमीर देशों के पाखंड का आलम यह है कि उनका राजनीतिक नेतृत्व कोरोना से लड़ने के लिए लगातार वैश्विक एकजुटता की दुहाइयां दे रहा है, लेकिन गरीब और विकासशील देशों में हरेक नागरिक तक जल्दी से जल्दी सस्ती, सुलभ और सुरक्षित कोरोना वैक्सीन मुहैया कराने के लिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के तहत ट्रिप्स यानी पेटेंट प्रावधानों में छूट की मांग का खुले या दबे-छुपे विरोध कर रहा है।

ध्यान रहे कि भारत और दक्षिण अफ्रीका ने पिछले साल अक्टूबर में डब्ल्यूटीओ में यह प्रस्ताव रखा था कि महामारी की भयावहता को देखते हुए कोरोना के इलाज और जांच से जुड़ी दवाइयों, उपकरणों आदि और उसकी वैक्सीन पर ट्रिप्स के तहत पेटेंट प्रावधानों में निश्चित समय के लिए छूट दी जाए ताकि अन्य विकसित और विकासशील देशों में इनका अधिक से अधिक उत्पादन, वितरण और निर्यात के साथ जल्दी से जल्दी बड़ी आबादी का टीकाकरण संभव हो सके।

लेकिन कई अमीर देशों के अड़ियल और टालमटोल वाले रवैये के कारण पिछले सात महीने से यह प्रस्ताव लंबित है। दरअसल, विकसित देश अपनी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के दबाव में आग से खेल रहे हैं। विकासशील और गरीब देशों में कोरोना के बेकाबू और तेजी से बढ़ते संक्रमण के कारण कोरोना वायरस को न सिर्फ खुद में बदलाव (म्यूटेंट) करने का मौका मिल रहा है बल्कि वह पहले से ज्यादा संक्रमणकारी और घातक हो रहा है। इससे आशंका बढ़ रही है कि भविष्य में कोरोना का ऐसा म्यूटेंट आ सकता है, जिन पर मौजूदा वैक्सीन भी कारगर न रह जाएं। उस स्थिति में टीकाकरण के बावजूद खुद विकसित अमीर देश और उनके नागरिक फिर से संकट में पड़ जाएंगे।

लेकिन इस सचाई से वाकिफ़ होते हुए भी अमीर देश अपनी उन मुट्ठी भर बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के दबाव में हैं, जो कोरोना महामारी को ‘सुपर मुनाफा’ बनाने के मौके के रूप में देख रही हैं। इन कंपनियों का सुपर मुनाफा वैक्सीन और दवाओं पर उनके एकाधिकार और उनकी वैश्विक स्तर पर कृत्रिम किल्लत बने रहने पर टिकी है।

वैक्सीन की जमाखोरी
नतीजा सामने है। जाने-माने अर्थशास्त्री जोसफ स्टिगलिज के मुताबिक, कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लगभग वैक्सीन की 10-12 अरब डोज की जरूरत है, लेकिन वैक्सीन के पेटेंट पर चंद कंपनियों के एकाधिकार के कारण इस साल अप्रैल के आखिर तक सिर्फ 1.2 अरब डोज का उत्पादन हो पाया है। इस रफ्तार से वर्ष 2023 तक भी दुनिया की बड़ी आबादी तक वैक्सीन पहुंचाना मुश्किल होगा।

आलम यह है कि दुनिया की कुल आबादी का 16 फीसदी होने के बावजूद विकसित अमीर देशों ने वैक्सीन के कुल उत्पादन का 50 फीसदी से अधिक यानी 4.6 अरब डोज का पक्का ऑर्डर कर रखा है, जो न सिर्फ उनकी जरूरत से कई गुना ज्यादा है बल्कि जिससे वे अपने नागरिकों का कई बार टीकाकरण कर सकते हैं। यह वैक्सीन की जमाखोरी से कम नहीं है। दूसरी ओर, विकासशील और गरीब देशों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है, जिनमें से अधिकांश देशों में मुश्किल से एक फीसदी नागरिकों का भी टीकाकरण नहीं हो पाया है। साफ है कि वैक्सीन के उत्पादन और वितरण में भारी बढ़ोतरी किए बिना जल्दी से जल्दी दुनिया की बड़ी आबादी के टीकाकरण के लक्ष्य को हासिल करना असंभव है। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के इस तर्क में कोई दम नहीं है कि पेटेंट में छूट से कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि विकासशील-गरीब देशों में कोरोना वैक्सीन बनाने की क्षमता और काबिलियत नहीं है। कोअलिशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन के मुताबिक, विकसित-विकासशील देशों की ऐसी लगभग 250 कंपनियां हैं, जिन्हें अगर ट्रिप्स में छूट के तहत टेक्नलॉजी और जरूरी जानकारी मिले तो वे कोरोना वैक्सीन का गुणवत्तापूर्ण और सुरक्षित उत्पादन करने में सक्षम हैं।

गौरतलब है कि इस समय भी सीरम इंस्टिट्यूट जैसी विकासशील देशों की कई कंपनियां विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए वैक्सीन बना रही हैं। यही नहीं, ट्रिप्स के तहत पेटेंट में छूट के बावजूद पेटेंटधारी कंपनियों को उचित रॉयल्टी मिलेगी और उन्हें मुनाफा होगा। समय आ गया है जब वे कोरोना वैक्सीन और जरूरी दवाओं/जांच किट को सर्वसुलभ बनाने के लिए अपने पेटेंट अधिकार में छूट का समर्थन करें। बाइडेन सरकार के नेतृत्व में अमेरिका ने शुरुआती विरोध को छोड़कर डब्ल्यूटीओ में भारत-दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को समर्थन देने का संकेत दिया है। कोई 120 से ज्यादा देश इस प्रस्ताव के पक्ष में हैं। यूरोपीय संघ भी विरोध के बावजूद संशोधित प्रस्ताव पर विचार के लिए तैयार है, लेकिन जर्मनी, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे कई अमीर देश अब भी अड़े हुए हैं।

आशंका है कि इस कारण बातचीत लंबी खींचे और इसमें कई महीने और निकल जाएं। जाहिर है कि इसकी भारी कीमत विकासशील-गरीब देशों के नागरिकों को चुकानी पड़ेगी। एचआईवी-एड्स की सस्ती जेनरिक दवाइयों के मामले में यह पहले भी हो चुका है, जब अमीर देशों के अड़ियल रवैये और फैसले में देरी के कारण एक अनुमान के मुताबिक 1.12 करोड़ लोगों की जान चली गई थी। इस त्रासदी को दोहराए जाने से रोकना विकसित-अमीर देशों के हित में भी है। वे जानते हैं कि या तो सब सुरक्षित होंगे या फिर कोई नहीं। अब फैसला उन्हें करना है। फैसले में एक-एक पल की देरी लाखों लोगों की जान पर भारी पड़ रही है।

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