बुलंदशहर में क्रांतिकारियों का नेतृत्व करने वाले नेता वलीदाद खान ने वहां के स्वतंत्र शासक के रूप में अपना कार्यभार संभाल लिया । इसी प्रकार मेरठ में क्रांतिकारियों ने राव कदमसिंह को अपना नेता अर्थात राजा घोषित कर दिया। जिससे जनपद बुलंदशहर और मेरठ दोनों में क्रांतिकारियों को अपने सर्वमान्य नेता मिल गए। दोनों ने अपने-अपने क्षेत्रों में परंतु परस्पर पूर्ण समन्वय के साथ क्रांति की मशाल को प्रज्ज्वलित करने में अपनी अग्रणी भूमिका निभाई । दोनों ही नेता न केवल अपने सैनिकों का सैन्य नेतृत्व कर रहे थे बल्कि ओजस्वी वाणी के माध्यम से उचित मार्गदर्शन व संबोधन भी करते रहे।
28 जून 1857 को मेजर नरल हैविट को लिखे पत्र में कलक्टर डनलप ने मेरठ के क्रांतिकारियों द्वारा जो परिस्थितियां उत्पन्न कर दी गई थीं, उन पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि यदि हमने शत्रुओ को सजा देने और अपने मित्रों की सहायता करने के लिए कठोर कदम नहीं उठाए तो जनता हमारा पूरी तरह साथ छोड़ देगी और आज का सैनिक और जनता का विद्रोह कल व्यापक क्रान्ति में परिवर्तित हो जायेगा।
इस पत्र से पता चलता है कि अब अंग्रेज क्रांति के विरुद्ध प्रति क्रांति की तैयारी करने लगे थे। उन्हें यह आभास हो गया था कि अब उनका भारत से जाना निश्चित है। इसलिए जितनी कठोरता अपनाई जा सकती है उसे अपना लिया जाए। वास्तव में यह उनका अंतिम दांव था। जिसके लिए अब उन्हें यथोचित और अपेक्षित कठोर कदम उठाने ही थे। अपनी इसी सोच और रणनीति को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से मेरठ की क्रान्तिकारी परिस्थितियों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए अंग्रेजो ने मेजर विलयम्स के नेतृत्व में खाकी रिसाले का गठन किया।
इस रिसाले को वे सारी छूट और सुविधाएं प्रदान की गई जिनके आधार पर वे भारत में अंग्रेजी राज्य को चिरस्थायी कर सकने में सक्षम हो सकते थे अर्थात उन्हें यह भी छूट दे दी गई कि वह चाहे जिस प्रकार से क्रांतिकारियों का दमन करें , उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होने वाली है। वह निसंकोच और स्वतंत्र होकर परिस्थिति के अनुसार निर्णय लें और भारतवासियों के साथ जिस प्रकार चाहें उस प्रकार निपटने के लिए अपने आपको पूर्णतया स्वतंत्र समझें । इस प्रकार यह रिसाला भारतीयों के विरुद्ध क्रूर और अत्याचारी लोगों को चुन – चुनकर बनाया गया था। इसने अपनी क्रूरता और भारतवासियों के विरुद्ध अमानवीय अत्याचारपूर्ण की नीति का परिचय देते 4 जुलाई 1857 को पहला हमला पांचली गांव पर किया। याद रहे कि धन सिंह कोतवाल इसी गांव के मूल निवासी थे। स्पष्ट है कि इसी गांव पर पहला आक्रमण करने का उद्देश्य अंग्रेजों के द्वारा हमारे क्रांतिकारी नेता धनसिंह कोतवाल और उनके ग्राम वासियों को कठोर से कठोर यंत्रणा देना था। वे यह स्पष्ट कर देना चाहते थे कि यदि उनके विरुद्ध किसी ने आवाज उठाई तो चाहे उन्हें कितने ही निरपराध लोगों का नरसंहार करना हो, वह सब कुछ करने के लिए तैयार हैं। भारत के क्रांतिकारियों को अंग्रेज यह भी बता देना चाहते थे कि यदि उनके विरुद्ध आवाज उठाई गई तो उसका परिणाम बहुत बहुत ही भयंकर होगा, इतना भयंकर कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती । अपनी इसी सोच और रणनीति को क्रियान्वित करते हुए अंग्रेज जब पांचली पहुंचे तो उन्होंने इस ग्राम के निवासियों पर उस समय ऐसे – ऐसे अमानवीय अत्याचार किए जिनका वर्णन करने मात्र से लेखनी कांप जाएगी।
मनीष पोसवाल हमें बताते हैं कि खाकी रिसाले ने सबसे पहला हमला कोतवाल धन सिंह के गांव पांचली पर किया व पूरे गांव को तोप से उडा दिया जो लोग बचे उन चालीस लोगों को एक साथ जले हुए गांव में ही फाँसी दे दी। पूरा गांव तबाह हो गया। बाद में माँओं के पेट में पल रहे बच्चो व जो अपने ननिहाल में गये हुए थे, उनसे यह गाँव फिर बसा।अंग्रेजों के जुल्म व ज्यादती आज भी इन गांव वालों की जुबान पर हैं। पर साथ ही अपने पुरखों व कोतवाल की बहादुरी के किस्से भी पूरे मेरठ में मशहूर हैं व श्रध्दा से सुनाये जाते हैं ।हर साल दस मई को क्रान्ति दिवस के तौर पर याद किया जाता है व क्रान्ति के जनक कोतवाल धन सिंह गुर्जर को श्रद्धांजलि दी जाती है। साथ ही उन सभी गुमनाम गांव वालों ,किसानों व जवानों को याद किया जाता है जिन्हें इतिहास में दर्ज नहीं किया गया| भले ही यह जनक्रान्ति अपने प्रसवकाल से पहले ही फूट पड़ी हो मगर इस क्रान्ति ने वह कर दिखाया जो आज सोचना मुश्किल है , अपने समय की विश्व की सबसे बडी ब्रितानी हुकूमत को हिला दिया । जिसके बारे में लेखकों का कहना था कि इनके साम्राज्य का सूरज कभी डूबता ना था मगर अंग्रेजी राज की चूलें हिला दी थीं मेरठ से शुरू हुई इस जनक्रान्ति ने जो भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम माना जाता है ।”
इसी समय क्रांतिकारी धन सिंह कोतवाल जी को भी सरेआम फांसी दे दी गई थी और उनके शव को पेड़ पर लटकता हुआ छोड़ दिया गया था। जिससे कि दूसरे लोग यह देख सकें कि अंग्रेजों के विरुद्ध काम करने वाले लोगों की स्थिति क्या होती है ?
इस घटना के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेजों के निशाने पर हमारे सभी क्रांतिकारी और उनके गांव के लोग हैं। जब पांचली पर किए गए इन अमानवीय अत्याचारों की जानकारी राव कदम सिंह को हुई तो उन्होंने परीक्षतगढ़ छोड दिया। वह नहीं चाहते थे कि परीक्षितगढ़ के लोगों को अनावश्यक ही उनके कारण अंग्रेजों की क्रूरता या अत्याचार पूर्ण नीति का शिकार होना पड़े। उनके मन मस्तिष्क में यह विचार भी घर कर गया था कि यदि वह परीक्षितगढ़ में रहे और अंग्रेजों ने यहां आकर लोगों पर अमानवीय अत्याचार किए तो उन्हें अपनी जान देनी पड़ सकती है या फिर अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ सकता है। यह दोनों ही स्थितियां उचित और अनुकूल नहीं होंगी। फलस्वरूप उन्होंने बहसूमा अर्थात भीष्मनगर में मोर्चा लगाया, और अंग्रेजों के लिए फिर एक मजबूत चुनौती खड़ी की। यहाँ के गंगा के खादर को उन्होंने अपने लिए सुरक्षित स्थान समझा और वही से अंग्रेजों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा।
अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखते हुए 18 सितम्बर को राव कदम सिंह के समर्थक क्रान्तिकारियों ने मवाना पर हमला बोल दिया और तहसील को घेर लिया। जब इस बात की सूचना अंग्रेजों के खाकी रिसाले को प्राप्त हुई तो उन्होंने तुरंत राव कदम सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का सामना करने के लिए प्रस्थान किया। खाकी रिसाले के विरुद्ध एक प्रकार से राव कदम सिंह इस समय छापामार युद्ध की नीति पर काम कर रहे थे। उन्हें जैसे ही खाकी रिसाले के वहां आने की सूचना प्राप्त हुई तो वह अपना काम करके पीछे हट गए ।
प्रतिक्रांति की क्रूरतापूर्ण दमनकारी नीति के अंतर्गत अंग्रेज अब धीरे-धीरे क्रांतिकारियों पर हावी होने लगे थे। इसका एक कारण यह भी था कि हमारे क्रांतिकारियों के पास आधुनिकतम हथियार और ऐसे साधन व संसाधन उपलब्ध नहीं थे जिनसे उन्हें हथियारों की निरंतर आपूर्ति होती रहे । उनके पास साहस था, देशभक्ति थी, पौरुष था, पराक्रम था और वे सारी चीजें थीं जिनसे राष्ट्रभक्ति उछाल लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध काम करने के लिए उन्हें प्रेरित कर रही थी, परंतु देशभक्ति के लिए निरे साहस की ही आवश्यकता नहीं होती , उसके लिए साधन और संसाधनों की भी आवश्यकता होती है । निसंदेह अंग्रेज उस समय साधन और संसाधनों में हमारे क्रांतिकारियों पर भारी थे। जिसके कारण वह अब हमारे क्रांतिकारियों का दमन करने की स्थिति में आते जा रहे थे। फलस्वरूप 20 सितम्बर को अंग्रेजों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया।
20 सितंबर की यह तिथि भारतीय इतिहास की एक बहुत ही निर्णायक तिथि है। क्योंकि इसी तारीख से भारत के अनेकों क्षेत्रों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया था। इसके उपरांत भी इस तारीख के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि इसके पश्चात हमारे क्रांतिकारियों के साहस ,शौर्य और देशभक्ति पर ग्रहण लग गया था। देश , काल और परिस्थिति के अनुसार वह चाहे थोड़े ढीले पड़ गए परंतु उनका साहस, पराक्रम और देशभक्ति निरंतर उन्हें देश के लिए काम करने के लिए प्रेरित करती रही। हमें इस तथ्य को अपने इतिहास के पठन-पाठन या अध्ययन में निश्चित रूप से ध्यान में रखना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत